सांध्य प्रकाश
क्या मजदूरों की क्रांति से बदलेगा हिंदुस्तान
मशहूर विद्वान मैक्स मूलर ने 1882 में कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी में दिये अपने व्याख्यान में कहा था कि,“अगर हम सारी दुनिया कि खोज करें,ऐसे मुल्क का पता लगाने के लिए जिसे प्रकृति ने सबसे संपन्न,शक्तिवाला और सुंदर बनाया हो,जो कुछ हिस्सों में धरती पर स्वर्ग कि तरह है,तो मैं हिंदुस्तान की तरफ इशारा करूंगा।
अगर मुझसे कोई पूछे कि किस आकाश के
तले इंसान के दिमाग ने अपने कुछ सबसे चुने हुए गुणों का विकास किया है,जिंदगी के सबसे अहम मसलों पर सबसे ज्यादा गहराई के साथ सोच
विचार किया है और उनमें से कुछ के ऐसे हल हासिल किए है जिन पर उन्हें भी ध्यान
देना चाहिए,जिन्होंने अफलातून और कांट को पढ़ा है तो मैं
हिंदुस्तान की तरफ इशारा करूंगा।”
हिंदुस्तान कोई देश या मुल्क न होकर दुनिया की सभ्यताओं और संस्कृतियों के साथ
चलने वाली एक महान परंपरा है जिसने आदिकाल,प्राचीन काल और आधुनिक काल के बदलते प्रतिमानों को स्वीकार और अंगीकार करने का
निरंतर विनम्रतापूर्वक साहस दिखाया है। पंडित जवाहर लाल नेहरू भारतीय संस्कृति को
उस प्रवाह के समान समझते थे जो तमाम चुनौतियों से लड़ते और जूझते हुए मंजिल की तरफ
बढ़ता रहता है और उसे तब्दीलियों से भी गुरेज नहीं होता।
यकीनन मैक्स मूलर और पंडित नेहरू कि बातों से इत्तेफाक हम रख सकते है। आखिर
जिस भारत को हम देखते और जीते है वह ऐसा ही तो है। कभी यह बदलता भारत नजर आता है
तो कभी संभलता भारत दिखाई देता है। लेकिन ज्ञान कि इस भूमि पर एक ऐसा वर्ग भी है
जो चिंतन,मनन और स्पंदन में कही दूर ठिठका और स्थिर नजर आता है।
दरअसल संस्कृति और सभ्यता की महान यात्रा के इस पड़ाव में मजदूर भी है, वह यह सच है कि धर्म और आस्था के सामने नतमस्तक इस भूमि पर
मजदूर के घर में जन्म लेने वाले किसी ईश्वर या अवतारी पुरुष के बारे में कभी पढ़ाया
नहीं गया। ऐसे में यह जान पाने की जिज्ञासा सदैव बनी रहती है कि किसी अवतार ने कभी
मजदूर के यहाँ जन्म लिया भी था या नहीं। मैक्समूलर ने भारत के ज्ञान और संसाधनों
कि जो दुनिया भर में पताका फहराई उसमें मजदूर नदारद है। वे शिक्षा से दूर होकर न
तो ज्ञानी बन सके और न ही प्राकृतिक संसाधनों से उन्हें कुछ हासिल हो सका। जिस समय
मैक्स मूलर कैम्ब्रिज में भारत की महानता को बता रहे थे ठीक उसके एक साल बाद 1883 में ब्रिटिश सरकार ने यह घोषणा की थी कि वह यूरोपीय
बाज़ारों से केवल उन वस्तुओं को ही खरीदेगी जो भारत में उपलब्ध नहीं होगी। परंतु उन वस्तुओं कि संख्या में वृद्धि करने के
कोई उपाय नहीं किए गए जिन्हें भारत में प्राप्त किया जा सकता था। वस्तुओं के क्रय
विक्रय कि इस प्रक्रिया में मजदूर ही है क्योंकि वे निर्माण करने वाले सबसे बड़े
स्रोत रहे है। ब्रिटिश कालीन भारत से लोकतांत्रिक भारत के सफर से मजदूरों के जीवन
में कोई बदलाव नहीं आया। और न ही प्राकृतिक संपदा के उपयोग को लेकर औपनिवेशिक भारत
से लेकर वर्तमान भारत कि नीतियों में कोई परिवर्तन हुआ।

मसलन काला सोना या कोयले के करोड़ों के काले कारोबार में मजदूर की स्थिति और
अवस्था को ही देखे। वे मौत की गुफा में
घुसने और वहां से काला सोना पूँजीपतियों को सौंपने तक कभी खबर नहीं बन पाते,गुफा के धंस जाने से मरने पर कभी कभी वे खबरों में आ जाते
है,अक्सर उनकी मौत की खबर छुपा ली जाती है। अंग्रेजों के दौर में कोयला खानों में काम करने
वाले अधिकांश आदिवासी होते थे। मजदूरी
बहुत कम होती थी और परिस्थितियाँ बेहद कष्टप्रद होती थी। महिलाएं और बच्चे भी जमीन पर काम करते थे और उनका जीवन ऐसे
ही बोझ ढोते ढोते खत्म हो जाता था। यह साम्राज्यवादी औपनिवेशिक गुलामी थी,जिसे झेलना आदिवासियों कि मजबूरी मानी गई होगी। लेकिन आज़ादी
के सात दशक बीत जाने के बाद भी धनबाद कि कोयला खदानों में चले जाइये,आदिवासियों कि अंग्रेजों कि दौर कि कहानी दुहराते हुए इस
समय भी मिल जाएंगे।

महात्मा गांधी कहते थे कि भारत कि आत्मा गांवों में बसती है,गांवों का विकास कीजिये,देश का विकास होगा। बापू आज़ादी के आंदोलन कि जरूरत थे,अत: उनके साथ चलना सबकी मजबूरी थी। उनके जाते ही नजरों की
शर्म का संकट खत्म हो गया। पंचायती राज के बहाने उन्हें याद किया जाता रहा लेकिन
ऐसा किसी भी सरकार ने अपने व्यवहार और नीतियों से यह नहीं बताया कि बापू भारत की जरूरत
है। महामारी के चलते आर्थिक संकट बढ़ा तो हमें स्वदेशी और आत्मनिर्भरता की अचानक
याद आ गई। इसे बहुत ही रचनात्मक विचार बताया गया। लेकिन यह अफसोस किसी के द्वारा
नहीं जताया गया कि काश गांधी के रास्ते पर चले होते।
दरभंगा की 13 साल की ज्योति ने अपने विकलांग पिता को साईकिल पर बैठाकर 12 सौ किलोमीटर का सफलतापूर्वक सफर तय करके अपने घर पहुँच गई
तो उसकी जिंदगी बदल गई। ट्रंप की बेटी को ज्योति में महान भारत का मेहनती नागरिक
नजर आया तो भारत की सरकार ने उसमें एक होनहार एथलीट को देखा। लेकिन ज्योति कोई
अकेली नहीं है वह भारत के उन करोड़ों लोगो का प्रतिनिधित्व करती है जो बेबस और
लाचार जिंदगी लिए गाँव की डगर डगर से शहर की गंदी बस्तियों में आम तौर पर अक्सर
दिखता है। आने वाले समय में और कोई ज्योति अपने पिता को साईकिल पर सैकड़ों किलोमीटर
ले जाने को मजबूर न होगी,इसकी कोई गारंटी नहीं है।
राघौगढ़ के मोहन बंजारा को ही ले लीजिये। वह बैलगाड़ी में अपनी बीवी और डेढ़ साल
की बेटी के साथ कच्चे घरों को पोतने में इस्तेमाल होने वाली मिट्टी बेचता था। एक
रोज वह अपनी बैलगाड़ी से सामान बेचने गुना जिले के जामनेर जा रहा था,तभी रास्ते में उसके बैल ने दम तोड़ दिया। रात काफी हो चुकी थी। पत्नी राधोबाई और डेढ़ साल के बेटे
पप्पू के साथ मोहन को समझ नहीं आया कि वह सड़क पर रात कैसे गुजारे,न जाए तो सुबह खाने का इंतजाम होना मुश्किल था।

ऐसे में मोहन ने नम आंखों से अपने मरे बैल को वहीं छोड़ा और बैलगाड़ी में
दूसरे बैल के साथ खुद ही जुतने का फैसला किया। उसने 12 किलोमीटर गाड़ी खींची। इस दौरान उसकी पत्नी अपने डेढ़ साल
के बेटे को साड़ी में कंधे में लटकाकर गाड़ी में धक्का लगाती रही। उसने पत्नी को
बैलगाड़ी में बैठने को कहा,लेकिन उसे यह बात मंजूर नहीं थी कि पति गाड़ी अकेले खींचे।
ऐसे में उसने अपने बेटे को साड़ी के पल्लू की झोली बनाकर उसमें कंधे से लटकाया और
खुद भी गाड़ी में धक्का लगाने लगी। दोनों
ने मिलकर 12 किलोमीटर तक गाड़ी खींची और जामनेर पहुंच गए। समाचार
पत्रों में यह खबर छपी तो कलेक्टर ने तुरंत मोहन को एक बैल दिला दिया। यह घटना 2017 की है लेकिन 2020 में एक बार फिर ऐसी ही घटना सामने आ गई। पलायन की भयावह और मार्मिक तस्वीरों के बीच
राहुल अपने भैया भाभी के साथ इंदौर मुंबई हाइवे पर इसी तरह जा रहा था। एक तरफ बैल
और दूसरी तरफ राहुल और बारी बारी से उसके भैया भाभी।
भारत में मजदूरों का जीवन इसलिए भी नहीं बदलता क्योंकि भारत की ज्ञान और विकास
परंपरा में मजदूर अक्सर पीछे छुट जाते है। वे भगवान या राजाओं पर निर्मित परिकथाओं
के जरिए टीवी या कॉमिक्स में कभी कभी सामने लाने का प्रयास किए जाते है। जैसे अकबर
जनता का हाल जानने को निकले तो उन्हें पता चला कि लोग कितने परेशान है।
लेकिन गरीब न तो तब अपनी परेशानी किसी को बता पाते थे और न ही अब बता पाते है।
राजतंत्र में उनकी गिनती होती नहीं थी और लोकतंत्र में उन्हें थोड़े से पैसे और
रोटी के पैकेट से खुश होने वाला वर्ग माना जाता है। ऐसे में वह दबंगों या पुलिस के
द्वारा पीट भी दिये जाए तो किसी को कोई फर्क न पड़ता। वह सिकंदर के भगौड़े सैनिक भी
न बन पाये जो गरीबी से अपनी जान बचा ले। यह कहानी तो आपने सुनी ही होगी। सिकन्दर
महान ने अपने दो भगोड़े सैनिकों को मौत की सजा सुनाई। उनमें से एक यह जानता था कि घोड़े सिकन्दर को
बहुत पसंद हैं। वह अपने घोड़ों से बहुत प्रेम करता था। उसने सिकन्दर से कहा- अगर आप
मेरी जान बख्श दें तो मैं आपके घोड़े को एक साल में उड़ने की कला सिखा सकता हूँ। ऐसा
होने पर आप दुनिया के इकलौते उड़ने वाले
घोड़े पर सवारी कर सकेंगे।

यह बात उसने कुछ इस प्रकार कही कि सिकन्दर सहित वहाँ उपस्थित लोगों को भी लगा
कि वह घोड़े को उड़ना सिखा सकता है। सिकन्दर उसकी बात मान गया और उसने एक साल का समय
उसे घोड़े को उड़ने की कला सिखाने के लिये दे दिया।
साथ ही उसने यह शर्त भी रख दी कि यदि वह घोड़े को उड़ना नहीं सिखा पाया तो
उसका सर उसके धड़ से अलग कर दिया जाएगा। उस सैनिक ने सिकन्दर की बात को स्वीकार कर
लिया।
उसका दूसरा साथी यह जानता था कि यह कार्य असंभव है और उसके साथी ने मात्र एक
साल का समय लेने के लिये यह सब किया है।
उसने उससे कहा- तुम जानते हो कि तुम घोड़े को उड़ना नहीं सिखा सकते तब तुमने इस
प्रकार की बात कैसे की और कैसे सिकन्दर ने इस शर्त को मान लिया ?
जबकि तुम केवल अपनी मृत्यु को एक साल के लिये टाल रहे हो।
ऐसी बात नहीं है। मैंने अपनी जान बचाने के लिये तीन मौके लिये हैं। पहली बात
यह कि सिकन्दर महान एक साल के भीतर मर सकता है।
दूसरा यह कि एक साल के भीतर मैं मर सकता हूँ। तीसरी बात यह कि यह घोड़ा मर सकता है।
फिर ऐसा हुआ कि एक साल के भीतर सिकन्दर की मौत हो गई और वह कैदी हमेशा के लिये
आजाद हो गया।
वास्तव में भगौड़ा सैनिक पढ़ा लिखा और
चतुर था,सो उसे बच निकलने का विचार आया और वह संयोगवश सफल भी हो
गया। लेकिन भारत के मजदूर तो रेल कि पटरी पर इसलिए सो जाते है कि उन्हें पता होता
है कि रेलगाडियाँ लॉक डाउन में बंद है अत: कोई खतरा नहीं है। मजदूर इस बात से
अनभिज्ञ होते है कि रेल गाड़ियों में माल गाडियाँ और इंजन भी होते है,और ऐसा ही एक इंजन मजदूरों को मौत की नींद सुलाकर आगे
बढ़ गया।

यह भी बेहद दिलचस्प है कि ब्रिटेन जैसे औपनिवेशिक देश में
अधिकांश सत्ता में रहना वाला दल लेबर या मजदूर पार्टी है। इस महामारी काल में
विभिन्न राज्यों से पैदल गुजरते हुए मजदूरों कि बदहाली से यह तो साफ हो ही गया कि
मजदूरों के प्रति गंभीर दुनिया के सबसे
बड़े लोकतंत्र में कोई दल नहीं है। भारत में किसान आंदोलन,दलित आंदोलन,पिछड़ा वर्ग के आंदोलन,आरक्षण कि मांग को लेकर आंदोलन,क्षेत्र और भाषा को लेकर बहुत आंदोलन हुए है। इन सबसे बड़ा
वर्ग तो मजदूरों का है,उनका आंदोलन आज तक क्यों न हुआ। मजदूरों मौन आंदोलन ही कर
ले,विश्वास कीजिये इस देश कि साँसे थम जाएगी। आखिर मजदूर देश
और समाज के ज़िंदा रहने के लिए जरूरी ऑक्सीजन
है,
कुछ समय के लिए यह ऑक्सीजन मिलना बंद हो जाए,स्थितियाँ बेशक सुधर जाएगी। हिंदुस्तान के बदलने और मजदूरों
की समस्या को समझने के लिए मजदूरों को मौन होने का बलिदान देना ही होगा।