स्वदेश पाकिस्तान की मदरसा शिक्षा का प्रभाव
किसी दौर में धार्मिक कट्टरता को लेकर पूरी दुनिया में पहचाने जाने वाला सऊदी अरब बदलाव की राह पर है। महिलाएं अकेली यात्रा कर सकती हैं,कार चला सकती हैं। अब यहां सिनेमा हॉल भी खुल रहे है और चेहरा ढंकने की सख्ती को भी शिथिल कर दिया गया है। महिला शिक्षा को लेकर सऊदी अरब में उदारता देखी जा रही है।
इस्लामिक शिक्षा के हिमायती इस देश का विश्वास है कि पैगंबर मोहम्मद साहब की पत्नी आईशा बीबी इस्लामिक नियमों की सबसे बड़ी ज्ञाता थी और मोहम्मद साहब के गुजर जाने के बाद पांच दशक तक इस्लाम के नियमों का प्रचार प्रसार और लोगों की शंकाओं का निवारण किया था। पैगम्बर मोहम्मद साहब की शिक्षाओं में गैर बराबरी को खत्म कर सभी के लिए शिक्षा को अनिवार्य बताया गया है। इस्लाम को मानने वालो के लिए मोहम्मद साहब की शिक्षाएं सही मार्गदर्शक है लेकिन कई इस्लामिक देशों में मुस्लिम धर्मगुरुओं की इस्लामिक नियमों को लेकर भिन्न भिन्न व्याख्याएं असमानता को बढ़ाने वाली है और इसका खामियाजा इस्लाम को मानने वाली करोड़ों महिलाओं को भोगना पड़ रहा है। सऊदी अरब के पड़ोसी देश शिया बाहुल्य ईरान में इस्लामिक क्रांति के बाद आए परिवर्तनों को लेकर महिलाओं में बड़ी बैचेनी है। महिलाओं के विरुद्ध सभी प्रकार के भेदभावों के उन्मूलन पर संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन 1979 को जब 189 देशों द्वारा अनुमोदित किया गया उसी समय ईरान में इस्लामिक क्रांति हुई और महिला अधिकारों को कुचल दिया गया। यह वह समय था जब ईरान वैश्विक मंच पर संयुक्तराष्ट्र संघ के उन प्रावधानों के पक्ष में हामी भर रहा था जिसमें संपूर्ण विश्व में महिलाओं के अधिकारों को बढ़ावा देने में सहायता की बात कहीं गई थी। जबकि इस्लामिक क्रांति के बाद मध्यपूर्व का यह इस्लामिक देश पूरी तरह बदल गया। महिलाओं के हिजाब पहने का तरीका सुनिश्चित कर दिया गया,फुटबाल के लिए जूनून से भरे इस देश में महिलाओं के स्टेडियम जाने पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। ईरान में,शादी से पहले कौमार्य कई लड़कियों और उनके परिवारों के लिए बेहद अहम है। कई बार पुरुष वर्जिनिटी सर्टिफ़िकेट (कौमार्य का प्रमाण पत्र) मांगते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक वर्जिनिटी टेस्ट का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है ये अनैतिक है। फिर भी दुनिया के कई देशों में ये प्रचलित है,इनमें इंडोनेशिया,इराक़ और तुर्की भी शामिल हैं। ईरान में घरेलू हिंसा को पारिवारिक मामला समझा जाता है,लिहाजा अधिकांश महिलाएं घरेलू हिंसा को चुपचाप सहने को मजबूर है। ऑनर किलिंग को लेकर कोई पुलिस कार्रवाई नहीं की जाती। यहां तक की ईरान में धार्मिक पुलिस को व्यापक अधिकार दे दिए गए है,इसी का नतीजा है ईरान में महिलाओं और युवाओं का हालिया प्रदर्शन। 22 साल की महसा अमीनी की मौत के बाद ईरान में देशव्यापी विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं। महसा को कथित तौर पर हिजाब पहनने के नियम के उल्लंघन के लिए पुलिस हिरासत में लिया गया था। बाद में उनकी मौत हो गई। महसा को तेहरान में हिजाब से जुड़े नियमों का कथित तौर पर पालन नहीं करने के लिए गिरफ़्तार किया गया था।
इसे लेकर देशभर में धार्मिक पुलिस की सख्ती के खिलाफ विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं। प्रदर्शनकारियों का कहना है कि अगर आज उन्होंने विरोध नहीं किया तो कल कोई और इसका शिकार हो सकता है। 1979 की क्रांति के बाद से ही ईरान में सामाजिक मुद्दों से निपटने के लिए धार्मिक मामलों पर नजर रखने वाली पुलिस कई स्वरूपों में मौजूद रही है। इनके अधिकार क्षेत्र में महिलाओं के हिजाब से लेकर पुरुषों और औरतों के आपस में घुलने-मिलने का मुद्दा भी शामिल रहा है। यह भी दिलचस्प है कि ईरान में महिला अधिकारों के लिए जो प्रदर्शन हो रहे है उसमें पढ़े लिखे पुरुषों की भागीदारी भी है। वे बढ़चढ़ कर इसमें हिस्सा लेते है और महिलाओं को लेकर असमान नियमों का विरोध करते रहे है। हालांकि ईरान में धर्म गुरु की सर्वोच्चता देश के लोकतंत्रीकरण में बड़ी बाधक है और संयुक्तराष्ट्र की कमजोरियां समस्या को बढ़ाती है।
ईरान से लगे अफगानिस्तान में तालिबान की वापसी ने महिलाओं का जीवन
नारकीय बना दिया है। यहां
महिलाओं का भविष्य गर्भ धारण से ही तय हो जाता है और गर्भ से यदि बेटी हुई तो उसका
विवाह के लिए उसे किसी भी उम्र के आदमी को बेच दिया जाता है। मतलब इस देश में 10 से 12 साल की उम्र लडकियों के यौन संबंध के
लिए आदर्श मान ली गई है। अफगानिस्तान
की अधिकांश आबादी ग्रामीण क्षेत्रों में
रहती है,यहां गरीबी,अशिक्षा और पिछड़ापन है। 2001 से 2021 तक महिलाओं को तालिबान शासन से मुक्ति मिली थी और
उनके लिए शिक्षा और उन्नति की जो उम्मीदें जागी थी,वे भी अब खत्म हो गई है। शिक्षा और रोजगार से दूर करने के बाद भी तालिबान ने महिलाओं को
कड़े नियमों से प्रभवित किया है। इनमें घर की दहलीज़ लांघने से पहले ख़ुद को
हिजाब से ढकना और पति या किसी महरम के साथ
ही बाहर निकलना शामिल है।
देश में सहशिक्षा यानी लड़के-लड़कियों को साथ पढ़ने की अनुमति नहीं
है। मानवाधिकारों के लिए काम करने वाली अंतरराष्ट्रीय संस्था एमनेस्टी ने महिलाओं और बच्चों पर अत्याचारों को लेकर तालिबान की कड़ी आलोचना की है। पिछलें दो दशकों में तालीम हसी करके नौकरी पाई महिलाओं से कहा जा
रहा है कि वे अपनी नौकरी अपने पुरुष परिजन को दे दे। इस्लामिक कानूनों के नाम पर महिलाओं
को सरेआम कोड़े मारना या भरे बाज़ार पत्थरों से मारना यहां आम बात है। 8 साल की उम्र
से ही लड़कियों को बुरखे से ढंक दिया जाता है। 1990 के दशक में मुजाहिदीन गुटों की
क्रूरता जैसे हत्या,बलात्कार,अंगों को काटने और अन्य तरह की हिंसक घटनाओं की कहानियां रोज़
आती थी। बलात्कार और जबरन विवाह से बचने के लिए लड़कियां आत्महत्याएं तक कर रही थी।
अफगानिस्तान में अमेरिका द्वारा तालिबान को सत्ता से बेदखल करने के बाद 2004 में देश का नया संविधान बना था। वहां महिलाओं को
समान अधिकार का प्रावधान रखा गया। महिलाओं को कई क्षेत्रों में आरक्षण दिया गया। संसद
में 27 प्रतिशत आरक्षण था। औरत,अल्पसंख्यक और पिछड़ों को आगे बढ़ाने की जागरुकता
भी साफ़ दिखाई देती थी। महिलाएं आगे आईं और देश का माहौल बदलने लगा था। लेकिन एक
बार तालिबान शासन से महिलाओं का जीवन अंधकार में धकेल दिया है।
दरअसल
इस्लामिक कानून का लागू होना इस बात पर पूरी तरह से निर्भर करता है कि जानकारों के
गुण और उनकी शिक्षा कैसी है। अधिकांश धार्मिक
गुरु पाकिस्तान के कट्टरपंथी मदरसों में शिक्षा पाते है और वे समावेशी विचारधारा
को छोड़कर असमानता को पोषित करते है। यही कारण है कि
पाकिस्तान के मदरसों से प्रभावित इस्लामिक धर्म गुरु जिस भी देश में जाते है वहां
महिलाओं पर अत्याचार बढ़ जाते है। महिलाओं की जिंदगी
नर्क बना दी जाती है और उनकी बेबसी,लाचारी और मजबूरियां बंद दरवाजे के पीछे कराहने
की आशंका भी बढ़ जाती है। इन महिलाओं में दमन का विरोध करने का सामर्थ्य नहीं होता
और जो आवाज उठाते है उन्हें युसूफ मलालाजई जैसे गोली मार दी जाती है या 20 साल की हदीस नफाजी की तरह हत्या कर दी जाती है। पाकिस्तान के आतंकी प्रशिक्षण केन्द्रों और मदरसों का प्रभाव
एशिया से निकलकर अफ्रीका के कई देशों को भी अपनी जद में ले रहा है,इसका असर
महिलाओं पर हिंसा के रूप में सामने आ रहा है।