जनसत्ता
स्वतंत्र,खुले और समृद्ध हिंद-प्रशांत क्षेत्र की परिकल्पना अब चीन के भू रणनीतिक और भू आर्थिक प्रतिरोध का पर्याय बन गई है। अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में सामूहिक सुरक्षा का सैद्धांतिक सम्बन्ध सैन्य सहयोग और शस्त्रीकरण पर आधारित रहा है,जहां आक्रमण,आक्रमण का प्रतिकार और अंतर्राष्ट्रीय संघर्ष को रोकने की प्रतिबद्धताएं अहम रही है। अब चीन के आर्थिक उभार ने रणनीतिक प्रतिद्वंदिता के प्रचलित सिद्धांतों को पूरी तरह से बदल दिया है। अमेरिका चीन के वैश्विक स्तर पर बढ़ते प्रभाव को नियंत्रित और संतुलित करने के लिए मजबूत आर्थिक और कारोबारी नीतियों पर आधारित व्यवस्था को तरज़ीह दे रहा है। इसके केंद्र में हिन्द प्रशांत महासागर का क्षेत्र है जो व्यापारिक,आर्थिक,प्राकृतिक और मानव संसाधन की दृष्टि से बेहद प्रभावकारी है।
भौगोलिक तौर पर हिंद महासागर और प्रशांत महासागर के कुछ भागों को मिलाकर समुद्र का जो हिस्सा बनता है उसे हिंद-प्रशांत क्षेत्र के नाम से जाना जाता है। यह व्यापारिक आवागमन का प्रमुख क्षेत्र है तथा इस मार्ग के बन्दरगाह सर्वाधिक व्यस्त बन्दरगाहों में शामिल है। हिंद-प्रशांत क्षेत्र से लगे 38 देशों में दुनिया की करीब 65 फीसदी आबादी रहती है। आसियान की आर्थिक महत्वाकांक्षी भागीदारियां,असीम खनिज संसाधनों पर चीन की नजर,कई देशों के बन्दरगाहों पर कब्जा करने की चीन की सामरिक नीति तथा क्वाड की रणनीतिक साझेदारी इस क्षेत्र के प्रमुख राजनैतिक और सामरिक प्रतिद्वंदिता से जुड़े मुद्दे रहे है।
इन सबके बीच दुनिया के बाज़ार में चीनी उत्पादों की आपूर्ति अबाध तरीके से हो रही है,एशिया,अफ्रीका और यूरोप के कई देश चीन की ब्रेड और बटर की नीति का भाग बन गए है। वैश्वीकरण की दीर्घकालीन और प्रभावकारी आर्थिक नीतियों का फायदा उठाकर चीन ने अपनी सामरिक क्षमता का भी अभूतपूर्व विकास कर लिया है। पिछले कुछ वर्षों में चीन ने यूरोप के कई देशों को व्यापारिक और सहायता कूटनीति के जरिए राजनीतिक और आर्थिक रूप से प्रभावित किया है। इस समय दक्षिण पूर्वी यूरोप में चीन ने अपना आर्थिक प्रभाव तेजी से स्थापित किया है,यह क्षेत्र अमेरिका और यूरोप के लिए सुरक्षा की दृष्टि से भी बेहद महत्वपूर्ण है। बाल्कन प्रायद्वीप यहीं स्थित है जो पश्चिम में एड्रियाटिक सागर,भूमध्य सागर और दक्षिण में मरमरा सागर और काला सागर से घिरा हुआ है। चीन नए सिल्क रोड के जरिए इस क्षेत्र के देशों में न केवल अपना रुतबा बढ़ा रहा है बल्कि कर्ज कूटनीति से उसने कई देशों पर अपना प्रभाव भी जमा लिया है। कई देशों के बंदरगाह निर्माण में चीनी कम्पनियों की बड़ी भूमिका है। कर्ज के नाम पर चीन इन देशों में अपने सैन्य अड्डे बना सकता है और यह यूरोप की सुरक्षा की एक बड़ी चुनौती के रूप में भी सामने आ सकता है।
चीनी प्रभाव के अभूतपूर्व वैश्विक खतरों से निपटने के लिए अमेरिका हिन्द प्रशांत क्षेत्र में संभावनाएं निरंतर तलाश रहा है। इस क्षेत्र में चीन को घेर कर वह उसकी आर्थिक और सामरिक क्षमता को कमजोर करना चाहता है। अमेरिका को लगता है कि चीन को नियंत्रित और संतुलित करने के लिए एशिया को कूटनीति के केंद्र में रखना होगा और इस नीति पर बराक ओबामा,ट्रम्प के बाद अब बाइडेन भी आगे बढ़ रहे है। अमेरिका रणनीतिक भागीदारी के साथ आर्थिक और कारोबारी नीतियों पर आगे बढ़ना चाहता है। इसीलिए क्वाड के बाद अब अमेरिका ने इंडो-पैसिफिक इकनॉमिक फ्रेमवर्क की रणनीति पर आगे बढ़ने की बात कहीं है जिसमें व्यापारिक सुविधाओं के साथ आपसी सहयोग को बढ़ाना है।
यह
देखा गया है कि चीन रणनीतिक रूप से जहां भी मजबूत होता है,अमेरिका के लिए वह
चुनौतीपूर्ण समझा जाता है और इंडो-पैसिफिक इकनॉमिक फ्रेमवर्क को भी इसी दृष्टि से
देखने की जरूरत है। ओबामा काल में अमेरिका की
एशिया केंद्रित नीति में जापान,दक्षिण
कोरिया,थाईलैंड,फिलीपींस और ऑस्ट्रेलिया के
सहयोग से चीन को चुनौती देने की प्रारंभिक नीति पर काम किया गया था। ओबामा ने एशिया में अपने
विश्वसनीय सहयोगी देशों के साथ ही उन देशों को जोड़ने की नीति पर भी काम किया जो
चीन की विस्तारवादी नीति और अवैधानिक दावों से परेशान है। इन देशों में भारत समेत इंडोनेशिया,
ताइवान,मलेशिया,म्यांमार,ताजीकिस्तान,किर्गिस्तान,कजाकिस्तान,लाओस
और वियतनाम जैसे देश शामिल है। इनमें कुछ देश दक्षिण चीन सागर पर चीन के अवैध दावों को चुनौती देना
चाहते है और कुछ देश चीन की भौगोलिक सीमाओं के विस्तार के लिए सैन्य दबाव और
अतिक्रमण की घटनाओं से क्षुब्ध है।
चीन को रोकने के लिए क्वाड का एक मजबूत
रणनीतिक साझेदारी के तौर पर विकास तो हुआ लेकिन इसके परिणाम अभी तक प्रभावकारी
नहीं रहे है। क्वाड
को लेकर चीन सख्त रहा है और वह इसे एशियाई नाटो कहता रहा है। वहीं चीन एशिया में अमेरिका के
प्रभाव को कम करने के लिए आर्थिक मोर्चे पर मजबूत नजर आता है। अमेरिका की इंडो-पैसिफिक
इकनॉमिक फ्रेमवर्क की नई रणनीति प्रभावकारी तो लगती है लेकिन इसमें विरोधाभास भी
कम नहीं है। एशिया के विभिन्न देशों को लामबंद करके आर्थिक सहयोग को लेकर अमेरिका
के प्रमुख सहयोगी ऑस्ट्रेलिया,जापान और दक्षिण कोरिया चीन के साथ पहले से ही मिलकर
काम कर रहे है।
इसमें से एक है आरसीईपी। आसियान देशों के मुक्त व्यापार समझौते आरसीईपी यानी रीजनल कॉम्प्रिहेंसिव इकोनॉमिक पार्टनरशिप को विश्व का सबसे बड़ा व्यापार समझौता कहा जाता है। विश्व की 30 फ़ीसदी आबादी का प्रतिनिधित्व करने वाला यह मंच एशियाई देशों के बीच निवेश बढ़ाने,आयात करों में कमी कर और सदस्य देशों की अर्थव्यवस्था को साथ लाने को कृतसंकल्पित होकर लगातार सहयोग पर आधरित व्यवस्था को पुख्ता कर रहा है। आरसीईपी चीन का पहला बहुपक्षीय मुक्त व्यापार समझौता है जिसमें दक्षिण कोरिया और जापान शामिल हैं। इन दोनों देशों से सामरिक तौर पर चीन के गहरे विवाद है। पूर्वी चीन सागर में शेंकाकू आइलैंड को लेकर चीन और जापान के बीच विवाद है,चीन ने इस आइलैंड में 2012 से अपने जहाज और विमान भेजना शुरू किया और तब से ही जापान और चीन के बीच विवाद बढ़ गया है। चीन जापान विवाद के बीच अमेरिका जापान को खुला और मुखर समर्थन दे रहा है,जापान और अमेरिका के बीच साल 2004 में प्रक्षेपात्र रक्षा प्रणाली के संबंध में समझौता भी हुआ था। जापान की नई रक्षा नीति में दक्षिणी द्वीपों को प्राथमिकता देते हुए वहां सैनिकों की संख्या में भारी बढ़ोत्तरी की गई है,यह दक्षिणी द्वीप चीन के निकट है। अमेरिका के द्वारा जापान को भारत तथा ऑस्ट्रेलिया के साथ बेहतर संबंध रखने को प्रेरित किया जा रहा है जिससे चीन को नियंत्रित किया जा सके। चीन के उत्तर पूर्व में उत्तर कोरिया है तथा पूर्व में जापान है। कोरियाई प्रायद्वीप में चीन और उत्तर कोरिया को नियंत्रित करने के लिए अमेरिका सैन्य कार्रवाई के लिए तैयार है। दक्षिण कोरिया की 1953 से अमरीका के साथ रक्षा संधि है और दक्षिण कोरिया में अठ्ठाइस हजार से ज्यादा अमरीकी सैनिक और युद्धपोत नियमित रूप से वहां तैनात रहते हैं। मिसाइलों से लैस यूएसएस मिशीगन विमानवाहक युद्धपोत कार्ल विंसन भी वहां खतरे से निपटने के लिए तैयार है। आरसीईपी में अमेरिका के मित्र देश न्यूजीलैंड और ऑस्ट्रेलिया भी शामिल है।
अमेरिका
की चुनौतियां कम नहीं है।
अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा की पहल पर ट्रांस-पैसिफिक पार्टनरशिप नाम का आर्थिक
गठबंधन चीन का मुकाबला करने के लिए एशिया में शुरू किया गया था। 2017 में डोनाल्ड ट्रंप ने इस समझौते को बेकार बताकर अमेरिका को बाहर निकाल लिया
था। जिसके बाद जापान के नेतृत्व में इसे सीपीटीपीपी का नाम दिया गया। इस व्यापक और प्रगतिशील
ट्रांस पैसिफिक पार्टनरशिप में चीन शामिल होना चाहता है।
व्यापारिक मुद्दों पर अमेरिका और जापान में गहरें मतभेद सामने आते रहे है। चीन सीपीटीपीपी के सभी सदस्यों के
साथ गहरे व्यापारिक संबंध साझा करता है और कई देशों के साथ उसके मुक्त व्यापार
समझौते भी हैं। अधिकांश सदस्य आरसीईपी के माध्यम से भी चीन से जुड़े हुए हैं।
अब अमेरिका यह विश्वास दिला रहा है कि एशिया के दो कारोबारी ब्लॉक सीपीटीपीपी और
आरसीईपी के उलट आईपीईएफ़ में टैरिफ की दरें कम होंगी। इस
फ्रेमवर्क के तहत अमेरिका सप्लाई चेन की मज़बूती और डिजिटल इकोनॉमी पर रणनीतिक
सहयोग चाहता है। यह भी दिलचस्प है कि आईपीईएफ़
में सहयोग के खुलेपन को लेकर अमेरिका ने कोई स्पष्ट योजना नहीं रखी है। जबकि चीन
मुक्त हस्त से सहयोग की नीति पर निरंतर काम कर रहा है। आईपीईएफ़ में कुल 13 देश है,जिसमे अमेरिका,ऑस्ट्रेलिया,ब्रूनेई,भारत, इंडोनेशिया,जापान,दक्षिण
कोरिया,मलेशिया,न्यूज़ीलैंड,फिलीपींस,सिंगापुर, थाईलैंड और वियतनाम शामिल हैं। इसमें से अधिकांश देशों के बाज़ार पर चीन का गहरा
प्रभाव है।
बाइडन प्रशासन यह स्वीकार कर चूका है कि चीन ही आर्थिक,राजनयिक,सैन्य
और तकनीकी दृष्टिकोण से उसका संभावित प्रतिद्वंद्वी है जो स्थिर और खुली अंतरराष्ट्रीय
व्यवस्था की निरंतर चुनौती से पार पाने में सक्षम है। चीन रूस के मुकाबलें कही बेहतर प्रतिद्वंदी
बनकर अमेरिका के सामने आ रहा है और बाइडन इससे निपटने के लिए मुख्य रूप से यूरोप के बाद हिंद प्रशांत क्षेत्र से जुड़े देशों की ओर
देख रहे है। चीन को रोकने के लिए बनाया गया क्वाड में
यूक्रेन को लेकर मतभेद सामने आ चूके है,यहां भारत रूस को लेकर क्वाड के अन्य
सदस्यों से प्रभावित नहीं रहा। भारत
के इस रुख पर अमेरिका असहज रहा है। अब बाइडन भारत को साथ रखकर आईपीईएफ़ में भागीदारी बढ़ाना चाहते है। यहां पर पर्यावरण और सब्सिडी जैसे मुद्दों पर भारत और अमेरिका
के बीच सामंजस्य मुश्किल नजर आता है।
वहीं आईपीईएफ़ के सदस्य देश इंडोनेशिया,ऑस्ट्रेलिया,दक्षिण कोरिया और जापान सामरिक
चुनौतियों के बाद भी चीन से आर्थिक सम्बन्ध खत्म कर दे यह न तो व्यावहारिक रूप से
संभव है और न ही आर्थिक हितों की दृष्टि से मुमकिन है।
जाहिर है चीन को रोकने के लिए दीर्घकालीन आर्थिक और सामरिक
रणनीति पर काम करने की जरूरत है,इसके लिए अमेरिका को न केवल अपने मित्र और सहयोगी
देशों का भरोसा जीतना होगा बल्कि समान हितों पर आधारित व्यवस्थाओं पर आगे बढना
होगा। भारत अपनी सामरिक और भौगोलिक चुनौतियों के चलते न तो रूस का विरोध कर सकता
है और न ही जापान अपने आर्थिक हितों को बलि चढ़ाकर चीन से आर्थिक संबंधों को खत्म
कर सकता है। वैश्विक व्यवस्थाओं की जटिलता के बीच नाटो और अमेरिका चीन को यूरोप
में नहीं रोक पा रहे है,ऐसे में एशिया में चीन को कमजोर करना एक दिवास्वप्न ही नजर
आता है।