अर्श पर मोदी,शीर्ष पर मां modi maa

 

           


         
                                                                                             

आशाओं,अपेक्षाओं,असाधारण कार्यों के लिए ख्यात लेकिन विपक्षी आलोचनाओं के भी केंद्र में रहने वाले पीएम मोदी के राजनीतिक जीवन में मां का स्थान और उनकी भूमिका चमत्कृत करती रही है।  आम भारतीयों  के लिए पीएम के साथ मां की तस्वीर ऐसा आकर्षण का केंद्र है जिसमें अनंत संभावनाएं और भारतीय जीवन के उच्च मूल्य दिखाई देते है। भारतीय परिवेश की विभिन्नता के बीच,देश के अलग अलग क्षेत्रों में की गई सभाओं में पीएम ने महिलाओं की समस्याओं को समझने के लिए अपनी मां के संघर्षों को कई बार याद करते रहे है। मसलन मोदी जब यह बताते है कि मेरी मां को अक्षर ज्ञान भी नसीब नहीं हुआ,उन्होंने स्कूल का दरवाज़ा भी नहीं देखाउन्होंने देखी तो सिर्फ गरीबी और घर में हर तरफ अभाव इससे साफ है कि अपार जनसमूह के बीच मां के जीवन की कहानियों में वह आम भारतीय समाज नजर आता है जहां पर महिलाएं अशिक्षा,अभावों और गरीबी से जूझते हुए भी अपने परिवार और बच्चों की बेहतरी के लिए कड़ी मेहनत करती है।  पीएम यहां उन मजबूर करोड़ों लोगों और मतदाताओं का प्रतिनिधित्व करते नजर आते है।  

 


पीएम के भाषणों में मां का जीवन स्वत: ही भारत की करोड़ों माताओं की सच्चाई को जाति,भाषा या क्षेत्र से परे हटकर जोड़ देता है भारत के किसी भी इलाके में चले जाइये,महिलाओं की मजबूरियां और  चुनौतियां कम नहीं है,फिर भी अपने परिवार और बच्चों की बेहतरी के लिए काम करने का जज्बा भी कम नहीं दिखताआदिवासी और पिछड़े समाज की हकीकत पीएम मोदी की मां के जीवन में दिखाई पड़ती हैपीएम मोदी के कार्यकाल में प्रधानमंत्री आवास योजना और उज्ज्वला नाम की चूल्हा योजना ने गरीबों को खूब आकर्षित कियाअपने अभावों और अनुभवों को वे बयां करते हुए साफ कहते है कि  वडनगर के जिस घर में हम लोग रहा करते थे वो बहुत ही छोटा थाउस घर में कोई खिड़की नहीं थी,कोई बाथरूम नहीं था,कोई शौचालय नहीं थाकुल मिलाकर मिट्टी की दीवारों और खपरैल की छत से बना वो एक-डेढ़ कमरे का ढांचा ही हमारा घर था,उसी में मां-पिताजी,हम सब भाई-बहन रहा करते थेउस छोटे से घर में मां को खाना बनाने में कुछ सहूलियत रहे इसलिए पिताजी ने घर में बांस की फट्टी और लकड़ी के पटरों की मदद से एक मचान जैसी बनवा दी थीवही मचान हमारे घर की रसोई थी मां उसी पर चढ़कर खाना बनाया करती थीं और हम लोग उसी पर बैठकर खाना खाया करते थे


 

पीएम जिस घर की बात कहते है वह भारत के करोडो लोगों की गरीबी की एक सच्चाई है,जिससे इंकार नहीं किया जा सकता।  करोड़ों लोगों के पास पक्के मकान नहीं है और लोग टूटे या आधे अधूरे घरों में रहते है।  पीएम की मां के जीवन का अनुभव उन लोगों की भावनाओं को समझने का  व्यावहारिक संदेश होता है। भारतीय समाज में मध्यम वर्ग का आकार 30 फीसदी से अधिक हो गया है और भारत में 14 करोड़ लोग गरीब है। जाहिर है यह वर्ग खुद को प्रधानमंत्री के जीवन से जोड़कर गौरवान्वित तो समझता ही है।


 

भारतीय समाज का गरीब तबका दो जून रोटी के लिए हर दिन जूझता है। कई महिलाएं झाड़ू पोछा करके अपने घर को चलाती है। पीएम मोदी ने समाज के इस वर्ग की सच्चाई को खुद से जोड़कर सार्वजनिक मंचों से यह कहने से परहेज नहीं किया की उनकी मां घर चलाने के लिए दो चार पैसे ज्यादा मिल जाएं, इसके लिए मां दूसरों के घर के बर्तन भी मांजा करती थींयहीं नहीं पीएम ने मां की साफ सफाई की आदतों से लेकर घर सजाने के घरेलू और ग्रामीण समाज के तरीकों का भी उल्लेख किया  यह आधुनिक भारत के करोड़ों लोगों को जोड़ने वाला अनुभव पीएम बेहतर तरीके से प्रस्तुत करते है और यही उनका मध्यम वर्ग और गरीबों में आकर्षण का केंद्र भी बनता है।


 

यह भी दिलचस्प है कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश भारत में शायद ही किसी मां को 8 साल तक अपने बेटे को देश के सर्वोच्च पद पर प्रधानमंत्री के रूप में विराजित होते देखने का अपने जीवनकाल में सौभाग्य मिला हो। पंडित नेहरु और इंदिरा गांधी,लंबे समय तक देश के प्रधानमंत्री अवश्य रहे हो लेकिन उस समय उनकी मां जीवित नहीं थी। जबकि अटलजी की मां कृष्णा देवी और मनमोहनसिंह की मां अमृत कौर की जानकारियां ही उपलब्ध नहीं है। दुनियाभर के राष्ट्राध्यक्ष अपनी पत्नी के साथ वैदेशिक यात्राओं पर होते है। हिलेरी क्लिंटन हो या मिशेल ओबामा,वे लोगों के लिए कम आकर्षण का केंद्र नहीं रही। जबकि भारत के पीएम अपने आदर्श के रूप में मां को प्रस्तुत करते है और यह भारतीयता की विशिष्ट छाप है जो सबकों मंत्रमुग्ध कर देती है। अंततः पीएम ने सार्वजनिक मंचों से मां को जिस प्रकार याद किया है वह आम भारत की मां ही की तो तस्वीर है और फिर असल राजनेता तो वही जो जनता को जोड़ने में कामयाब हो जाएं।


 

पीएम की मां का गुजर जाना किसी भी देश और राजनेताओं के लिए अपूरणीय क्षति के साथ ही एक बड़ी घटना है। यह राष्ट्रीय शोक घोषित हो सकता था और इसमें देश के सर्वोच्च नेताओं,करोड़ों लोगों के साथ वैदेशिक राष्ट्रअध्यक्ष भी शामिल हो सकते थे। लेकिन पीएम मोदी अपने पैतृक गांव पहुंचे,आम भारतीयों की तरह ही स्थानीय शव वाहन में बैठकर अपनी मां के शव को शमशान घाट ले गए और उन्हें मुखाग्नि देकर काम पर लौट गए।


 

पीएम की सादगी का यह अभूतपूर्व व्यवहार भारत के लोकतंत्र का वह चेहरा है जिसकी कल्पना आज़ादी के आंदोलन में की गई थी। जिस दौर में लोकतंत्र अभिजनों के द्वारा अपहृत कर लिया गया हो तथा आम जनता के लिए नेता दूर की कौड़ी हो गये है वहां पीएम ने अपनी मां की अंतिम बिदाई में सादगी और लोक व्यवहार के ऊंचे प्रतिमान स्थापित किए है। उनके धूर राजनीतिक विरोधी इसे स्वीकार भले ही न करें लेकिन वे चमत्कृत हुए बिना भी नहीं रह सकते। बहरहाल मोदी ने एक बार साबित कर दिया की कई नाकामियों के बाद भी भारत के लोगों का भरोसा उन पर क्यों कायम है।


 

 

 

भूटान पर चीन की नजर BHUTAN CHINA RASHTRIY SAHARA

 

राष्ट्रीय सहारा


                            

                                                         

 

तकरीबन आठ लाख की आबादी वाले देश भूटान से चीन का सीमा विवाद मध्य और पश्चिमी क्षेत्रों पर तो रहा है लेकिन पूर्वी क्षेत्र पर कभी कोई बात ही नहीं हुई। यहां तक की चीन और भूटान की उच्च स्तर की 24 वार्ताओं में भी कभी इसका जिक्र नहीं किया गया। 2020 में यह स्थिति अचानक बदल गई जब  वैश्विक पर्यावरण  सुविधाओं पर आधारित एक बैठक में चीन ने यह दावा कर सबको अचरज में डाल दिया कि पूर्वी भूटान में स्थित सकतेंग वन्यजीव अभयारण्य को किसी अंतराष्ट्रीय परियोजना में इसलिए शामिल नहीं किया जा सकता क्योंकि यह चीन और भूटान के बीच एक विवादित क्षेत्र है। दरअसल चीन ने भूटान के जिस क्षेत्र पर दावा किया,भूटान की पूर्वी सीमा अरुणाचल प्रदेश के तवांग जिले के छूती है और अरुणाचल प्रदेश को चीन दक्षिणी तिब्बत बताता है

हाल ही में तवांग पर चीन ने जो विवाद खड़ा करने की कोशिश की है,वह उसकी पारम्परिक सीमाओं के विस्तार की रणनीति पर आधारित है। गौरतलब है कि  चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने अपने तीसरे कार्यकाल की शुरुआत के ठीक पहले कांग्रेस के अधिवेशन में अपनी भावी रणनीति को साफ करते हुए कहा था कि अब आर्थिक क्षेत्र से ज्यादा उनका ध्यान पार्टी हित और राजनीतिक प्रतिबद्धताएं पूरी करना होगी। चीन की राजनीतिक प्रतिबद्धताएं माओ के सिद्दांतों के अनुरूप रही है और शी जिनपिंग माओ के बाद देश के सबसे शक्तिशाली नेता बनकर उभरे हैमाओ की विचारधारा अधिनायकवाद,साम्राज्यवादी और सीमाओं के विस्तार के लिए आक्रामक नीतियों पर आधारित हैमाओं और जिनपिंग यह विश्वास करते है कि चीन की असल सीमाएं पिछले दो हजार वर्षों में चीन के सुदूर पूर्व,मध्य एशिया और दक्षिण पूर्वी एशिया में विशाल साम्राज्य पर आधारित होना चाहिए। माओं ने पड़ोसी देशों के अस्तित्व को ही चुनौती देते हुए  तिब्बत को चीन के दाहिने हाथ की हथेली माना  और उसकी पाँच अंगुलियाँ लद्दाख,नेपाल,सिक्किम,भूटान और अरुणाचल प्रदेश को बताया था

भारत और चीन के बीच सीमा विवाद में संघर्ष की स्थिति निर्मित होने के बाद भी चीन लद्दाख,सिक्किम और अरुणाचल प्रदेश को लेकर भारत पर सैन्य या कूटनीतिक दबाव बनाने में असफल रहा हैनेपाल को लेकर चीन बहुत आगे बढ़ गया है और वहां साम्यवादी शक्तियां सत्ता में प्रभावशील है,अत: चीन नेपाल को आर्थिक सहायता के जाल में बूरी तरह उलझा चूका है इन सबके बीच चीन की नजर भूटान पर है जो भारत के लिए सुरक्षा कवच का काम करता है भारत के उत्तर पूर्व के प्रमुख सहयोगी राष्ट्र भूटान से मजबूत सम्बन्ध रहे है भूटान को मिलने वाली विदेशी सहायता तथा वहां पहुंचने वाले निवेश में सबसे बड़ा योगदान भारत का ही होता है,भारत उसका सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार भी है भूटान भारत के सहयोग और निवेश से बिजली पैदा करता है और उसे भारत को बेचता है,जो उसके सकल घरेलू उत्पाद का 14 फीसदी है। भूटान और भारत के बीच 1949 से मैत्री संधि है और 2007 में यह नवीनता के साथ मजबूत ही हुई है। भारत तीन दिशाओं में दक्षिण,पश्चिम और पूर्व में भूटान के लिए सीमा बनाता है जबकि उत्तर में भूटान की सीमाएं चीन से लगी हुई है। भूटान भारत और चीन के बीच  रणनीतिक रूप से एक बफ़र देश है,सुरक्षा के दृष्टिकोण से अपने भू रणनीतिक स्थान के कारण भूटान भारत के लिए बेहद अहम है। भारत और भूटान के बीच 605 किलोमीटर लंबी सीमा है तथा 1949 में हुई संधि की वज़ह से भूटान की अंतर्राष्ट्रीय,वित्तीय और रक्षा नीति पर भारत का प्रभाव रहा है 

वहीं चीन और भूटान के बीच भौगोलिक और रणनीतिक विरोधाभास रहे है तथा इन दोनों देशों के बीच लगभग पांच सौ किलोमीटर की लंबी सीमा रेखा है जिस पर विवाद होता रहा है भूटान चीन से आशंकित रहता है कि कहीं वह तिब्बत की तरह ही उस पर कब्जा न जमा लें। 2017 में भारत और चीन के बीच डोकलाम को लेकर सैन्य तनातनी हुई थी। यह क्षेत्र भारत,चीन और भूटान के त्रिकोण पर स्थित है। चीन यहां नये निर्माण की कोशिश कर रहा था,जिसे भारतीय सेना ने रोक दिया था. खंजर के आकार की चुम्बी घाटी का डोकलाम पठार रणनीतिक रूप से  भारत के लिए बेहद अहम रहा है।

 

चीन पिछले कुछ वर्षों में भूटान से सीमा विवाद हल करने की कोशिशों में जुटा है और उसकी यह कोशिश भारत की सामरिक समस्याओं को बढ़ा सकती है। पिछले वर्ष अक्टूबर में भूटान और चीन ने एक एमओयु पर हस्ताक्षर किए थे। जिस पर चीन ने दावा किया सीमा निर्धारण को लेकर बातचीत की रफ़्तार तेज़ करने और दोनों देशों के बीच कूटनीतिक संबंधों को स्थापित करने में मदद करने में अर्थपूर्ण भागीदारी आगे बढ़ेगीवहीं भूटान ने भी दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय संबंधों को मजबूत करने की और प्रतिबद्धता जताईचीन की भूटान से विवाद समाप्त करने की कोशिशें भारत के लिए नई सुरक्षा चुनौती के रूप में सामने आ सकती है

 

चीन और भूटान के बीच जिन दो इलाक़ों को लेकर ज़्यादा विवाद है, उनमें से एक भारत-चीन-भूटान ट्राइजंक्शन के पास 269 वर्ग किलोमीटर का इलाक़ा और दूसरा भूटान के उत्तर में 495 वर्ग किलोमीटर का जकारलुंग और पासमलुंग घाटियों का इलाक़ा है चीन भूटान को 495 वर्ग किलोमीटर वाला इलाक़ा देकर उसके बदले में 269 वर्ग किलोमीटर का इलाक़ा लेना चाहता हैचीन जो इलाक़ा मांग रहा है,वो भारत के सिलीगुड़ी कॉरिडोर के क़रीब है सिलीगुड़ी कॉरिडोर, जिसे चिकन्स नैक भी कहा जाता है,वो भारत के लिए बहुत महत्वपूर्ण जो उसे पूर्वोत्तर राज्यों तक पहुंचने के लिए सुरक्षित रास्ता देता हैअगर चीन सिलीगुड़ी कॉरिडोर तक पहुंचने में यदि हो गया तो भारत की पूर्वोत्तर की सीमा प्रभावित हो सकती है  के राज्यों के लिए चिकन्स नैक का यह इलाक़ा भारत के लिए रणनीतिक दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है इस इलाक़े में अगर चीन को थोड़ा सा भी लाभ होता है तो वो भारत के लिए बहुत बड़ा नुकसान होगा  चीन,भूटान के साथ सौदा करने की कोशिश कर रहा है और ये सौदा भारत के हित में नहीं होगा। चीन चुंबी घाटी तक रेल लाईन बिछा सकता है,चीन के पास पहले से ही यातुंग तक रेल लाइन की योजना है और यातुंग चुंबी घाटी के मुहाने पर है

 

भारत भूटान को आर्थिक,सैनिक और तकनीकी मदद मुहैया कराता है भारत की तरफ़ से दूसरे देशों को दी जाने वाली आर्थिक सहायता का सबसे बड़ा लाभ भूटान को ही मिलता हैभूटान में सैंकड़ों भारतीय सैनिक तैनात हैं और वे भूटानी सैनिकों को  प्रशिक्षण भी देते है। लेकिन चीनी प्रभाव से अब स्थितियां बदल रही है। भूटान की युवा पीढ़ी भारत और चीन से समान संबंध रखना चाहती है और वे इन दोनों देशों के विवादों से दूरी बनाएं रखने की पक्षधर है। जाहिर है भारत के पड़ोसी निरंतर भारत की सामरिक चुनौतियों को बढ़ा रहे है। नेपाल,म्यांमार,बांग्लादेश,श्रीलंका और मालद्वीप में चीन की व्यापक आर्थिक हिस्सेदारी ने भारत के लिए सामरिक संकट को बढ़ाया है और इन देशों के बन्दरगाहों पर चीनी जासूसी जहाजों की आवाजाही बढ़ी है। वहीं चीन की नजर अब भूटान पर है और भारत के लिए  भूटान को नियंत्रित रखना बहुत जरूरी है। 

सऊदी अरब में चीन की सेंध saudi arab china janstta

 जनसत्ता


                        

                                                                            

यह दुनिया की नई कूटनीतिक प्रतिज्ञाएं है जहां एक दूसरे से व्यापक रणनीतिक और आर्थिक सहयोग तो किया जा सकता है लेकिन वैचारिक स्तर पर यह अपेक्षा की जाती है कि कोई किसी भी देश के आंतरिक मामलों पर हस्तक्षेप न करें चीन के राष्ट्रपति का सऊदी अरब में ऐतिहासिक स्वागत हुआ,दोनों देशों के बीच कई समझौते भी हुए और इन सबके बीच चीन ने वन चाइना पॉलिसी पर सऊदी अरब का समर्थन जुटाते हुए यह भी साफ किया की दोनों देश एक दूसरे के आंतरिक मामलें में कोई हस्तक्षेप न करेंगे  

 

अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने आर्थिक आज़ादी में राजनीतिक आज़ादी के अवसर बनने का दावा करते हुए एक बार कहा था कि,जब लोगों के पास सिर्फ़ सपने देखने की ही नहीं बल्कि सपनों को पूरा करने की भी आज़ादी होगी,तब वो चाहेंगे कि उनकी बात भी सुनी जाएक्लिंटन ने चीन की साम्यवादी शासन की कठोरता के शिथिल होने की उम्मीद जताई थी  लेकिन चीन ने अमेरिका और यूरोप के उदार शासन की मान्यताओं को पीछे छोड़ते हुए राजनीतिक नियंत्रण की व्यवस्था से ही दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था का मुकाम हासिल करने में सफलता अर्जित कर ली है और उसका दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनना भी तय है  इन सबके बीच चीनी विचारधारा आर्थिक फायदों की नई विश्व व्यवस्था का ऐसा जाल बुनने में सफल होती दिख रही है जहां मानवीय मूल्यों को रौंदने की आज़ादी होगी और उसका प्रतिरोध करने वाली एजेंसियां या देश चुप रहने पर मजबूर कर दिए जायेंगे

 

सऊदी अरब इस्लामिक और सुन्नी दुनिया का प्रतिनिधित्व करने में सबसे आगे है चीन वीगर मुसलमानों पर अत्याचारों को लेकर दुनिया के निशानें पर रहा है और मानवाधिकार संगठन खुलकर उसकी आलोचना करते हैवहीं इस्लामिक दुनिया की चीन को लेकर ख़ामोशी बेहद रहस्यमय रही है और अब उसका असर भी सामने आने लगा हैदरअसल 2018 में पत्रकार जमाल ख़ाशोगी की हत्या के मामले में प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान अमेरिका के निशाने पर थे,लेकिन चीन और सऊदी अरब जैसे देशों में मानवाधिकार जैसे मुद्दे कभी केंद्र में रहे ही नहीं हैजमाल ख़ाशोज्जी की हत्या पर अमेरिका की ओर से उठाए गए सवाल सऊदी अरब के शाही परिवार के लिए असहज करने वाले रहे हैंअपने चुनाव प्रचार के दौरान सऊदी अरब को ख़राब मानवाधिकार रिकॉर्ड के चलते अलग-थलग करने की क़सम खाने वाले जो बाइडन  कुछ महीने पहले सऊदी अरब से संबंधों को ठीक करने आएं तो थे लेकिन सऊदी अरब की अमेरिका से निर्भरता कम करने की छटपटाहट को ख़ाशोगी विवाद ने बढ़ा दिया। सऊदी अरब विकास तो करना चाहता है लेकिन अभिव्यक्ति और अल्पसंख्यकों की आज़ादी का उसका रुख चीन की शासन प्रणाली से मेल खाता है।

 

सऊदी अरब अमेरिका से हथियारों का बड़ा खरीददार रहा है,लेकिन पिछलें कुछ वर्षों में अमेरिका की नीति ने उसे असहज भी कियायमन में शांति स्थापित करने के लिए बाइडेन प्रशासन का फरवरी 2021 में सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात के लिए हथियारों की बिक्री को लेकर किए सौदों को अस्थायी रूप से निलंबित करने का फ़ैसला किया जो ईरान की प्रतिद्वंदिता के चलते सऊदी अरब के लिए अप्रत्याशित था अमेरिकी सरकार के साथ ही वहां की कई एजेंसियां सऊदी अरब पर दबाव डालने का काम करती रही है अमेरिकी सरकार की एजेंसी यूनाइटेड स्टेट्स कमीशन ऑन इंटरनेशनल रीलिजियस फ्रीडम ने धार्मिक आज़ादी का उल्लंघन के लिहाज से सबसे चिंताजनक देशों की ब्लैक लिस्ट में सऊदी अरब का नाम शामिल किया है सऊदी अरब पर यह आरोप लगाया गया है कि वह इस्लाम के अलावा किसी अन्य धर्म के पूजा स्थलों के निर्माण को प्रतिबंधित करता है सरकार की ओर से विरोध करने वाले धार्मिक नेताओं को भी हिरासत में रखना जारी है सऊदी अरब में शिया मुसलमानों को शिक्षा,रोजगार और न्यायपालिका में भेदभाव का सामना करना पड़ता है इसके साथ ही सेना और सरकार के उच्च पदों तक भी उनकी पहुंच नहीं है और सरकारी संस्थाएं अभी भी इन इलाकों में शिया समुदाय के धार्मिक आह्वानों पर रोक लगाए हुए हैं सऊदी अरब में शिया मुसलमानों को शिक्षा,रोजगार और न्यायपालिका में भेदभाव का सामना करना पड़ता है सऊदी अरब मध्यपूर्व में अमेरिका का अहम सुरक्षा सहयोगी है और इस क्षेत्र में शिया विद्रोही गुटों को रोकने में उसकी भूमिका अहम रही हैसऊदी अरब,संयुक्त राज्य अमेरिका का सबसे बड़ा विदेशी सैन्य बिक्री ग्राहक है तथा सऊदी के तीन प्रमुख सुरक्षा संगठन रक्षा मंत्रालय,नेशनल गार्ड और आंतरिक मंत्रालय अमेरिकी सहायता से ही संचालित होते रहे है लेकिन हाल के वर्षों में सऊदी अरब  ने अपने सामरिक और आर्थिक हितों की सुरक्षा के लिए अमेरिका के मूल्य आधारित संबंधों से आगे देखने की जरूरत  को महसूस किया और उसे चीन में संभावनाएं बेहतर दिखी सऊदी अरब रूस के साथ अपने संबंधों को पुनर्जीवित कर रहा है और चीन के साथ अपने संबंधों को प्रगाढ़ बना रहा है जो अमेरिका के सामरिक प्रतिस्पर्धी हैं।

 

अमेरिका तेल के निर्यातक के रूप में अधिक आत्मनिर्भर होता जा रहा है,इसलिए चीन सऊदी तेल के लिए सबसे बड़ा बाजार बनकर उभरा है। यूरोप में चीन की बढ़ती चुनौती से मुकाबला करने के लिए यूरोप के कई देश और अमेरिका लामबंद हुए है,ऐसे में चीन अपनी उस विचारधारा को शक्ति दे रहा है जिसके अनुसार एशिया की सारी समस्याओं का समाधान उसके पास ही है।

 

चीन बेल्ट एंड रोड प्रोजेक्ट की महत्वाकांक्षाओं को साकार रूप देने के लिए कृतसंकल्पित है और वह कई करीब 20 अरब देशों से समझौतें कर चूका है  इसमें ऊर्जा और इंफ्रास्ट्रकचर के क्षेत्र में 200 से ज्यादा परियोजनाएं पूरी हो चुकी हैं तथा चीन और अरब देशों के बीच साझा व्यापार नई ऊंचाइयों को छू रहे है। रूस यूक्रेन युद्द के दौरान  तेल की कम सप्लाई से अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में कच्चे तेल की क़ीमतें बढ़ रही हैं और इसका असर पश्चिमी देशों पर पड़ रहा है। वहीं सऊदी अरब ने चीन को कच्चे तेल की सबसे अधिक सप्लाई की हैचीन सऊदी अरब को इस बात के लिए भी राज़ी करने की कोशिश कर रहा है कि कुछ व्यापार के लिए भुगतान की मुद्रा डॉलर की बजाय युआन  यानि चीनी करेंसी में हो इसका अर्थ साफ है कि चीन के इरादे डॉलर प्रभाव को कम करने तथा युआन  को वैश्विक स्तर पर मजबूत करने की और बढ़ रहे है चीन और अरब देशों की दोस्ती तेल सप्लाई से कहीं आगे जाकर अब हथियार और सैन्य सामानों की ख़रीद तक जा चुकी है सऊदी अरब और यूएई ने चीन से सैन्य उपकरणों का सौदा किया है जिसमें हथियारबंद ड्रोन तैयार करने का सौदा अहम है। सऊदी अरब ने बाइडेन की तेल का उत्पादन बढ़ाने की अपील को दरकिनार कर रूस के प्रतिनिधित्व वाले ओपेक प्लस के साथ मिलकर प्रतिदिन 20 लाख बैरल तेल का उत्पादन घटाने का फ़ैसला कर पश्चिमी देशों की चिंता ही बढाई है सऊदी अरब और चीन की बढ़ती नजदीकियां अमेरिका की एशिया केंद्रित नीति  के लिए झटका है बाइडन मध्य पूर्व में चीन के बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव के प्रभाव को कम करने के साथ ही अमेरिका की इंडो-पैसिफिक रणनीति को बढ़ावा देना चाहते हैं। इस वर्ष जुलाई में बाइडन ने मध्य पूर्व के कई देशों की यात्रा करके अपने इरादों को जाहिर भी किया था

 

चीन रेल और सड़क के साथ-साथ बंदरगाह विकास जैसी बुनियादी संरचनात्मक परियोजनाओं पर नियंत्रण के माध्यम से क्षेत्र में मध्यपूर्व में जिस प्रकार आगे बढ़ रहा है उसके बहुआयामी प्रभाव हो सकते है। मध्य-पूर्व के देशों की तेल आधारित अर्थव्यवस्था की चुनौतियां कम नहीं हैयहां आपसी प्रतिद्वंदिता के चलते कई देश गृह युद्द की आग में झुलस रहे है तथा प्राकृतिक गैस पाइपलाइन को बार बार क्षतिग्रस्त करने से इन देशों की आर्थिक समस्याओं में इजाफा ही हुआ हैमध्य-पूर्व एशिया में चीन का रेल और सड़क का जाल पिछड़े हुए इलाकों में विकास की नई  रोशनी दिखा रहा हैकरीब 90 वर्ष पहले मध्य पूर्व में प्रभाव स्थापित करने के लिए  ब्रिटेन और फिर अमरीका ने तेल को लेकर  कुछ योजनाएं बनाईं जिनमें तेल की कूटनीति की पर आधारित रणनीति शामिल थी दूसरे विश्वयुद्ध के बाद से ही अमरीका की ये कोशिश रही है कि तेल के भंडारों से उनको लगातार,बिना किसी परेशानी के तेल मिलता रहे और तेल के उत्पादन और उसकी बिक्री बिना किस रुकावट के चलती रहेअमरीका ने 1950 के दशक से ही कई देशों की अंदरूनी राजनीति में तेल के कारण दख़ल देना शुरू कर दिया और इसके परिणाम यह हुए की जहां मध्य पूर्व में अशांति फैली वहीं अमेरिका को लेकर इन क्षेत्रों में नाराजगी भी बढ़ गई

 

वैश्वीकरण के युग ने  वैश्विक स्तर पर भू राजनीति को बदल कर दिया खाड़ी देशों ने तेल को ताकत बनाकर उसकी आपूर्ति को अपने हितों के आधार पर संचालित किया तो अमरीका,रूस,चीन और यूरोप के बीच प्रतिद्वंदिता भी बढ़ गईइस समय चीन खाड़ी देशों को यह भरोसा दिला रहा है कि उनके पास यदि तेल खत्म भी हो गया तो चीन के बेल्ट एंड रोड प्रोजेक्ट के बूते उनके विकास की नई राह खुलेगीचीन की यह नीति खाड़ी देशों को इसलिए भी लुभा रही है क्योंकि यह आने वाली सदी की संभावनाओं  की योजना है

 

सऊदी अरब कच्चा तेल मुक्त विज़न 2030 पर तेजी से काम कर रहा हैक्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान चाहते हैं कि सऊदी अरब को हरित देश बनाया जाएदुनिया के यह सबसे  बड़ा तेल उत्पादक देश इस बात से चिंतित रहा है कि तेल के बाद उसके देश के पास कमाई का क्या साधन होगातेल की कीमतों में बड़ी गिरावट ने कुछ वर्ष पहले ही सऊदी अरब की कमाई आधी कर दी थीअब सऊदी अरब व्यापार और पर्यटक केंद्र के रूप में खुद को उभारने की व्यापक योजना पर काम कर रहा है जहां उसके बड़े भागीदार भारत और चीन जैसे देश हैजाहिर है खाड़ी के देशों का तेल से अलग होकर सोचना अमेरिका,ब्रिटेन और यूरोप के लिए सुविधाओं और सम्पन्नता के द्वार बंद होने जैसा है वहीं चीन का उभार मानवीय मूल्यों की कब्रगाह पर ऊंची अट्टालिकाएं खड़ा करने जैसा होगा 

16 दिसम्बर 1971,जब बंगालियों ने धर्म को पीछे छोड़ा... सांध्य प्रकाश

 


16 दिसम्बर 1971 को यह खबर सब दूर फ़ैल चूकी थी कि पाकिस्तान की सेना भारतीय सेना के सामने हथियार डालने वाली है। ढाका के रेसकोर्स मैदान में इसके लिए आत्मसमर्पण समारोह का आयोजन किया गया। सुबह से ही लाखों लोग इस मैदान पर जमा होने लगे। पाकिस्तानी सैनिकों के अत्याचारों से बंगला जनता बहुत गुस्से में थी और किसी अनहोनी को लेकर आशंकाएं भी जताई जा रही थी। यह रेसकोर्स का वहीं मैदान था जहां बंग बंधु शेख मुजीब ने मार्च 1971 में ही स्वतंत्र बंगलादेश का नारा लगाकर पाकिस्तान से अलग होने की घोषणा कर दी थी। हालांकि उन्हें बाद में गिरफ्तार कर लिया गया था।




16 दिसम्बर का दिन ढलता जा रहा था कि करीब 4 बजे पूर्वी कमान के सेनापति जनरल अरोड़ा हेलीकाप्टर से ढाका के तेजगांव हवाई अड्डे पर पहुंचे। पाकिस्तान के सेना अध्यक्ष ले.जनरल नियाजी तथा मेजर जनरल फरमान अली ने उनका स्वागत किया। यह बेहद दिलचस्प है कि जनरल अरोड़ा और जनरल नियाजी दोनों ने ही देहरादून के सैनिक स्कूल से साथ शिक्षा पाई थी और वे अच्छे दोस्त भी थे। वे 24 साल बाद मिले वह भी दुश्मन देशों के सेना प्रमुख के तौर पर।  लेकिन दोनों गर्म जोशी से मिलें और एक दूसरे के परिजनों का हालचाल पूछा।


दरअसल 16 दिसम्बर 1971 को पाकिस्तान से अलग होकर बांग्लादेश का जन्म महज संयोग नहीं बल्कि शोषण,अन्याय,उत्पीड़न और गैर बराबरी के खिलाफ आम जनता का सांस्कृतिक संघर्ष था जिसने जिन्ना के द्विराष्ट्रवाद की अवधारणा को ख़ारिज कर दिया था। इससे यह भी साबित हुआ की भारतीय उपमहाद्वीप में धार्मिक विविधताओं के बाद भी सांस्कृतिक समन्वय अभूतपूर्व है और इसका सम्मान करके करोड़ों लोगों को जोड़ा जा सकता है। गांधी इसे बार बार दोहराते थे जबकि जिन्ना इसे कोरी बातें समझते थे।




1971 में पाकिस्तान का विभाजन भारत की सैन्य नीति की उत्कृष्टता का विलक्षण उदाहरण मानी जाती है। दुनिया के कई सैन्य संस्थाओं में इसका अध्ययन किया जाता है कि कैसे सीमित संसाधनों के बाद भी भारत ने चीन और अमेरिका की सामरिक सहायता प्राप्त पाकिस्तानी सेना को महज 14 दिनों में घुटने के बल ला दिया और उसके 93 हजार सैनिकों को बंदी बना लिया। भारत की इस सैन्य सफलता के पीछे बंगलादेशी नागरिकों के बलिदान और जिजीविषा के अनेक उदाहरण है। पूर्वी कमान के सेनापति लेफ्टिनेंट जनरल जगजीतसिंह अरोड़ा ने बांग्लादेश में भारतीय सेना का नेतृत्व किया था।उनके अनुसार हमारी विजय के कारणों में दक्ष रणनीति,कुशल नेतृत्व,जवानों का शौर्य और बांग्लादेश की जनता,इन सबकों विजय का श्रेय मिलना चाहिए।जनरल अरोड़ा ने इस जीत के लिए मुक्तिवाहिनी तथा बांग्लादेश की जनता की सराहना की थी।


दरअसल बांग्ला जनता के स्थानीय सहयोग से भारतीय सेना को बहुत मदद मिली। वे सेना को महत्वपूर्ण सूचनाएं देते थे जिससे सेना का काम अपेक्षाकृत आसान हो रहा था और इससे दुश्मन की चुनौती से निपटने में बड़ी मदद मिली। बांग्लादेश की जनता ने भारतीय सैनिकों का सामान बैलगाड़ियों,घोड़ों,रिक्शों, तथा पीठ पर ढोया। जरूरत पड़ने पर सैनिकों को खाना तक खिलाया।यहां तक की पाकिस्तान की सेना बांग्लादेश के सबसे प्रमुख शहर ढाका को बचाने के लिए युद्द ही नहीं कर सकी और उन्हें बिना युद्द किए ही भारतीय सेना के सामने आत्म समर्पण करना पड़ापाकिस्तान के प्रति बांग्ला जनता की गहरी नफरत को जनरल नियाजी समझ चूके थे। वे जानते थे कि भारत की सेना और बांग्ला जनता से पाकिस्तान की सेना पूरी तरीके से घिर चूकी है और अब लड़ाई का मतलब उनकी सेना को कटवाना होगा।


14 अगस्त 1947 को पाकिस्तान बनने के साथ ही पाकिस्तान को इस्लामिक पहचान देने के नाम पर पश्चिम पाकिस्तान के शासकों ने पूर्व बंगाल का बड़े पैमाने पर शोषण शुरू कर दिया था। यह शोषण और उत्पीडन राजनीतिक,सामाजिक,सांस्कृतिक और आर्थिक तौर पर था।1970 में पूर्वी पाकिस्तान की आबादी साढ़े सात करोड़ थी जबकि उसके मुकाबले पश्चिम पाकिस्तान की आबादी इससे एक करोड़ कम अर्थात् लगभग साढ़े छह करोड़ थी।लेकिन पूर्वी पाकिस्तान से भेदभाव कर उसे इस प्रकार नजरअंदाज किया जा रहा था कि केन्द्रीय सेवाओं में 85 फीसदी पश्चिम पाकिस्तान के लोग थे और महज 15 फीसदी पूर्व पाकिस्तान के थे।वहीं सेना में यह अनुपात 90 और 10 का था।पुलिस में 80 फीसदी पश्चिम पाकिस्तान के लोग थे जबकि 20 फीसदी ही पूर्व पाकिस्तान के थे। विदेशी सहायता का 80 फीसदी पश्चिम पाकिस्तान में खर्च किया जाता  था  और वहां कई विकास परियोजनाएं संचालित की  जाती थी। पिछड़े इलाकें होने के बाद भी इस सहायता को नाम मात्र के रूप में 20 फीसदी पूर्व पाकिस्तान पर खर्च किया जाता था। उस समय पाकिस्तान की योजना आयोग की रिपोर्ट में भी यह सामने आया कि पश्चिम के प्रति व्यक्ति की औसत आय पूर्व से 32 फीसदी अधिक है। विकास की गति पश्चिम में 6.2 फीसदी जबकि पूर्व में केवल  3.2 फीसदी ही पाई गई।बंगालियों का शोषण और दोहन इस कदर किया जाता था कि पश्चिम पाकिस्तान के 20 परिवारों के हाथ में पूर्व बंगाल के 90 फीसदी उद्योग और व्यापारिक संस्थान थे।जुल्फिकार अली भुट्टों के समय उपराष्ट्रपति रहे नुरुल अमिन ने 1970 में यह स्वीकार किया था कि पूर्व बंगाल को 24 साल में पश्चिम पाकिस्तान ने पूरी तरह लूट लिया है और साढ़े सात करोड़ लोगों को उपनिवेशवादी चंगुल में बांध लिया गया है।


इन सब कारणों से  बंगालियों के मन में पाकिस्तानी शासकों के प्रति अविश्वास बढ़ता गया और इसका परिणाम 1970 में हुए आम चुनावों में देखने को मिला। जब अवामी लीग ने पूर्व बंगाल से राष्ट्रीय असेम्बली तथा प्रांतीय असेम्बली में 99 फीसदी सीटों पर विजय पाई।यह चुनाव स्वायत्त शासन की मांग के आधार पर लड़ा गया था।शेख मुजीब की पार्टी को राष्ट्रीय  असेम्बली में पूर्ण बहुमत मिल गया था और नियमानुसार उनकी सरकार बनना तय थी। लेकिन पीपुल्स पार्टी के नेता जुल्फिकार अली भुट्टों ने जनरल याह्या खां का सहयोग लेकर शेख मुजीब को गिरफ्तार कर लिया और बंगालियों की बड़े पैमाने पर मार काट शुरू कर दी।


पूर्वी पाकिस्तान के शासकों ने बंगाली संस्कृति को खत्म करने के लिए बुद्धिजीवियों को निशाना बनाया और हजारों लोगों को बेरहमी से मार डाला। पाकिस्तान की बंगाली संस्कृति को खत्म करने की यहीं कोशिशें अंततः उसके विभाजन का कारण बन गई और बांग्लादेश का जन्म हुआ। पाकिस्तान के प्रति बंगालियों में गहरी नफरत के भाव को पाकिस्तानी हुक्मरान,सेना और यहां तक की जिन्ना भी पहचान नहीं पायें थे जिससे महात्मा गांधी ने बहुत पहले ही समझ लिया था। गांधी ने जब दो राष्ट्रों के सिद्धांत और लीग की पाकिस्तान की मांग के बारे में सुना तो चकित रह गये और उन्हें सहसा विश्वास नहीं हुआ।


हिन्द स्वराज में महात्मा गांधी ने धर्म को लेकर अपना मत रखते हुए कहा कि,कोई भी मुल्क तभी एक राष्ट्र माना जाएगा जब उसमे दूसरे धर्मों के समावेश करने का गुण आना चाहिए। एक राष्ट्र होकर रहने वाले लोग एक दूसरे के धर्मों में दखल नहीं देते,अगर देते है तो समझना चाहिए कि वे एक राष्ट्र होने लायक नहीं है।


गांधी ने जिन्ना के दो राष्ट्रों के सिद्धांत को असत्य बताते हुए कहा की धर्म के परिवर्तन से राष्ट्रीयता नहीं बदलती। धर्म भिन्न भिन्न हो सकते है,लेकिन उससे संस्कृति भिन्न नहीं हो जाती। बंगाली मुसलमान, हिन्दू बंगाली की ही भाषा बोलता है,वैसा ही खाना खाता है,वेशभूषा भी दोनों की एक जैसी होती है। मुसलमानों के लिए अलग पाकिस्तान की जिन्ना की मांग को गांधी ने इसी आधार पर ख़ारिज कर दिया था। 1971 में पाकिस्तान के विभाजन का आधार सांस्कृतिक विविधता बनी और धर्म कहीं पीछे छूट गया। बापू अक्षरशः सही साबित हुए।

राष्ट्रीय सहारा-चीन में बदलाव की उम्मीद,china me badlav rashtriya sahara

राष्ट्रीय सहारा-#चीन_ में _बदलाव की _उम्मीद


                                                                           

साम्यवाद के कड़े नियमों की आढ़ में जनता पर नियन्त्रण स्थापित करने की शी जिनपिंग की कोशिशें अब धराशायी होने लगी है चीन की कम्युनिस्ट सरकार ने ज़ीरो कोविड नीति को जनता पर सामाजिक नियन्त्रण स्थापित करने का एक अवसर माना था लेकिन लगता है कि सरकार का यह दांव उलटा पड़ गया हैकोविड के दौरान जिस तरह के सख़्त प्रतिबंध लगे और इसकी वजह से अर्थव्यवस्था चौपट हुई,उसने सब बदलकर रख दिया हैचीन में तरक्की की रफ़्तार सुस्त पड़ गई है तथा कर्ज़ देश की अर्थव्यवस्था के दोगुने से ज़्यादा हो चुका हैभोजन की कमी,महंगाई,काम पर न जाने पर वेतन रोक लेने का दबाव और इसके बाद भी साम्यवादी सरकार की ज़ीरो कोविड पॉलिसी का बोझ उठाएं मजदूर जब हांफने लगे तो वे बेकाबू हो गए चीन के कई शहरों में लोग अनिवार्य लॉकडाउन को तोड़ कर घरों से निकल आएपुलिस से उनकी झड़प हुई और जनता ने हिंसक प्रदर्शन कर कई पुलिस वाहनों को उलट दियाशी जिनपिंग गद्दी छोड़ो के नारे देश के कई भागों में सुनाई देने लगे हैइन प्रदर्शनों में युवाओं की भागीदारी बड़े पैमाने पर रही है और वे हाथों में पोस्टर लिए सरकार का विरोध करने का साहस दिखा रहे हैइस तरह के कई प्रदर्शन पूरे चीन में देखने को मिल रहे हैं


 

बीजिंग की मशहूर सिंगुआ यूनिवर्सिटी के  छात्रों ने सरकार की नीतियों के विरोध में सभाएं की है और यह बदलाव का बड़ा संकेत हैसाम्यवादी चीन में  सरकार विरोधी किसी प्रदर्शन की अनुमति नहीं है,लेकिन जनता ने तमाम दबावों को दरकिनार करके साम्यवादी सरकार को कोविड नियमों को शिथिल करने पर मजबूर कर दिया है। जबकि कुछ दिनों पहले शी जिनपिंग ने साफ कहा था कि सरकार ज़ीरो कोविड मामलों की अपनी प्रतिबद्धता में कोई ढील नहीं देने वाली है। दुनिया की सबसे बड़ी आबादी वाले देश में कम्युनिस्ट सरकार की नीतियों के विरोध में जनता का सड़कों पर आना अभूतपूर्व घटना है और इससे लोकतंत्र समर्थक उत्साहित हो सकते है।


 

 

वहीं पिछले तीन वर्षों में कोविड के दौरान चीन के लोग सरकार की अधिनायकवादी नीतियों से इतने त्रस्त हो गए है कि उन्हें विरोध पर उतरने को मजबूर होना पड़ा है। शी जिनपिंग की मजबूत और शक्तिशाली छवि के चलते अधिकारियों में उनके प्रति निष्ठा साबित करने की होड़ लग गई और इसका असर करोड़ों लोग भोगने को मजबूर कर दिए गएचीन की नौकरशाही शी जिनपिंग के शासन में ज़्यादा केंद्रीकृत है,मतलब लोगों को सरकार के साथ ही अधिकारियों के तानाशाही रवैये को भी झेलने को मजबूर होना पड़ता हैकोरोना के कहर से लाखों लोग मारे जा चुके है और  करोड़ों इससे प्रभावित हो रहे है लेकिन इसका सही आंकड़ा दुनिया के सामने अभी तक नहीं आ पाया है,इसका प्रमुख कारण चीन में मीडिया पर सख्त पाबंदी हैकोरोना वायरस के फैलने से देश की बदनामी और अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाले संकट को रोकने के मद्देनजर साम्यवादी सरकार ने जो कदम  उठायें है वह मानवीयता को शर्मसार करते है देश में लोगों की अचानक मौतों पर कोई विश्वनीय आंकड़ा सामने नहीं आया।  प्रसिद्द मीडिया और डेटा कंपनी ब्लूमबर्ग ने कोरोना वायरस से प्रभावित और मरने वाले लोगों पर चीन के अधिकारिक आंकड़ों को लेकर संदेह जताया था  इन सबके बीच चीन ने उस डॉक्टर को अपना निशाना बनाया था जिन्होंने इस वायरस  के भयावह प्रभावों को लेकर प्रशासन को आगाह किया थाचीनी नागरिक पत्रकार चेन कुशी वुहान से कोरोना पर रिपोर्टिंग कर रहे थे और वे अचानक गायब हो गए2019 में चीन के सबसे अमीर व्यक्ति जैक मा ने सरकार की खुलेआम आलोचना की थी,लेकिन इसके कुछ दिन बाद वो रहस्यमय तरीके से ओझल हो गएकई महीने बाद वो फिर सामने आए और चुप्पी साध ली। ऐसा उन्हें कम्युनिस्ट पार्टी के दबाव में करने को मजबूर होना पड़ा।  

 


चीन की शासन प्रणाली समाजवादी गणराज्य है। आधुनिक चीन को लोकतंत्रीय गणराज्य बनाने की बात तो कही गई थी किन्तु एकदलीय शासन व्यवस्था के कारण यहां वास्तविक लोकतंत्र की स्थापना नहीं हो पायी। वास्तविक लोकतंत्र की मांग के लिए 1989 में थियानमेन चौक पर प्रदर्शन कर रहे सैकड़ों लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया था। चीनी नेता ली जियाओबा ने चीन में लोकतंत्र की स्थापना के लिए आंदोलन चलाया तो उन्हें साम्यवादी सरकार ने जेल में डाल दिया। 2010 में नोबल शांति पुरस्कार से सम्मानित ल्यू शियाबों लोकतांत्रिक अधिकारों के समर्थक चीन के ऐसे नागरिक  माने जाते थे जो जीवनभर साम्यवादी नीतियों के मुखर आलोचक रहे और उसके अत्याचारों से जूझते रहे लेकिन उनका यह विश्वास अटल रहा कि चीन के नागरिक एक दिन साम्यवाद की हिंसक,आक्रामक और असभ्यता से मुक्ति पा लेगा

 


वर्तमान राष्ट्रपति शी जिनपिंग चीन में माओत्से तुंग के बाद सबसे शक्तिशाली नेता हैं। आधुनिक चीन के इतिहास में सबको पीछे छोड़कर लगातार तीसरी बार चीन के सर्वोच्च नेता चुने गए शी जिनपिंग  अपनी आर्थिक नीतियों की तारीफ़  करते नहीं थकते जबकि आम आदमी की स्थिति बहुत खराब है देश में बेरोज़गारी बढ़ रही है और कोविड लॉकडाउन के चलते अर्थव्यवस्था प्रभावित हुई है वर्ल्ड बैंक का अनुमान है कि चीनी अर्थव्यवस्था की तरक्की दर एशिया प्रशांत क्षेत्र के बाकी हिस्से के मुक़ाबले पीछे रह जाएगी ऐसा भी नहीं है कि चीन की अर्थव्यवस्था के पिछड़ने का कारण कोविड ही है दरअसल शी जिनपिंग कूटनीतिक मोर्चे पर भी लगातार असफल हो रहे है पड़ोसी देश भारत से लगातार तनाव,ताइवान को दबा कर रखने की कोशिशें,हांगकांग में लोकतन्त्र समर्थकों के प्रदर्शन,हिन्द महासागर में वैश्विक चुनौतियां,युक्रेन युद्द में रूस के समर्थन से यूरोप और अमेरिका की नाराजगी के दूरगामी परिणाम आर्थिक मोर्चे पर नजर आने लगे है चीन में काम की तलाश में लोग शहरों का रुख़ कर रहे हैं जिससे बच्चे और बुज़ुर्ग गरीब ग्रामीण इलाक़ों में पीछे छूट रहे हैं

 


अब चीन में सरकार के खिलाफ जिस प्रकार के प्रदर्शन हो रहे है,वैसे बीते कई दशकों में नहीं देखे गए है। लोगों का गुस्सा इस बात को लेकर भी है कि  अगर सरकार ज़ीरो-कोविड के ज़रिए जिंदगी बचाना चाहती थी तो उसे दूसरे देशों की तरह वैक्सीनेशन को ज़ोरदार तरीक़े से लागू करना चाहिएलेकिन चीन वैक्सीनेशन को बढ़ावा देने या वैक्सीन का आयात करने से इनकार करता है जबकि चीन में बनी वैक्सीन बहुत प्रभावी साबित नहीं हुई है

 


ज़ीरो-कोविड को लेकर सरकार विरोधी प्रदर्शन आगे चलकर धार्मिक आज़ादी की ओर भी मुड सकता हैचीन में लाखों बौद्ध,मुसलमान और ईसाई रहते हैं। इस साम्यवादी देश में धार्मिक स्वतंत्रता का वादा तो किया गया है,लेकिन इस स्वतंत्रता पर पाबंदियां भी लगाई हैंजब से शी जिनपिंग सत्ता में आए हैं तब से धार्मिक संस्थाओं के ख़िलाफ़ सरकार का बर्ताव सख्त हो गया है शिनचियांग प्रांत में रमजान के महीने में रोज़े रखने और दाढ़ी रखने पर प्रतिबंध लगाए गए वहींचर्च तोड़ दिए या उन पर लगे क्रॉस को हटा दिया। धार्मिक और मानवाधिकारों को लेकर वैश्विक संस्थाएं चीन पर हमलावर रही है।  अब चीन में कम्युनिस्ट पार्टी का जिस प्रकार विरोध हो रहा है उससे धर्म और मानवाधिकार समूहों के भी खुलकर आगे आने की संभावनाएं बढ़ गई है।

brahmadeep alune

पुरुष के लिए स्त्री है वैसे ही ट्रांस वुमन के लिए भगवान ने ट्रांस मेन बनाया है

  #एनजीओ #ट्रांसजेंडर #किन्नर #valentines दिल्ली की शामें तो रंगीन होती ही है। कहते है #दिल्ली दिलवालों की है और जिंदगी की अनन्त संभावना...