रोजगारविहीन आर्थिक संवृद्धि का अभिशाप झेलता भारत,rojgar bharat

        प्रदेश टुडे    

          


भारत में विकास की अवधारणा को लेकर यह अनुभव रहा है कि देश की आर्थिक संवृद्धि को सभी वर्गों के लोगों की बेहतरी और खुशहाली से नहीं जोड़ा जा सकता। देश का समाजवादी ढांचा होने के बाद भी आर्थिक समृद्धि का लाभ पूंजीपतियों को ज्यादा मिलता है जबकि गरीबों की स्थिति जस की तस बनी रहती है,इस प्रकार यह आर्थिक असमानताओं को बढ़ाता है। भारत में आर्थिक संवृद्धि के आंकड़े भले ही रोमांचित करते रहे हो लेकिन इसके साथ यह बेहद महत्वपूर्ण हो जाता है कि इससे ज्यादा से ज्यादा लोगों को रोजगार मिल सके,गरीब कल्याण को लेकर बेहतर योजनाओं का संचालन किया जाएं और आम नागरिक के जीवन स्तर में सुधार हो सके। दरअसल वैश्विक वित्तीय अनुसंधान के लिए विख्यात मूडीज इन्वेस्टर्स सर्विस ने चालू वित्त वर्ष में आर्थिक विकास दर से जुड़े अनुमान को घटाकर 9.3 फीसदी कर दिया है।  इससे पहले मूडीज ने वित्त वर्ष 2021-22 में भारत की इकोनॉमी में 13.7 फीसदी  के उछाल का अनुमान जाहिर किया था। आर्थिक संवृद्धि के बढ़ते घटते अनुमानों के बीच आम आदमी और उसकी रोजी रोटी के लिए आवश्यक रोजगार की स्थिति क्या है,इसे समझना बेहद जरूरी है।


गौरतलब है कि कोई पीछे न छूटे,इस ध्येय को लेकर साल 2015 में संयुक्त राष्ट्रसंघ की महासभा की सालाना बैठक में एक प्रस्ताव पास किया गया था जिसका उद्देश्य दुनियाभर में व्याप्त गरीबी,असमानता और बेरोजगारी को खत्म कर खुशहाल समाज की स्थापना करना बताया गया था। इसके लिए आने वाले 15 वर्षों तक की समय सीमा तय करते हुए2030  तक बेहतर विश्व की कल्पना की गई थी तथा एक योजना प्रस्तुत की गई थी जिसमें मानव विकास को बेहतर करने संबंधी 17 विषयों को रखा गया था। भारत में इसे सबका साथ सबका विकास नाम दिया गया है। इस एजेंडे के लागू होने के 4 साल बाद सतत विकास रिपोर्ट 2020 जब आई तो इसमें भारत का स्थान 166 देशों की सूची में 117 वां था अर्थात यह बहुत निचले स्तर पर था। इस सूचकांक में भारत के पड़ोसी देशों ने बेहतर प्रदर्शन किया तथा भूटान को 80वां,श्रीलंका को 94वां,नेपाल को 96वां,बांग्लादेश को 109वां तथा पाकिस्तान को 134वां स्थान प्राप्त हुआ। 


भारत की अर्थव्यवस्था इस समय बेहद संकट से जूझ रही है,ऐसे में साल 2024 तक पाँच ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बनाने का लक्ष्य पूरा करना असंभव प्रतीत हो रहा है। भारत की आर्थिक वृद्धि दर की समस्या यह है कि उसके साथ नौकरियां नहीं बढ़ रही हैं। यह बेहद दिलचस्प है कि दुनिया कि एक तिहाई से ज्यादा श्रम शक्ति भारत की है और उनका उपयोग करके वृद्धि दर को हासिल भी किया जा सकता है। लेकिन सरकार की नीतियां और कदम रोजगार को बढ़ाने में नाकाफी रहे है। औद्योगिक विकास को लेकर जो आंकड़े आएं है वे भी परेशान करने वाले है। मई 2014 में औद्योगिक उत्पादन में वृद्धि दर 4.6 प्रतिशत थी जो मई 2017 में गिरकर 2.7 प्रतिशत रह गई थी और इसके बाद यह लगातार प्रभावित ही रही है। मेक इन इंडिया का व्यापक प्रभाव पड़ सकता था लेकिन बैंकों के डूबने से समस्या और ज्यादा बढ़ गई। सरकारी बैंकों से क़र्ज़ मिलना मुश्किल हो गया इससे नए उद्योग धंधे खुलने की संभावनाएं बहुत कम हो गई। महंगाई बढ़ने से खर्च में लोग कमी करने लगे और इससे उद्योग धंधे बूरी तरह प्रभावित हुए जिससे नए रोजगार के अवसर बढ़ने कि संभावनाएं भी ध्वस्त हो गई। बाज़ार में निराशा का माहौल बढ्ने से उद्यमियों को  नया उद्योग लगाना फ़ायदे का सौदा में नहीं लगा,और इससे बेरोजगारी ओर ज्यादा बढ़ गई।  


पिछले साल लॉकडाउन के तुरंत बाद करीब 12 करोड़ लोगो ने अपनी नौकरियां गंवा दी थी और बाद में यह आंकड़ा बढ़ता ही जा रहा है। विभिन्न कंपनियां लगातार कर्मचारियों की छंटनी कर रही है और इससे लोग लगातार प्रभावित भी हो रहे है। छठी पंचवर्षीय योजना के दस्तावेज़ में योजना आयोग ने आर्थिक संवृद्धि और रोजगार की जरूरतों पर अपना दृष्टिकोण साफ करते हुए लिखा था कि,“गरीबी की  रोकथाम करने के लिए जोरदार उपाय करना जरूरी है। अर्थव्यवस्था की कुल मिलाकर संवृद्धि में पर्याप्त वृद्धि होने पर निश्चय ही गरीबी और बेरोजगारी निवारण के लिए अनुकूल परिस्थितियां बन सकती है। तथापि पिछले अनुभवों को ध्यान में रखते हुए समस्या के समाधान के लिए केवल आर्थिक संवृद्धि प्रक्रिया पर निर्भर रहना व्यवहारिक नहीं होगा। इसके साथ ही योजना आयोग ने पिछड़े क्षेत्रों की संवृद्धि और गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम के गुणवत्तापूर्ण विस्तार पर ध्यान देने की  नसीहत दी थी। इन सबके साथ रोजगार की जरूरत को सबसे ज्यादा अहम बताया गया था।”


असल में सरकार की प्राथमिकता आर्थिक संवृद्धि के साथ साथ रोजगार बढ़ाने पर भी होना चाहिए। सभी को रोजगार मिलने से भारत के करोड़ों परिवारों के घरों में खुशहाली आएगी और असमानता की चुनौती को भी पाटा जा सकेगा। भारत की स्थाई बेहतरी और खुशहाली के लिए आर्थिक संवृद्धि को रोजगार से जोड़कर देखने की जरूरत है। 



किसे चाहिए खालिस्तान....? Politics,khalistan

  पॉलिटिक्स

                              



1971 का युद्द पाकिस्तान बुरी तरह हार चूका था और उसके दो टुकड़े करने में सिख सैन्य अधिकारियों की बड़ी भूमिका थी। भारतीय सेना में सिखों के वर्चस्व,प्रभाव और अग्रणी भूमिका से पाकिस्तान के प्रधान मंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो इतने आतंकित हुए कि उन्होंने शातिराना दांव खेलते हुए एक पृथकतावादी सिख जगजीत सिंह चौहान  के सामने खालिस्तान बनाने में मदद करने  का प्रस्ताव रखा था। अलग खालिस्तान राष्ट्र की स्थापना की मांग करने वाले अलगाववादी नेता जगजीत सिंह चौहान खालिस्तान आंदोलन की शुरूआत करने वालों में शामिल थेचौहान ने 1980 के दशक में अलग खालिस्तानी राष्ट्र की घोषणा कर दी थी जब पंजाब में चरमपंथ अपने शीर्ष पर थावे 1980 के दशक के मध्य में भारत से ब्रिटेन चले गए थे और बाद में चौहान ने लंदन से खालिस्तान राष्ट्र के करेंसी नोट जारी करके सनसनी फैला दी थी


खालिस्तानियों से आम सिख का सरोकार नहीं

मीरी-पीरी या   नी राजकाज और धार्मिक नेतृत्वखालिस्तानी चाहते हैं कि ये दोनों काम गुरुद्वारे ही करें। जबकि आम सिख इससे इत्तेफाक नहीं रखते उनके लिए गुरुद्वारे श्रद्धा,भक्ति और आस्था का प्रतीक है तथा वे मानते है कि राजनीति के लिए धार्मिक स्थल का इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए। इस साल 6 जून को ऑपरेशन ब्लू स्टार के 37 वें साल पूरे होने के मौके पर अकाल तख़्त साहिब में खालिस्तानियों ने हमेशा कि तरह प्रदर्शन किए,इस दौरान उन्होंने  खालिस्तान समर्थक बैनर थामकर खालिस्तान हमारा अधिकार जैसे नारे लगाएं। दरअसल भारत में तकरीबन तीन करोड़ आबादी सिखों की है और देश के लिए सर्वस्व न्यौछावर करने की उनकी त्याग और बलिदान की परंपरा का कोई मुक़ाबला नहीं किया जा सकता। सिख मूलत: पंजाब में रहते है और पंजाब की सीमा पाकिस्तान से लगी हुई है। भारत से आमने सामने की लड़ाई में बुरी तरह मात खाने वाले पाकिस्तान ने भारत से लड़ने के लिए मनौवैज्ञानिक युद्द का सहारा लिया और 70 के दशक में जनरल जिया-उल-हक ने आपरेशन जिब्राल्टर की शुरुआत की जिसके अंतर्गत भारत के विभिन्न क्षेत्रों में अलगाववाद को भड़काने की कोशिशें की गई।    खालिस्तान का मुद्दा उनके लिए केंद्र में था और पाकिस्तान के हुक्मरान इसके लिए अवसर ढूंढ रहे थे।


 

ऑपरेशन ब्लू स्टार की कमान सिख सैन्य अधिकारियों के हाथ में थी

6 जून 1984 को भारतीय सैन्य बलों के द्वारा स्वर्ण मंदिर से आतंकियों को बाहर निकलने के लिए की गई कार्रवाई  को 'ऑपरेशन ब्लू स्टार' के नाम से जाना जाता है। यह भी कम ही लोग जानते होंगे कि ऑपरेशन ब्लू स्टार का नेत़ृत्व करने वाले तीन मुख्य सैन्य अधिकारियों में से दो सिख थे। ये थे पश्चिमी कमान के चीफ़ ऑफ़ स्टाफ़ लेफ़्टिनेंट जनरल रंजीत सिंह दयाल और दूसरे नवीं इनफ़ेंट्री डिवीज़न और स्वर्ण मंदिर में घुसने वाली सेना के कमांडर मेजर जनरल कुलदीप सिंह बरार। इन दोनों ने ही पश्चिमी कमान के प्रमुख जनरल सुंदर जी के साथ मिल कर ऑपरेशन ब्लू स्टार की योजना बनाई थी जिससे भिंडरावाला के नेतृत्व में स्वर्ण मंदिर के अंदर घुसे आतंकियों को इस महान पवित्र स्थल से बाहर खदेड़ा जा सके।  जरनैल सिंह भिंडरावाला के नेतृत्व में चरमपंथी सिखों के लिए एक अलग राज्य खालिस्तान की मांग कर रहे थे। इस अभियान में भिंडरावाला मारा गया था। मेजर जनरल केएस बरार का कहना था कि उनकी जानकारी के मुताबिक भिंडरावाला के नेतृत्व में  कुछ ही दिनों में ख़ालिस्तान की घोषणा होना जा रही थी और उसे रोकने के लिए ऑपरेशन को जल्द से जल्द अंजाम देना ज़रूरी था। जनरल बरार 1971 के भारत पाकिस्तान युद्ध के भी हीरो थे। 16 दिसंबर 1971 को ढाका में प्रवेश करने वाले वह पहले भारतीय सैनिकों में से एक थे। इस युद्ध में असाधारण वीरता दिखाने के लिए उन्हें भारत का तीसरा सबसे बड़ा वीरता पुरस्कार वीर चक्र दिया गया था।



 


ब्रिटेन को बनाया भारत विरोध का केंद्र

पाकिस्तानी प्रभाव से दिग्भ्रमित खालिस्तान के चरमपंथी दुनियाभर में सिख होमलैंड के पक्ष में प्रदर्शन करते रहे है। कनाडा में काम करने वाली पृथकतावादी ताकतें ऐसे प्रयास कर रही है कि वे कनाडा में ख़ालिस्तान समर्थन सुनिश्चित करने के लिए  स्वतंत्र पंजाब के पक्ष में एक जनमत संग्रह कराएं। अगस्त महीने में दुनिया भर में बसने वाला भारतीय समुदाय अपना स्वतंत्रता दिवस उत्साहपूर्ण तरीके से मनाता है और इस दौरान कई कार्यक्रम भी आयोजित किए जाते है। खालिस्तानी समर्थक इस मौके पर भारत विरोध का झंडा बुलंद करते है,लंदन में भी जनमत संग्रह के लिए प्रदर्शन किए जा चुके है । खालिस्तान समर्थको ने  इसके पहले 2020 के लिए खालिस्तान के पक्ष में जनमत संग्रह को लेकर एक रैली भी निकाली थी जिसमें भारत विरोधी नारे लगाए गए थे। लंदन में करीब 60  फीसदी विदेशी मूल के है और इन्हें पाकिस्तान गुमराह करता रहा है।


 

खालिस्तान की मांग का प्रमुख केंद्र बना कनाडा

उत्तरी अमेरिकी देश कनाडा पृथकतावादी सिख होमलैंड खालिस्तान के समर्थकों के लिए महफूज ठिकाना रहा है। यह देश विदेशी अल्पसंख्यकों की पहली पसंद है और इसे सिखों का दूसरा घर भी कहा जाता है। भारत के बाद सबसे बड़ी सिख आबादी कनाडा में ही  बसती है। खालिस्तानी आतंकवादी गुट बब्बर खालसा इंटरनेशनल यानि बीकेआई सिख अलगाव को बढ़ावा देने के लिए पूरी दुनिया में प्रभावशील है। इस आतंकी गुट का कनाडा पर गहरा प्रभाव है और वे इस देश में राजनीतिक तौर पर भी ताकतवर माने जाते है। यहीं नहीं अपने रसूख का इस्तेमाल कर बीकेआई खालिस्तान का समर्थन देने वाली ताकतें को यहां से संचालित भी करती है। कनाडा अटलांटिक महासागर से प्रशांत महासागर और उत्तर  में आर्कटिक महासागर तक फैला हुआ है,यह क्षेत्रफल की दृष्टि से विश्व का दूसरा सबसे बड़ा देश है। महाशक्ति अमेरिका के साथ अन्तर्राष्ट्रीय सीमा विश्व की सबसे बड़ी सीमा रेखा है। बब्बर खालसा इंटरनेशनल को कनिष्क विमान विस्फोट के लिए जिम्मेदार माना जाता है। इसमें भारत के करीब 329 लोग मारे गए थे।  यह आतंकी संगठन हर साल बैसाखी जैसे मौकों पर आयोजित समारोहों में सिख चरमपंथियों को शहीद का दर्जा देकर  उन्माद फैलाता है यहीं नहीं सार्वजनिक समारोह में खालिस्तान के नारे  लगाकर भारत विरोधी कार्यों को अंजाम दिया जाता है।


पाकिस्तान की कुख्यात आईएसआई का खूनी प्लान k-2

पाकिस्तान खालिस्तान को जिन्दा रखने के लिए अपनी जमीन का बेजा इस्तेमाल करने से कभी परहेज नहीं करता। वह विदेशों में रहने वाले खालिस्तानी समर्थकों को भारत विरोध के लिए उकसाने की नीति पर चलता रहा है। लाहौर में सिख अतिवादी संगठन बब्बर खालसा इंटरनेशनल का सरगना वधवा सिंह बब्बर लम्बे समय तक पाकिस्तान की खुफियां एजेंसी आईएसआई  की सरपरस्ती में रहा था। इस दौरान उसने लश्कर तैयबा के साथ मिलकर सिख आतंकवाद को फिर से जिंदा करने की कोशिशें भी की। पाकिस्तान में सिख अतिवादियों को जेहादी भाई कहा जाता है और उन्हें तमाम सुख सुविधाओं के साथ पाक सेना के अधिकारियों,आईएसआई  और कुख्यात आतंकी संगठन के आकाओं से मिलने की खुली छुट भी मिली होती है। दूसरी और यह तथ्य किसी से छुपे नहीं है की पंजाब के शिरोमणि अकाली दल जैसे राजनीतिक दल पृथकतावादियों को राजनीतिक समर्थन देते रहे है। अकाली दल  पंजाब की स्वायतता के हिमायती रहे है और उनकी भूमिका भी संदिग्ध रही है। पाकिस्तान की इंटर सर्विसेज इंटेलिजेंस सिख आतंकवादी संगठनों में फिर से जान डालने के लिए कनाडा,अमेरिका समेत दुनियाभर में बसे सिखों को भड़काने का कोई भी मौका नहीं छोड़ती। आईएस आई खालिस्तानी अलगाववादी और कश्मीर के आतंकवादियों को एक जुट करने की योजना पर लगातार काम कर रही है।


ननकाना साहिब पर पाकिस्तान की कुटिल नजर

पाकिस्तान ने खालिस्तान के लिए ननकाना साहिब में भी लगातार मुहिम चलाई है। दुनियाभर के सिख वहां गुरु नानक देव की जयंती पर जुटते हैं। पाक सिखों को ननकाना साहिब में आने के लिए न केवल उच्च कोटि की सुरक्षा देता है बल्कि वहां खालिस्तान के समर्थन में पोस्टर भी लगाता रहा है। आईएसआई खालिस्तान के नाम पर सिख युवाओं को भडकाकर स्लीपर सेल बनाने को आमादा है। इसके लिए वह स्वर्ण मंदिर से बाहर निकालने के लिए की गई कार्रवाई और  सिख विरोधी दंगों के नाम पर विष वमन करती है। इन्टरनेट पर सिख आतंकवादियों की शहादत जैसा महिमामंडन और एनजीओ द्वारा पैसा भेजकर आईएसआई खालिस्तान के दानव को पुनः जीवित करना चाहती है।

असल में खालिस्तान की मांग को उभार कर पाकिस्तान लगातार भारत में अलगाववादी ताकतों को मजबूत करने की कोशिशें करता रहा है। वहीं पाकिस्तान इसलिए सफल नहीं हो पाया क्योंकि  खालिस्तान के दानव को समाप्त करने में सिख सैन्य और पुलिस अधिकारियों के साथ पंजाब की बहुसंख्यक सिख आबादी का बड़ा योगदान रहा है। 

थोपे गए चिरागों से मुक्ति का संदेश

 प्रात: किरण,दिल्ली,पटना,यूपी 


                                              

राजनीति के मार्ग टेढ़े भले ही हो लेकिन उसका अंतिम लक्ष्य सत्ता और शक्ति की प्राप्ति ही होता हैरामविलास पासवान सत्ता में बने रहने की कला में पारंगत थे और उनकी इस काबिलियत के सभी कायल थेलेकिन उनके बेटे चिराग पासवान का ध्यान सत्ता हासिल करने से ज्यादा प्रतिद्वंदिता की ऐसी राजनीति रहा है जहां दूसरे को नुकसान पहुँचाने की कोशिशों में खुद को खत्म कर लेने का मूर्खतापूर्ण जूनून ज्यादा नजर आता है। जाहिर है खुद को बुलंद किए बिना राजनीति  के मैदान में ज्यादा देर तक बने रहना असम्भव होता हैचिराग इस मूल अवधारणा को अपने पिता से नहीं सीख पाएं और उन नाकाम राजकुमारों की फेहरिस्त में शामिल हो गए जिनके लिए वापसी की संभावना दूर दूर तक नजर नहीं आती है


दरअसल बिहार में राम बनने की परम्परा है वहीं चिराग का यह अजीबोगरीब जूनून ही था कि उन्होंने स्वयं को हनुमान घोषित कर आधी अधूरी राम भक्ति का राग अलापाबिहार के मुख्यमंत्री नीतीश बाबू  भारतीय राजनीति का ऐसा चेहरा है जिनमें आप लोहिया,नेहरु,अटलबिहारी वाजपयी और ज्योति बसु को बारी बारी से देख सकते हैचिराग पासवान उस फ़िल्मी दुनिया से आएं थे जहां किरदार निभाना तो सिखाया जाता है लेकिन किरदार को जीने की चाह दूर दूर तक नहीं होतीचिराग बिहार की राजनीति में अपना किरदार निभाते हुए नीतीश कुमार के चेहरे के भांति भांति के रूपों को पहचान ही नहीं पायें


पिछले साल विधानसभा चुनावों के पहले एलजेपी के अध्यक्ष चिराग़ पासवान ने  भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष जेपी नड्डा और केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह को चिठ्ठी लिख कर कहा था कि  नीतीश कुमार के ख़िलाफ़ 'एंटी इनकम्बेंसी' है और वो चुनाव हार" भी सकते हैंउन्होंने ये भी सुझाव दिया कि बिहार में भारतीय जनता पार्टी को अकेले ही चुनाव लड़ना चाहिएउन्होंने एनडीए से नितीश बाबू को बाहर निकालने की मांग की और स्वयं के लिए उपमुख्यमंत्री की कुर्सी,33 विधानसभा की सीटें,दो एमएलसी और एक राज्यसभा की सीट का दावा कर दियाबिहार की राजनीति के व्यवहार से प्रधानमंत्री मोदी,सुशील मोदी और नीतीश कुमार भलीभांति परिचित है बिहार में अगड़ी जाति 17 फीसदी,पिछड़े और अत्यंत पिछड़े वर्ग का हिस्सा 51 फीसदी और महादलित की आबादी करीब 11 फीसदी हैयहां जाति सबसे अहम है और बाकी विकास और सुशासन उसके मुकाबले कमजोर पड़ जाते हैभारतीय जनता पार्टी ने पिछड़ों और महादलितों को साधने के लिए चिराग के सामने कई प्रस्ताव रखे लेकिन चिराग के लिए अपनी पार्टी के भविष्य से ज्यादा जरूरी नीतीश कुमार को सत्ता से बाहर करना रहाइन सबके बावजूद भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष ने स्पष्ट कर दिया कि बिहार में एनडीए नीतीश कुमार के नेतृत्व में ही चुनाव लड़ेगी

कुल मिलाकर चिराग पासवान नीतीश कुमार का विरोध करते करते उनके ही  जाल में उलझते चले गएइसमें चिराग पासवान की राजनीतिक अनुभवहीनता भी भारी पड़ीउनकी पार्टी ने भाजपा की एनडीए में शामिल होने की पेशकश को तो ठुकरा दिया लेकिन चिराग ने यह बताने से गुरेज नहीं किया की कि उनका विरोध नीतीश कुमार से हैलोजपा ने ऐसी केवल छह सीटों पर उम्मीदवार उतारे जहां भाजपा प्रत्याशी मैदान में थे जबकि उन सभी 115 सीटों पर उसने उम्मीदवार खड़े किये जहां जदयू ने अपने प्रत्याशी उतारे थे जेडीयू का विरोध करते हुए बिहार विधानसभा चुनाव में अकेले दम पर मैदान में उतरी चिराग़ पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी को सिर्फ़ एक सीट ही हासिल हुई अपनी असफलता के बाद भी चिराग ने यह दावा किया था कि उनकी पार्टी के वजह से ही जेडीयू को भारी नुकसान उठाना पड़ा और राज्य में कम से कम 36 सीटों पर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार नीत जनता दल (यू) की हार में लोजपा की अहम भूमिका रही


वास्तव में चिराग पासवान बिहार की राजनीति में अजातशत्रु बनने का ख्वाब पाले हुए थे लेकिन उनका राजनीतिक कौशल कभी सत्ता को हासिल करने के लिए मुफीद नजर ही नहीं आया वे जमीनी स्तर पर वह छाप छोड़ने में कामयाब नहीं हो सके जो उनके पिता रामविलास पासवान की ताकत थी उन्होंने चार दशक से ज्यादा समय तक बिहारी की राजनीति में अपना सिक्का इसीलिए कायम रख सके क्योंकि उनकी लोकप्रियता विरोधियों को भी नतमस्तक होने पर मजबूर कर देती थी नीतीश बाबू ने अपने दोस्त रामविलास पासवान के बेटे को बार बार अभयदान देने से परहेज किया और इसी का नतीजा है कि लोजपा के छह सांसदों में से पांच ने अलग होने की घोषणा कर चिराग पासवान को चारो खाने चित्त कर दिया


अब चिराग पासवान अकेले नजर आ रहे है और भारत जैसे विशाल लोकतांत्रिक देश में अकेले सांसद की स्थिति उस पायलट की तरह हो जाती है जहां वह कुछ समय तक अकेला और खाली विमान उड़ाकर थक कर चूर हो जाता है लोक जनशक्ति पार्टी एनडीए का अहम हिस्सा मानी जाती है और मोदी सरकार के मंत्रिमंडल में बदलाव की कवायदों के बीच चिराग पासवान के केंद्र में मंत्री बनने की प्रबल संभावना थी। अब चिराग न तो मंत्रिमंडल में नजर आएंगे न ही वह सम्मान पा सकेंगे जिसके कुछ समय पहले तक वे स्वाभाविक हकदार समझे जाते थे।


चिराग पासवान के राजनीतिक उदय और अस्त होने के समूचे घटनाक्रम में भारतीय लोकतांत्रिक दलों की वह बदतरीन हकीकत सामने आई है जहां परिवारवाद पूरी तरह हावी होकर सत्ता और पार्टी पर अपनी पकड़ बनाएं रखने को सदैव तत्पर नजर आते है लोक जनशक्ति पार्टी में कई वरिष्ठ नेताओं को दरकिनार कर स्वर्गीय रामविलास पासवान से अपने बेटे चिराग पासवान को पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया थाइसका परिणाम पार्टी के लिए जल्द ही आत्मघाती बनकर सामने आ गया हैजाहिर है भारत में ऐसे और भी ऐसे कई राजनीतिक दल है जो लोकतांत्रिक परम्पराओं को नजरअंदाज कर पार्टी पर अपना वर्चस्व कायम रखने के लिए परिवारवाद का दांव खेलते रहे है  यह राजनीति का अभिजनवादी सिद्धांत है जहां सरपंच से लेकर संसद तक परिवाद की दावेदारी पूरे दमखम से नजर आती है और राजनीतिक दलों में इसे स्वत: दावेदारी के रूप में स्वीकार भी कर लिया गया है  यहां तक की इससे देश की कोई भी पार्टी इससे अछूती नहीं है  आने वाले समय में चिराग पासवान को दरकिनार करने का उनकी पार्टी का तरीका मिसाल बनकर अन्य राजनीतिक दलों में भी आजमाया जाएं तो इसमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए

अस्पतालों के राष्ट्रीयकरण की जरूरत, india private hospital rashtriya sahara

राष्ट्रीय सहारा,हस्तक्षेप विशेषांक 


              

स्वास्थ्य सुरक्षा किसी भी देश की प्राथमिकता होनी चाहिए लेकिन भारत में ऐसा बिल्कुल भी नहीं है भारत वर्तमान में दुनिया की पांचवी बड़ी अर्थव्यवस्था है जो कुल जीडीपी का तक़रीबन सवा फीसदी हिस्सा ही स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च करता है,यह पाकिस्तान, सूडान और कंबोडिया  जैसे अल्पविकसित देशों से भी कम हैस्वास्थ्य सेवाओं पर जीडीपी के खर्च का वैश्विक स्तर 6 फीसदी माना गया है विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार प्रत्येक 1000 नागरिकों पर 1 डॉक्टर होना अनिवार्य है। जबकि भारत में इससे दस गुना अधिक नागरिकों पर मुश्किल से 1 सरकारी डॉक्टर उपलब्ध हो पाता  है स्वास्थ्य को लेकर भारत की वैश्विक रैंकिंग बदतर है और लोगों को समय पर प्राथमिक चिकित्सा भी मुहैया नहीं होती


यह बेहद दिलचस्प है कि देश में उपलब्ध 1 मिलियन डॉक्टरों में से मात्र 10 प्रतिशत ही सार्वजनिक स्वास्थ्य क्षेत्र में कार्य करते हैं। इसका मतलब साफ है कि समाजवादी भारत में निजी स्वास्थ्य सेवाओं का प्रभावी जाल है  जिससे किसी न किसी तरीके से देश के 90 फीसदी डॉक्टर जुड़े हुए है इन अस्पतालों के मालिक उस पूंजीवादी समाज का प्रतिनिधित्व करते हुए दिखाई देते है जिसका पैमाना ऊंची बोली और ऊंचा रसूख होता हैऐसे में आम लोगों के लिए ज्यादा गुंजाईश नहीं बचती


कोरोना महामारी के कहर में यह तथ्य साफ उभर कर आया कि भारत अपने मौजूदा बुनियादी ढांचे और स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली के साथ महामारी से लड़ने के लिए तैयार नहीं है लचर सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं से आशंकित कोविड मरीज जिन्दा बचे रहने की आस में निजी अस्पतालों की ओर रुख करने को मजबूर हुए है लेकिन बेलगाम निजी अस्पतालों के भारी भरकम बिल के आगे कई उम्मीदें धराशाई हो गईदेश के अमूमन सभी क्षेत्रों में निजी अस्पतालों की मनमानी देखी जा रही है

 


 

कोरोना महामारी से जूझते नागरिकों के लिए जो भी राहत देने की कोशिशें हुई उसमें उच्चतम न्यायालय की भूमिका स्पष्टता से कई बार सामने आई है पिछले साल सुप्रीम कोर्ट ने एक याचिका पर सुनवाई करते हुए  कहा था कि सरकारों से मुफ़्त में ज़मीन लेने वाले अस्पताल कोविड मरीज़ों का मुफ़्त में इलाज क्यों नहीं कर सकते? दरअसल यह सवाल इसलिए उठ खड़ा हुआ क्योंकि महामारी से मौत के आतंक के बीच निजी अस्पतालों की मनमानी भी आतंकित करने वाली रही है। ऐसा प्रतीत होता है कि  लोककल्याणकारी समाजवादी भारत की स्वास्थ्य पर आधारित व्यवस्थाएं पूंजीवादी मॉडल पर सवार  हो चूकी है इसके बावजूद की ब्रिटेन जैसे पूंजीवादी देश में भी स्वास्थ्य की जरूरतों को सार्वजनिक सेवाओं के माध्यम से पूरा किया जाता है। भारत में संविधानिक तौर पर राज्य के नीति निदेशक तत्वों में  यह जाहिर किया गया है कि अपने नागरिकों के स्वास्थ्य की देखभाल और उसकी सुरक्षा राज्य की जिम्मेदारी है


भारत के प्रत्येक नागरिक को स्वास्थ्य और उत्पादक जीवन मुहैया कराने के उद्देश्य से राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति के अलग अलग रूप लगातार सामने आएं है। हालांकि उनके केंद्र में सदैव यह सुनिश्चित करने का आम नागरिकों को भरोसा दिलाया गया कि स्वास्थ्य पर होने वाले खर्च को कम किया जा सकता है। इससे नागरिकों को स्वास्थ्य संबंधी खर्च के जोखिम से भी बचाया जा सकता है।  लेकिन निजी अस्पतालों के प्रभाव ने खर्च को असीमित कर दिया है जबकि जान का जोखिम बरकरार रहता हैकोविड से प्रभावित मरीजों से लाखों रुपए वसूली की अनगिनत घटनाओं के बीच अनेक राज्य सरकारों को निजी अस्पतालों की इलाज के लिए निश्चित फीस  तय करना पड़ा पड़ा। फिर भी यह खर्च जनरल वार्ड के लिए प्रतिदिन के हिसाब से 5 हजार से 10 हजार और आईसीयू वार्ड का खर्च अधिकतम 15 हज़ार से 20 हजार तक देने को मजबूर होना पड़ा भारत में जहां 60 फीसदी आबादी के लिए रोज रोटी जुटाने का संकट होता है वहां आम नागरिक के लिए  इलाज पर हजारों-लाखों रुपया खर्च  करना मुमकिन नहीं होताऐसे में न केवल निजी अस्पतालों पर नकेल कसने की जरूरत है बल्कि भारत की सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली को बेहतर करने की जरूरत भी है जिससे आम नागरिक को बेहतर स्वास्थ्य सेवाओं का लाभ मिल सके

साल 2020-21 में स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय का बजट तकरीबन 65 हज़ार करोड़ रुपए था,जबकि रक्षा का बजट चार लाख 71 हज़ार करोड़ रुपये से ज़्यादा रक्षा पर ख़र्च केंद्र सरकार के बजट का 15.5 फीसदी है, यह स्वास्थ्य से कई गुना ज्यादा है दुनिया में अपनी रक्षा पर सबसे ज्यादा खर्च करने वाले देशों में तीसरे स्थान पर आने वाले भारत में ऑक्सीजन और दवाइयों की कमी से लाखों लोग असमय मौत का शिकार हो गए। इसका प्रमुख कारण देश में स्वास्थ्य के बुनियादी ढांचे का अभाव रहा है। स्वास्थ्य सेवा प्रणाली की अनदेखी कई दशकों से की जा रही है और इसमें आमूलचूल परिवर्तन करने की सख्त जरूरत है


2017 में आई राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति के आयामों पर ही ठीक ढंग से काम किया जाएं तो स्वास्थ्य की दिशा में आम लोगों को बड़ी सुरक्षा और राहत मिल सकती हैइस नीति का उद्देश्‍य सभी लोगों,विशेषकर उपेक्षित लोगों को सुनिश्चित स्‍वास्‍थ्‍य देखभाल उपलब्‍ध कराना है। इसके साथ ही स्‍वास्‍थ्‍य के क्षेत्र में निवेश,स्‍वास्‍थ्‍य देखभाल सेवाओं का प्रबंधन और वित्‍त-पोषण करने, विभिन्‍न क्षेत्रीय कार्रवाई के जरिये रोगों की रोकथाम और अच्‍छे स्‍वास्‍थ्‍य को बढ़ावा देने,चिकित्‍सा प्रौद्योगिकियां उपलब्‍ध कराने,मानव संसाधन का विकास करने,चिकित्‍सा बहुलवाद को प्रोत्‍साहित करने,बेहतर स्‍वास्‍थ्‍य के लिये अपेक्षित ज्ञान आधार बनाने,वित्‍तीय सुरक्षा कार्यनीतियां बनाने तथा स्‍वास्‍थ्‍य के विनियमन और उत्तरोत्तर आश्‍वासन के संबंध में स्‍वास्‍थ्‍य प्रणालियों को आकार देने पर विचार करते हुए प्राथमिकताओं का चयन किया गया है। इस नीति में वित्‍तीय सुरक्षा के माध्यम से सभी सार्वजनिक अस्‍पतालों में नि:शुल्‍क दवाएं, नि:शुल्‍क निदान तथा नि:शुल्‍क आपात तथा अनिवार्य स्‍वास्‍थ्‍य देखभाल सेवाएं प्रदान करने का प्रस्‍ताव किया गया है।

स्वास्थ्य व्यवस्था में नीतिगत रूप से भी आमूलचूल बदलाव करने के लिए डॉक्टर्स की कमी को दूर करना बेहद आवश्यक हैस्वतंत्र भारत में प्रशासनिक सेवाओं की तर्ज पर एक अलग सार्वजनिक स्वास्थ्य कैडर गठित का सुझाव सर्वप्रथम मुदलियार समिति द्वारा दिया गया था। इसकी जरूरत अब महसूस की जा रही है।  2017 में आई राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति में भी इसकी जरूरत को उभारा गया है कि स्वास्थ्य सेवाओं की गुणवत्ता में सुधार करने के लिए एक सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रबंधन कैडर की शुरुआत की जानी चाहिएइसके माध्यम से समर्पित और काबिल प्रतिभावों को मौका मिल सकेगा जिससे स्वास्थ्य सेवाओं को बेहतर बनाने की दिशा में तेजी से कार्य हो सकेंगेफ़िलहाल जिले की स्वास्थ्य सेवाओं की जिम्मेदारी जिला कलेक्टर की होती है और वे प्रशासनिक दायित्वों से बंधे होते हैऐसे में  स्वास्थ्य सेवाओं के बेहतर होने की संभावनाएं सीमित हो जाती है


भारत जैसे विकासशील और लोककल्याणकारी राज्य में स्वास्थ्य सुरक्षा से ही देश की प्रगति और खुशहाली सुनिश्चित हो सकती है। कोरोना काल में लचर स्वास्थ्य सेवाओं के चलते ही लाकडाउन जैसे कदम उठाना पड़े और इससे अर्थव्यवस्था भी धराशाई हो गई। जाहिर है देश में सुदृढ़ सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली सुनिश्चित  करने की तुरंत जरूरत है। इसके लिए भारतीय चिकित्सा सेवा के गठन को प्रभाव में लाना होगा सार्वजनिक स्वास्थ्य कैडर के माध्यम से स्वास्थ्य सेवाओं के मानवीकरण, स्वास्थ्य सामग्री प्रबंधन,तकनीकी विशेषज्ञता, आवश्यक सामाजिक निर्धारकों एवं वित्तीय प्रबंधन की प्राप्ति में मदद मिलेगी इसके साथ ही निजी अस्पतालों का राष्ट्रीयकरण करने जैसे क्रांतिकारी कदम भी उठाएं जा सकते है। जब देश के 90 फीसदी डॉक्टर्स सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं से दूर है,ऐसे में अस्पतालों का राष्ट्रीयकरण निर्णायक और आमूलचूल परिवर्तन लाने का माध्यम बन सकता है।

 

सीरिया में सत्ता संकट syria asad janstta

 जनसत्ता

 


                                                                  

लोकतांत्रिक देशों में सत्ता में असीमित शक्ति एक विवादास्पद संकल्पना रही है। बदलते दौर में आधुनिक राज्यों में सत्ता का वैधानिक और तार्किक रूप राजनीतिक नेतृत्व में केंद्रित करने के प्रयास बढ़े है। इसके प्रतिकूल प्रभाव राजनीतिक अस्थिरता के रूप में सामने आ रहे है और स्थापित व्यवस्थाएं ध्वस्त होकर मानवीय और राजनीतिक संकट को बढ़ा रही है। दरअसल गृहयुद्द से जूझते सीरिया में हुए आम चुनावों में बशर अल-असद ने अपनी सत्ता चौथी बार बरकरार रखी है। आम चुनावों में लोगों की भागीदारी,निष्पक्षता और विश्वसनीयता का संकट होने से इसे सम्पूर्ण क्षेत्र में शांति स्थापित होने की उम्मीदों के लिए गहरा आघात माना जा रहा है।  


करीब एक दशक पहले सीरिया में राजनीतिक बदलाव के लिए उठे राजनीतिक आंदोलन को बशर अल-असद की सरकार ने सख्ती से कुचल दिया थाइसके बाद से यह देश गृहयुद्द जैसे हालात का सामना कर रहा हैसीरिया के कई इलाकों पर विद्रोहियों का कब्ज़ा हैकई देश अपने अपने हितों को देखते हुए सीरिया के विभिन्न लड़ने वाले समूहों को मदद दे रहे हैयहां पर शांति स्थापित करने के लिए संयुक्तराष्ट्र ने सर्वमान्य सरकार की जरूरत को दोहराया है,वहीं असद रूस,चीन और ईरान जैसे देशों की मदद से अपने को सत्ता में बनाएं रखे हुए है। इस स्थिति में मानवीय और राजनीतिक संकट से जूझ रहे इस देश में शांति और स्थिरता कायम करना चुनौती बनता जा रहा है। 

दक्षिण पश्चिम एशियाई देश सीरिया की भौगोलिक और राजनैतिक स्थिति उसकी समस्याओं को ज्यादा बढ़ा रही है इसके पश्चिम में लेबनॉन तथा भूमध्यसागर,दक्षिण-पश्चिम में इजराइल,दक्षिण में ज़ॉर्डन,पूर्व में इराक़ तथा उत्तर में तुर्की है। इजराइल तथा इराक़ के बीच स्थित होने के कारण इसकी स्थिति जटिल हो जाती है  कई प्राचीन सभ्यताएं भूमध्यसागरीय तटों के आसपास ही पनपी है अत: यह क्षेत्र धार्मिक संघर्ष का प्रमुख केंद्र रहा है आईएसआईएस का उभार इस क्षेत्र में इसीलिए हुआ था कि ईसाई और  उदार मुसलमानों को खत्म कर इस्लामिक राज्य की स्थापना की जा सके   रोमन साम्राज्य के लिए भी भूमध्यसागर महत्व्प्पूर्ण रहा है,अत: यूरोप का इस क्षेत्र में हस्तक्षेप बना रहता है 


सीरिया शिया-सुन्नी प्रतिद्वंदिता के हिंसक केंद्र के रूप में भी कुख्यात बन गया है बशर अल-असद शिया है और सीरिया की आबादी सुन्नी बाहुल्य हैसीरिया में सुन्नी मुस्लिम कुल जनसंख्या का 74 प्रतिशत हैं जबकि शिया क़रीब 13 प्रतिशत रहते है। अल्पसंख्यक शिया समुदाय से संबंधित असद का सुन्नी बहुल देश सीरिया में सत्ता में बने रहना सऊदी अरब जैसी इस्लामिक ताकतों को स्वीकार नही है,वहीं ईरान असद को सत्ता में बनाएं रखने के लिए हथियारों की अबाधित आपूर्ति समेत सामरिक मदद करता रहा है। सऊदी अरब सीरिया के विद्रोही संगठनों को सहायता देकर असद की सरकार को सत्ता को उखाड़ फेंक देना चाहता है। अमेरिका और फ्रांस जैसे देश भी असद के खिलाफ है और वे सीरिया के विद्रोहियों को मदद देते रहे है। तुर्की के लिए सीरिया पारंपरिक गढ़ रहा है और वह सीरिया की राजनीति पर अपना अधिकार मजबूत रखना चाहता है। सीरिया से विस्थापित लोग तुर्की में ही सबसे पहले प्रवेश करते है और इसके कारण तुर्की को भी मानवीय संकट से जूझना पड़ रहा है।


सीरिया में असद सरकार के सत्ता में बने रहने और आम चुनावों को लेकर कड़ी प्रतिक्रियाएं  सामने आई हैसीरिया के विपक्षी दलों ने इस चुनाव की निष्पक्षता पर सवाल उठायें है वहीं अमेरिका और यूरोपीय देशों ने भी कहा है कि ये चुनाव स्वतंत्र और निष्पक्ष नहीं थागौरतलब है कि सीरिया के राष्ट्रपति चुनाव में सरकार के नियंत्रण वाले इलाकों और विदेशों में कुछ सीरियाई दूतावासों में मतदान करवाए गएसीरिया सरकार का कहना है कि चुनाव का होना ये दिखाता है कि सीरिया में सब सामान्य है और देश के भीतर और बाहर एक करोड़ 80 लाख लोग मतदान में हिस्सा ले सकते हैंजबकि हकीकत इससे उलट हैदेश के कई इलाकों पर असद सरकार का कोई प्रभाव नहीं है और वहां विद्रोही समूह काबिज हैसीरिया में ज़्यादातार हिस्सों पर विद्रोहियों, जिहादियों और कुर्दों के नेतृत्व वाली सेनाओं का नियंत्रण हैलाखों लोग सीरिया से पलायन करके तुर्की समेत यूरोप के कई देशों में चले गए हैलाखों लोग अस्थाई टेंटों में रहने को मजबूर हैसंयुक्त राष्ट्र के अनुसार,इस लड़ाई में अब तक चार लाख लोग मारे जा चुके हैं2011 में राजनीतिक अस्थिरता और विद्रोही समूहों के आपसी संघर्षों के चलते क़रीब आधी आबादी को मज़बूरन देश छोड़ना पड़ा था। इस समय देश की 90 फीसदी आबादी ग़रीबी रेखा के नीचे रह रही है और लोग भुखमरी का सामना करने को मजबूर हो गए हैयूनीसेफ़ के अनुसार, 50 लाख से ज्यादा लोग कुपोषित हैंवहीं पांच साल से कम उम्र के पांच लाख बच्चों का विकास गंभीर कुपोषण के चलते रुक गया है

बशर अल-असद राष्ट्रीय स्तर पर स्वीकार्य नेता नहीं है और न ही वे अपने देश को संकट से उबारने की कोई कोशिश करते नजर आते हैरूस का सीरिया में सैन्य बेस है और वह असद सरकार को मजबूत रखने के लिए विद्रोहियों पर हवाई हमलें करता रहा है इजराइल भी सीरिया में ईरान के बढ़ते दख़ल को लेकर चिंतित रहा और हवाई हमलों के ज़रिए हिज़बुल्ला और अन्य शिया लड़ाकों को काबू में करने की कोशिश करता रहा है। सीरिया का संकट राजनीतिक समस्या के साथ ही साथ सामरिक,कूटनीतिक और मानवीय संकट भी है। 2011 के बाद इस देश में राजनीतिक अस्थिरता उत्पन्न होने से  सीरिया के बड़े क्षेत्र में कुख्यात आतंकी संगठन इस्लामिक स्टेट ने कब्जा जमा लिया था और इसके बाद यहां खून खराबे का वहशियाना दौर लंबे समय  तक चला। 2019 मे अमेरिका ने दावा किया था कि सीरिया से आईएसआईएस को खदेड़ दिया गया है लेकिन आईएसआईएस के लड़ाके अब भी विभिन्न क्षेत्रों में छुपे हुए है और राजनीतिक अस्थिरता कि स्थिति में उनका समांतर शासन स्थापित करने का खतरा बरकरार रहता है। सीरिया के कुछ इलाकों में शिविर और जेल बनाकर आईएसआईएस के लड़ाकों को रखा गया है जिसमें हजारों विदेशी महिलाएं और उनके बच्चे शामिल है। लड़ाकों और महिलाओं की क्रूरता और कट्टरता में कोई कमी नहीं आई है। इस क्षेत्र में तुर्की के हमलों का फायदा उठाकर ये जेल से भागने मे कामयाब भी रहे है। ऐसे में सीरिया का भविष्य चुनौतीपूर्ण दिखाई देता है।

 


तुर्की नाटों का सहयोग लेकर बशीर-अल-असद को सीरिया में सत्ता से हटाना चाहता है और वह इसलिए यूरोपीय यूनियन पर दबाव बना रहा है। सीरिया में कई देशों की सेना,सामरिक और आर्थिक हित होने से यहाँ युद्ध की स्थिति गंभीर हो गई है तथा सीरिया दुनिया का एक छद्म युद्ध का मैदान बन गया है। 2013 में अलकायदा से अलग होकर आईएसआईएस अस्तित्व में आया और इससे मध्य पूर्व में संघर्ष का एक नया सिलसिला शुरू हो गया था। आईएसआईएस ने ईसाइयों और उदार मुस्लिमों के विरुद्द जेहाद की घोषणा कर मध्यपूर्व के राजनीतिक संघर्ष की दिशा बदल दी। आईएसआईएस ने इस इलाके के तेल कुओं पर अपना कब्जा जमाकर महाशक्तियों को चुनौती पेश कर दी और इसके बाद पश्चिमी देशों,अमेरिका,रूस,तुर्की जैसे देशों ने आईएसआईएस को मिलकर खत्म करने मे अपनी भूमिका निभाई। लंबे समय से युद्दग्रस्त इस इलाके से आईएसआईएस समाप्त होने की कगार पर आया तो तुर्की ने असद सरकार और कुर्दों के खिलाफ मोर्चा खोलकर एक नए संकट को जन्म दे दिया। दूसरी ओर महाशक्तियों के हित और आपसी टकराव के कारण संयुक्तराष्ट्र बशीर-अल-असद पर दबाव बनाने में सफल नहीं हो पा रहा है। सीरिया में शांति स्थापित करने के लिए संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने 2012 में हुए जेनेवा समझौते को लागू करने की बात कही है जिसके अनुसार सबकी सहमति से एक अस्थायी गवर्निंग बॉडी बनायी जाएगी। इस गवर्निंग बॉडी के माध्यम से देश का संचालन सुनिश्चित किया जायेगा लेकिन इस दिशा में जमीन पर कोई प्रगति नजर नहीं आती है विपक्षी दल राष्ट्रपति बशर अल असद से सत्ता छोड़ने के लिए दबाव बना रहे है और असद को किसी भी कीमत पर यह स्वीकार नहीं है  


2017 में रूस,ईरान और तुर्की ने अस्ताना प्रक्रिया के तहत राजनीतिक बातचीत शुरू की थीबाद में संविधान बनाने के लिए 150 सदस्यों की एक समिति बनाने पर सहमति बनाई गई थीइसमें यह तय किया गया था कि संविधान में आवश्यक परिवर्तन किये जाएंगे। अभी तक न तो जेनेवा समझौते के प्रावधान लागू हो सके है और न ही अस्ताना प्रक्रिया को आगे बढ़ाया गया है  हालांकि यूरोपीय यूनियन,अमेरिका,रूस,सऊदी अरब,ईरान और तुर्की समझौते के रास्ते तलाशकर सीरिया में शांति स्थापित करने की बात तो कहते है लेकिन बशर-अल -असद को सत्ता से हटाने को लेकर कई देश एक दूसरे के सामने आ जाते है


इस समय सीरिया में कुर्द और सीरियन डेमोक्रेटिक फोर्सेज,कुर्दिश डेमोक्रेटिक यूनियन पार्टी और कुर्दिश पीपुल्स प्रोटेक्शन यूनिट्स अलग कुर्दिस्तान के लिए संघर्ष कर रही हैइसे यूरोप और अमेरिका का समर्थन मिलता रहा है लेकिन तुर्की इसके खिलाफ है। वहीं तुर्की समर्थित जेएफएस के लड़ाके सीरिया तुर्की सीमा पर मजबूत हैसीरिया में अभी भी आईएसआईएस का खतरा बरकरार है और सीरिया की कथित सरकारी सेना बशर-अल-असद को मजबूत करने के लिए लड़ रही है असल में सीरिया को एक राष्ट्र के तौर पर बचाएं रखने के लिए विभिन्न राजनीतिक,भाषाई,जातीय,धार्मिक एकजुटता और सर्वसम्मत सरकार की जरूरत है। लेकिन इनके बीच सामंजस्य को लेकर न तो वैश्विक समुदाय ईमानदार है और न ही बशर-अल-असद ऐसी कोई कोशिश करते दिखाई दे रहे है  इसका खामियाजा सीरिया के आम लोग बेउम्मीद और बेबस होकर भोग रहे है  

 

 

 

brahmadeep alune

पुरुष के लिए स्त्री है वैसे ही ट्रांस वुमन के लिए भगवान ने ट्रांस मेन बनाया है

  #एनजीओ #ट्रांसजेंडर #किन्नर #valentines दिल्ली की शामें तो रंगीन होती ही है। कहते है #दिल्ली दिलवालों की है और जिंदगी की अनन्त संभावना...