नेपाली चुनौती का संकट
ब्रह्मदीप अलूने
साम्यवाद की हिंसक और कुटिल विचारधारा का जियो और जीने दो
की मानवीय विचारधारा से कोई सामीप्य नहीं हो सकता लेकिन भौगोलिक परिस्थितियों की
विषमताओं और भिन्नताओं के अनुसार राष्ट्रीय हितों की अभिवृद्धि करना किसी भी
सम्प्रभू राष्ट्र की मजबूरी होती है। भारत के उत्तर पूर्व में स्थित नेपाल सामरिक
दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है,हिमालय से आने वाली अप्रत्याशित चुनौतियों का सामना करने और
अपने पारंपरिक प्रतिद्वंदी चीन को रोकने के लिए भारत के लिए नेपाल से मजबूत संबंध
और उसका सुरक्षित रहना अनिवार्य माना जाता है। भारत से सांस्कृतिक,भौगोलिक,आर्थिक
और सामाजिक मजबूत सम्बन्धों के बाद भी यह देखा गया है कि नेपाल की वैदेशिक नीति लगातार
भारत की सामरिक अनिवार्यता को नजरअंदाज करने को तत्पर रहती है।
दरअसल इस समय कालापानी की जमीन को लेकर नेपाल का आक्रामक
रुख उसकी उन नीतियों की पुष्टि करता है जिसके अनुसार भारत विरोध उसकी राष्ट्रीय
राजनीति का एक अहम हिस्सा बन गया है। नेपाल के पश्चिमी छोर पर स्थित कालापानी उत्तराखंड में स्थित है,भारत,नेपाल और तिब्बत
से लगा यह समूचा इलाका भारत के लिए सामरिक दृष्टि से बेहद महत्वपूर्ण माना जाता
है। 372 वर्ग किलोमीटर
में फैले इस क्षेत्र में फिलहाल भारत का नियंत्रण है लेकिन नेपाल ने इस पर दावा कर
इसे विवादित बनाने की कोशिश की है। कैलाश पर्वत व मानसरोवर कि धार्मिक
यात्रा के साथ प्राचीनकाल से
व्यापारियों और तीर्थयात्रियों के लिए यह आवागमन का मार्ग है जो भारत और तिब्बत को
जोड़ता है।
भारत और नेपाल के बीच सामरिक रिश्तों का बड़ा आधार दोनों देशों के बीच 1950 में
हुई शांति और मैत्री संधि है जिसके अनुसार तिब्बत,नेपाल और भूटान के मध्य दर्रों पर भारत और नेपाली सैनिक संयुक्त रूप से
नियुक्त किए जाएंगे। यह भी बेहद दिलचस्प है कि इस संधि के अंतर्गत ही काठमांडू में
एक भारतीय सैनिक मिशन स्थापित किया गया था जिसका कार्य नेपाली सेना को प्रशिक्षण
देना था लेकिन अब वही नेपाली सेना भारत को चुनौती देने का साहस करती हुई दिखाई दे
रही है।
ब्रिटिश साम्राज्य के लिए नेपाल जारशाही वाले रूस तथा मांचू साम्राज्य वाले
चीन के बीच एक ऐसा बफर राष्ट्र रहा जो अंग्रेजों के लिए रक्षा कवच का काम करता था।
आज़ादी के बाद भी साम्यवादी चीन और भारत के बीच फंसे नेपाल की सामरिक महत्ता बरकरार रही है। गोरखा
साम्राज्य के संस्थापक महाराज पृथ्वी नारायण शाह ने स्पष्ट रूप से यह स्वीकार किया
था कि नेपाल कि स्थिति दो बड़ी चट्टानों के बीच स्थित जिमीकंद के समान है,जो फालना फूलना चाहता है तो उसे निरंतर ध्यान में रखना होगा।
नेपाल इस सिद्धांत पर आज भी चलना चाहता है और वह भारत और चीन के साथ समदूरी बनाकर
रखना चाहता है जबकि भारत को यह स्थिति स्वीकार्य नहीं है। भारत के नेपाल के साथ विशिष्ट संबंध है और भारत
कि नीति उसे बरकरार रखने की है। तराई,जंगल,वन,नदियां भौगोलिक रूप से भारत और नेपाल को इस
प्रकार जोड़ती है कि कई स्थानों पर यह अंदाजा लगाना मुश्किल होता है कि यह किस देश
में है। यही कारण है कि दोनों देशों के नागरिक बेरोकटोक एक दूसरे के यहाँ आते जाते
रहे है। रोटी बेटी के संबंध के साथ है दोनों देशों के सांस्कृतिक,भाषाई और आर्थिक संबंध भी एक दूसरे के साथ ताने बाने में गूँथे हुए
है। भारत में बहने वाली अधिकांश नदियों का उदगम स्थल नेपाल में
है,अत:
नेपाल जल संसाधन और प्राकृतिक संसाधन की दृष्टि से भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। इस प्रकार दोनों देश
एक दूसरे पर निर्भर है। भारत लगातार नेपाल के विकास में अपना अहम योगदान देता रहा है।
नेपाल में भूकंप के बाद उसके पुनर्निर्माण के लिए भारत ने बड़ी सहायता की लेकिन
नेपाल की वामपंथी सरकार ने इसके विपरीत परिणाम दिये।
भारत द्वारा चीन की महात्वकांक्षी परियोजना वन बेल्ट वन रोड का व्यापक विरोध नजरअंदाज करके
नेपाल इस परियोजना में शामिल हो गया। नेपाल भारत पर से अपनी निर्भरता कम करना
चाहता है और इसके पीछे उसकी स्पष्ट नीति रही की चीन
नेपाल में सड़कों,रेलमार्गों,बंदरगाहों और औद्योगिक क्षेत्रों के निर्माण में भारी निवेश करेगा। इस समय
नेपाल के कई स्कूलों में चीनी भाषा मंदारिन
को पढ़ना अनिवार्य कर दिया गया है और इस भाषा को पढ़ाने वाले शिक्षकों के वेतन का
खर्चा नेपाल स्थित चीन का दूतावास उठा रहा है। चीन और नेपाल के बीच रेल लाइन भी
बिछाई गई ताकि दोनों देशों के लोगों के बीच संपर्क बढ़े। अपने पहले कार्यकाल में
भी ओली ने चीन का दौरा किया था और उन्होंने ट्रांज़िट ट्रेड समझौते पर हस्ताक्षर किए
थे,इसके पीछे नेपाल की रणनीति यह
थी की चीन तिब्बत से लगते हुए सड़कों का जाल फैलाएँ और नेपाल को भी जोड़े,जिससे भारत पर से उसकी निर्भरता कम हो। नेपाल और चीन के बीच तिब्बत के केरुंग से लेकर काठमांडू तक
रेलवे लाइन बिछाने के समझौते के बाद चीन की स्थिति बेहद मजबूत हो गई है और वह भारत
की उत्तरी पूर्व की सीमा के और नजदीक तक आ जाने की स्थिति में आ गया है। इस प्रकार नेपाल चीन की भारत
को घेरने की नीति में मददगार बन गया है।
कालापानी समेत पूर्वोत्तर के सरहदी इलाके और भारत और तिब्बत के बीच स्थित
नेपाल की सुरक्षा भारत के लिए संवेदनशील विषय रहा है। 40 के दशक में भारत की आज़ादी और
चीन मे साम्यवाद के उभार के समय भारत और चीन के संबंध बेहद मधुर थे लेकिन इसके बाद
भी भारत ने नेपाल के सामरिक महत्व को समझते हुए नेपाली सीमा पर अपने सैनिक तैनात
किए और नेपाली सेना का आधुनिकीकरण भी किया। भारत के पहले राष्ट्रपति ने 1956 में अपनी नेपाल यात्रा के दौरान यह साफ कहा
था कि नेपाल के मित्र हमारे मित्र है और नेपाल के शत्रु हमारे शत्रु।
भारत ने लगातार नेपाल की बेहतरी के लिए अपने दरवाजें खुले रखे है और उसका रुख
लगातार सकारात्मक रहा है। दोनों देशों के बीच 1950 में शांति और मित्रता कि संधि भारत के नेपाल को दिये
जाने वाले प्राथमिक और सामरिक महत्व को प्रतिबिम्बित करती है। इस संधि के अंतर्गत
दोनों देशों के बीच खुली सीमा का सिद्धांत लागू है। 1850 किलोमीटर
लम्बी इस सीमा पर दोनों देशों के नागरिक बिना पासपोर्ट के एक दूसरे के देशों में आ
जा सकते है। वास्तव में भारत ने लगातार नेपाल की बेहतरी के लिए अपने दरवाजें खुले रखे है
और उसका रुख लगातार सकारात्मक रहा है। अभी तक नेपाल भारत के लिए एक ऐसा भूभाग से
जुड़ा देश है जिसका लगभग सारा आयात और निर्यात भारत से होकर जाता है,भारत के कोलकाता और अन्य बंदरगाहों से नेपाल को व्यापार सुविधा तथा भारत होकर
उस व्यापार के लिए पारगमन की सुविधा प्रदान की गयी है। नेपाल जल संसाधन और
प्राकृतिक संसाधन की दृष्टि से भी अत्यंत महत्वपूर्ण है,क्योकि भारत
में बहने वाली नदियों का उदगम भी इन क्षेत्रों में पड़ता है।
पिछलें कुछ सालों से नेपाल कि राजनीति में वामपंथी विचारधारा वाली राजनीतिक
पार्टियों का प्रभाव बढ्ने से इसका असर भारत नेपाल सम्बन्धों पर पड़ा है। इस समय
नेपाल के प्रधानमंत्री के.पी.ओली जिस वामपंथी गठबंधन का नेतृत्व कर रहे है
उसमें यूसीपीएन-माओवादी जैसे चीन समर्थित
दल शामिल है। ओली पुराने मुद्दों को उभार कर नेपाल में भारत विरोध को बढ़ाने की
अपनी राजनीतिक विचारधारा को हवा दे रहे है। नेपाल 1816 में ईस्ट इंडिया कंपनी और नेपाल के बीच सुगौली संधि को आधार
बताता रहा है वहीं भारत 1950 की शांति और मैत्री संधि को प्राथमिकता देता है। सुगौली
संधि जो अब पूरी तरह से अप्रासंगिक है, उसके अनुसार काली नदी को
पश्चिमी सीमा पर ईस्ट इंडिया और नेपाल के बीच रेखांकित किया गया था जबकि 1962 में भारत और चीन में युद्ध हुआ तो भारतीय
सेना ने कालापानी में चौकी बनाई, यह स्थिति इस समय भी बनी हुई है। प्रधानमंत्री के.पी. ओली ने भारत के नए नक्शे का विरोध कर
भी अप्रिय स्थिति उत्पन्न की है। जम्मू-कश्मीर और लद्दाख को दो केंद्र शासित
प्रदेश बनाने के बाद भारत ने नया नक्शा जारी किया था,इस नक्शे
में पाकिस्तान प्रशासित कश्मीर के गिलगितबाल्टिस्तान और कुछ हिस्सों
को शामिल किया गया था। इस नक्शे
में कालापानी को पहले की तरह ही भारत का भाग बताया गया है।
नेपाली सैनिकों को भी भारतीय सैनिकों के
समान ही वन रैंक-वन पेंशन योजना का लाभ, नेपाल के विद्यार्थियों
के लिए आईआईटी में प्रवेश के साथ कई सुविधाओं के बाद भी भारत विरोध नेपाल में
लगातार बढ़ रहा है। चीन ने नेपाल में आक्रामक परियोजनाएं शुरू करके अपने प्रभाव को भारत के तराई क्षेत्रों तक बनाने में कामयाबी हासिल कर ली है। इसके साथ ही वह नेपाली कम्युनिस्ट और
माओवादी गुटों को आर्थिक और सैनिक कर चीन का समर्थन और आम
नेपालियों में उनके द्वारा भारत विरोधी भावनाएं भड़काने की साजिशें रचने में कामयाब होता दिखाई दे रहा है। इसके साथ ही नेपाल
से भारत की खुली सीमा का भारी दुरुपयोग होकर अब यह समस्या का कारण भी बन गई है। चीनी सामानों की भारत में
डम्पिंग,माओवाद की नेपाल से आंध्र तमिलनाडू तक रेड कॉरिडोर में उपस्थिति और मजबूती,पाक की खुफियाँ एजेंसी आईएसआई की नेपाल में लगातार गतिविधियां
तथा तस्करों और आतंकवादियों का प्रवेश नेपाल के रास्ते आसान माना जाता है।
पूर्वकाल से ही नेपाल के राजा महाराजाओं ने अपने देश कि
पहचान को भारत से अलग रखने के लिए कई कोशिशें की है। यह सब जानते हुए भी भारत ने नेपाल को लेकर लगातार
बेहद उदार रवैया अपनाया,लेकिन इस समय भारत को अपने राष्ट्रीय हितों की सुरक्षा के लिए नेपाल को सख्त संदेश देने की यथार्थवादी नीति अपनाने पर
विचार करना चाहिए।