प्रदेश टुडे
भारत में विकास की अवधारणा को लेकर यह अनुभव रहा है कि देश की आर्थिक संवृद्धि को सभी वर्गों के लोगों की बेहतरी और खुशहाली से नहीं जोड़ा जा सकता। देश का समाजवादी ढांचा होने के बाद भी आर्थिक समृद्धि का लाभ पूंजीपतियों को ज्यादा मिलता है जबकि गरीबों की स्थिति जस की तस बनी रहती है,इस प्रकार यह आर्थिक असमानताओं को बढ़ाता है। भारत में आर्थिक संवृद्धि के आंकड़े भले ही रोमांचित करते रहे हो लेकिन इसके साथ यह बेहद महत्वपूर्ण हो जाता है कि इससे ज्यादा से ज्यादा लोगों को रोजगार मिल सके,गरीब कल्याण को लेकर बेहतर योजनाओं का संचालन किया जाएं और आम नागरिक के जीवन स्तर में सुधार हो सके। दरअसल वैश्विक वित्तीय अनुसंधान के लिए विख्यात मूडीज इन्वेस्टर्स सर्विस ने चालू वित्त वर्ष में आर्थिक विकास दर से जुड़े अनुमान को घटाकर 9.3 फीसदी कर दिया है। इससे पहले मूडीज ने वित्त वर्ष 2021-22 में भारत की इकोनॉमी में 13.7 फीसदी के उछाल का अनुमान जाहिर किया था। आर्थिक संवृद्धि के बढ़ते घटते अनुमानों के बीच आम आदमी और उसकी रोजी रोटी के लिए आवश्यक रोजगार की स्थिति क्या है,इसे समझना बेहद जरूरी है।
गौरतलब है कि कोई पीछे न छूटे,इस ध्येय को लेकर साल 2015 में संयुक्त राष्ट्रसंघ की महासभा की सालाना बैठक में एक प्रस्ताव पास किया गया था जिसका उद्देश्य दुनियाभर में व्याप्त गरीबी,असमानता और बेरोजगारी को खत्म कर खुशहाल समाज की स्थापना करना बताया गया था। इसके लिए आने वाले 15 वर्षों तक की समय सीमा तय करते हुए2030 तक बेहतर विश्व की कल्पना की गई थी तथा एक योजना प्रस्तुत की गई थी जिसमें मानव विकास को बेहतर करने संबंधी 17 विषयों को रखा गया था। भारत में इसे सबका साथ सबका विकास नाम दिया गया है। इस एजेंडे के लागू होने के 4 साल बाद सतत विकास रिपोर्ट 2020 जब आई तो इसमें भारत का स्थान 166 देशों की सूची में 117 वां था अर्थात यह बहुत निचले स्तर पर था। इस सूचकांक में भारत के पड़ोसी देशों ने बेहतर प्रदर्शन किया तथा भूटान को 80वां,श्रीलंका को 94वां,नेपाल को 96वां,बांग्लादेश को 109वां तथा पाकिस्तान को 134वां स्थान प्राप्त हुआ।
भारत की अर्थव्यवस्था इस समय बेहद संकट से जूझ रही है,ऐसे में साल 2024 तक पाँच ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बनाने का लक्ष्य पूरा करना असंभव प्रतीत हो रहा है। भारत की आर्थिक वृद्धि दर की समस्या यह है कि उसके साथ नौकरियां नहीं बढ़ रही हैं। यह बेहद दिलचस्प है कि दुनिया कि एक तिहाई से ज्यादा श्रम शक्ति भारत की है और उनका उपयोग करके वृद्धि दर को हासिल भी किया जा सकता है। लेकिन सरकार की नीतियां और कदम रोजगार को बढ़ाने में नाकाफी रहे है। औद्योगिक विकास को लेकर जो आंकड़े आएं है वे भी परेशान करने वाले है। मई 2014 में औद्योगिक उत्पादन में वृद्धि दर 4.6 प्रतिशत थी जो मई 2017 में गिरकर 2.7 प्रतिशत रह गई थी और इसके बाद यह लगातार प्रभावित ही रही है। मेक इन इंडिया का व्यापक प्रभाव पड़ सकता था लेकिन बैंकों के डूबने से समस्या और ज्यादा बढ़ गई। सरकारी बैंकों से क़र्ज़ मिलना मुश्किल हो गया इससे नए उद्योग धंधे खुलने की संभावनाएं बहुत कम हो गई। महंगाई बढ़ने से खर्च में लोग कमी करने लगे और इससे उद्योग धंधे बूरी तरह प्रभावित हुए जिससे नए रोजगार के अवसर बढ़ने कि संभावनाएं भी ध्वस्त हो गई। बाज़ार में निराशा का माहौल बढ्ने से उद्यमियों को नया उद्योग लगाना फ़ायदे का सौदा में नहीं लगा,और इससे बेरोजगारी ओर ज्यादा बढ़ गई।
पिछले साल लॉकडाउन के तुरंत बाद करीब 12 करोड़ लोगो ने अपनी नौकरियां गंवा दी थी और बाद में यह आंकड़ा बढ़ता ही जा रहा है। विभिन्न कंपनियां लगातार कर्मचारियों की छंटनी कर रही है और इससे लोग लगातार प्रभावित भी हो रहे है। छठी पंचवर्षीय योजना के दस्तावेज़ में योजना आयोग ने आर्थिक संवृद्धि और रोजगार की जरूरतों पर अपना दृष्टिकोण साफ करते हुए लिखा था कि,“गरीबी की रोकथाम करने के लिए जोरदार उपाय करना जरूरी है। अर्थव्यवस्था की कुल मिलाकर संवृद्धि में पर्याप्त वृद्धि होने पर निश्चय ही गरीबी और बेरोजगारी निवारण के लिए अनुकूल परिस्थितियां बन सकती है। तथापि पिछले अनुभवों को ध्यान में रखते हुए समस्या के समाधान के लिए केवल आर्थिक संवृद्धि प्रक्रिया पर निर्भर रहना व्यवहारिक नहीं होगा। इसके साथ ही योजना आयोग ने पिछड़े क्षेत्रों की संवृद्धि और गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम के गुणवत्तापूर्ण विस्तार पर ध्यान देने की नसीहत दी थी। इन सबके साथ रोजगार की जरूरत को सबसे ज्यादा अहम बताया गया था।”
असल में सरकार की प्राथमिकता आर्थिक संवृद्धि के साथ साथ रोजगार बढ़ाने पर भी होना चाहिए। सभी को रोजगार मिलने से भारत के करोड़ों परिवारों के घरों में खुशहाली आएगी और असमानता की चुनौती को भी पाटा जा सकेगा। भारत की स्थाई बेहतरी और खुशहाली के लिए आर्थिक संवृद्धि को रोजगार से जोड़कर देखने की जरूरत है।