स्वदेश
जवाहर टनल पार करते ही कश्मीरी पंडितों के लिए एक कॉलोनी बसाने का काम जारी है,यह सब सीआरपीएफ की देखरेख में हो रहा है लेकिन यहां रहने के लिए कश्मीरी पंडितों को राजी करना,आसान काम नहीं होगा। इसके क्षेत्रीय,सामाजिक,राजनीतिक और सम्पत्ति के पहलू भी है। अनुच्छेद 370 के हटने के बाद वैधानिक कारण तो मजबूत हुए है पर घाटी की फिजां में घुला हुआ साम्प्रदायिक जहर खत्म करने के लिए अभी लंबा सफर बाकी है।
करीब तीन दशक पहले कश्मीर घाटी कश्मीरी पंडितों से आबाद थी। मन्दिरों की घंटियां गूंजती रहती थी। बारामूला का सोपोर शहर सेब की मंडी के लिए विख्यात है,यहां बहुत सारे कश्मीर पंडित रहा करते थे। 1990 के बाद यहां से घर बार छोड़कर सब जा चूके है। मंदिर तो अभी भी है लेकिन जीर्ण शीर्ण हालात में है,वे लगभग खंडहर बन चूके है। कश्मीरी पंडितों के लिए इस इलाके में आना बेहद मुश्किल हो गया है,इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि करीब 23 साल बाद 2014 में सोपोर के एक मंदिर में पूजा हुई तो इसने पूरे देश का ध्यान खींचा था।
दक्षिण कश्मीर में शायद ही कोई ऐसा गांव हो जहां मन्दिरों की घंटियां सुनाई दे। श्रीनगर से थोड़ी दूर पहाड़ी पर शंकराचार्य का मन्दिर है जिसकी घंटियों की गूंज कभी कभी सीआरपीएफ के कैम्प में सुनाई पड़ती है। आतंकवाद से प्रभावित अनन्तनाग जिले में एक गांव है मट्टन। यहां लगभग एक हजार सिख रहते है,इन सिखों के बीच मुश्किल से कोई पंडित परिवार मिल जाएं। वैसे कई इलाकों में जो कश्मीरी पंडित रहते है उन्हें सिखों का आसरा और सहारा है और सुरक्षा भी उन्हीं की है।
पुलवामा के पास ज्वालादेवी मन्दिर है,कश्मीरी पंडितों की यह इष्टदेवी मानी जाती है। कभी यह मन्दिर पूजा-पाठ,हवन और धार्मिक कार्यक्रमों की पहचान हुआ करता था,अब यह मन्दिर खंडहर है और यहां सीआरपीएफ के जवान सिर झुकाते नजर आते है। विख्यात त्रिपुरसुन्दरी का मन्दिर भी तोड़ दिया गया है, कुलगाम के पास देवसर गांव में स्थित इस मन्दिर को कट्टरपंथियों ने तोड़ दिया था। अनन्तनाग के पास लकड़ीपोरा गांव का भवानीमंदिर भी वीरान है। श्रीनगर के हब्बा कदल इलाके में शीतलेश्वर मन्दिर करीब दो हजार साल पुराना है,यहां पिछले साल एक पूजा रखी गई थी। करीब तीन दशक बाद इस मंदिर में पूजा का कार्यक्रम रखा गया था। 1990 के बाद घाटी में हालात इतने बद से बदतर हो गए की कश्मीरी पंडितों को अपना सब कुछ छोड़कर यहां से जाना पड़ा था,इसके बाद मन्दिर भी सुनसान हो गए।
तीन दशक बाद कश्मीर घाटी का माहौल बिल्कुल बदल चूका है। विस्थापित कश्मीरी पंडितों की नई पीढ़ी दिल्ली और लखनऊ जैसे शहरों में पली बड़ी है और वे बेहतर भविष्य के लिए बेहतर माहौल चाहते है। बहुत सारे मजबूर परिवार भी है लेकिन कश्मीर घाटी में जिस प्रकार के हालात है,ऐसे में कोई भी जान को जोखिम में डालकर बिल्कुल लौटना नहीं चाहेगा।
कश्मीरी पंडितों के पलायन का 1980 के दशक में अफगानिस्तान की बदलती राजनीतिक स्थिति से भी गहरा सम्बन्ध है।1979 में अफगानिस्तान में तत्कालीन सोवियत संघ की सेना ने प्रवेश किया था,यह अफगान की साम्यवादी सरकार को बचाने की कोशिश थी। इस दौरान अफगानिस्तान से सोवियत सेना को बाहर करने के लिए अमेरिका ने पाकिस्तान का उपयोग फ्रंट लाईन राष्ट्र के रूप में किया था। इसके बदले पाकिस्तान को व्यापक आर्थिक और सामरिक सहायता हासिल हुई।1988 में जिनेवा समझौते के बाद सोवियत सेना तो लौट गई लेकिन अफगानिस्तान में शांति कभी स्थापित नहीं हो सकी। पाकिस्तान ने सोवियत सेना के खिलाफ जिन मुजाहिदीनों को प्रशिक्षित किया था,वे आगे चलकर तालिबान के रूप में सामने आये और उन्होंने हिंसात्मक तरीके से अफगानिस्तान की समूची व्यवस्था को नष्ट कर दिया।
अमेरिकी राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन के कार्यकाल में सीआईए के नेतृत्व में सोवियत संघ को अफगानिस्तान से बाहर निकालने का अभियान शुरू किया गया था। सीआईए ने इस अभियान में पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई और सऊदी अरब को सक्रिय साझीदार बनाया था। तीनों ने मिलकर मुस्लिम देशों से स्वयंसेवकों का चयन, प्रशिक्षण और उन्हें हथियार देकर अफगानिस्तान भेजना शुरू किया था। इसे जिहाद का नाम दिया गया और समूचे मुस्लिम संसार से कट्टरपंथी ताकतों को इस जिहाद में शामिल होने का आह्वान किया गया। यह जिहाद पूरे एक दशक तक चला और इस दौरान अमेरिका पूरी ताकत के साथ पाकिस्तान के पीछे खड़ा रहा। सोवियत रूस अंतत: इस युद्ध में टिक नहीं पाया और उसे 1989 में अफगानिस्तान छोडऩा पड़ा। अमेरिकी मदद से मुजाहिदीनों ने एक अजेय समझी जाने वाली महाशक्ति को करारी शिकस्त दे दी थी। तत्कालीन समय में साम्यवाद को गहरी चोट देने की अमेरिकी नीति कारगर तो रही लेकिन उसके बीज पूरी दुनिया में रक्तपात करेंगे इसकी कल्पना किसी ने नहीं की होगी।
सीआईए की शह पर पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई ने पूरी दुनिया से जिहादियों को साथ लाना,फौजी प्रशिक्षण देना और नियमित तनख्वाह पर अत्याधुनिक हथियारों से लैंस कर अफगानिस्तान भेजने का सिलसिला शुरू किया था। बदलते दौर में भी यहीं भाड़े के जिहादी आज पूरी मुस्लिम दुनिया और खासकर दक्षिण और मध्य एशिया में आतंकवादी गतिविधियों की असली बागडोर संभाले हुए है।
पाकिस्तान ने उन आतंकियों की फौज को तैयार करने के लिए पाकिस्तान के कब्ज़े वाले कश्मीर का सहारा लिया था और यहां कई आतंकी प्रशिक्षण केंद्र बनाएं थे। कश्मीर घाटी में आतंक फ़ैलाने वाले लश्कर-ए-तैयबा,हिजबुल मुजाहिदीन और हरकत-उल-अंसार जैसे आतंकी संगठन यहीं से पनपे।
समय के साथ पाकिस्तान जेहादियों का ऐसा समूह बन गया है जिसे अलकायदा,तालिबान,हरकत उल अंसार और हिजबुल मुजाहिदीन जैसे कुख्यात आतंकी संगठनों का समर्थन प्राप्त है। मुजफ्फराबाद,अलियाबाद,कहुटा,हजीरा,मीरपुर,रावलकोट,रावलपिंडी और गुलाम कश्मीर में अनेक आतंकी प्रशिक्षण केंद्र है। 1993 पाकिस्तान में बने आतंकी संगठन हरकत-उल –अंसार का मुख्यालय मुजफ्फराबाद में है। इसके साथ की इसका एक केंद्र अफगानिस्तान के खोस्त में है। यह कश्मीर के अलावा बोस्निया और म्यांमार में भी सक्रिय है। कुख्यात आतंकी संगठन हरकत –उल –मुजाहिदीन का मुख्यालय पाकिस्तान के सेहसाणा में है। करगिल युद्ध में पाक सेना के साथ इस आतंकी संगठन के आतंकी भी शामिल थे। हिजबुल मुजाहिदीन का केंद्र मुजफ्फराबाद में है। इन आतंकी प्रशिक्षण केंद्र में भर्ती के लिए जिहाद को केंद्र में रखकर नए रंगरूटों के लिए अख़बारों में विज्ञापन सामान्य बात है।
पाकिस्तान के इन कुख्यात आतंकी प्रशिक्षण केन्द्रों में मसूद अजहर की खास भूमिका है। जैश-ए-मोहम्मद यानि अल्लाह की फ़ौज का प्रमुख मौलाना मसूद अजहर पाक का एक प्रमुख आतंकी है। अजहर छह लाख आतंकियों की भर्ती का दावा करता है जिसमें से हजारों कश्मीर में जिहाद के लिए भर्ती किये गये है।इस आतंकी संगठन का तन्त्र दक्षिण एशिया के साथ पश्चिम एशिया अफ्रीका और यूरोप तक फैला हुआ है। कश्मीर का यह आतंकी भारत में आत्मघाती हमलों को अंजाम देने लिए दुनियाभर में कुख्यात है। कट्टरपंथी विचारों वाले ऑडियो कैसेट कश्मीर घाटी में भेज कर युवा वर्ग को अपनी ओर आकर्षित करने की कोशिश करता है।
इन सबके बीच कश्मीर घाटी को कश्मीरी पंडितों के लिए मुश्किल बनाने में पाकिस्तान के तानाशाह जनरल जिया-उल-हक की प्रमुख भूमिका रही है जिन्होंने 1980 के दशक में ऑपरेशन टोपैक के जरिए कश्मीर घाटी को रक्त रंजित करने की व्यापक योजना को अंजाम दिया था। जिया उल हक का आमने सामने के युद्द में भारत से नहीं जीता जा सकता अत: छद्म युद्द का सहारा लेना चाहिए। इसी योजना के अनुसार कश्मीर घाटी में धार्मिक कट्टरपंथ को भड़काया गया। जिया उल हक ने अफगानिस्तान के आतंकियों की घाटी में व्यापक घुसपैठ कराकर कश्मीरी पंडितों को निशाना बनाने का षड्यंत्र रचा। इस दौरान कट्टरपंथी ताकतों को भी बढ़ावा दिया गया। घाटी की मस्जिदों में पाकिस्तान से आएं मौलवी की तकरीरों ने जहर घोलने का काम किया और इस प्रकार देखते ही देखते घाटी की फिजां में साम्प्रदायिक जहर घोल दिया गया।
कश्मीर घाटी में रहने वाली नयी पीढ़ी उसी साम्प्रदायिक माहौल में पली बड़ी है और उनके लिए कश्मीरी पंडितों के प्रति सहिष्णुता का भाव लाना इतना आसान नहीं है। कश्मीर की क्षेत्रीय राजनीतिक पार्टियां भी कट्टरपंथी ताकतों के प्रभाव में है अत: वे भी कश्मीरी पंडितों की घर वापसी को लेकर कभी संवेदनशील नहीं दिखाई पड़ती।
इन सबके
साथ कश्मीरी पंडितों की सम्पत्ति पर हुए कब्ज़े को खत्म करना आसान नहीं होगा। यह समस्या कश्मीर ही नहीं बल्कि
पाकिस्तान और बांग्लादेश में रहने वाले हिन्दुओं की भी है। तकरीबन पचहत्तर साल पहले 1946 में लक्ष्मी पूजन के दिन नोआखाली में भीषण साम्प्रदायिक दंगे शुरू हुए थे। उस समय जिन्ना के डायरेक्ट एक्शन डे से सबसे
ज्यादा प्रभावित इस क्षेत्र में हजारों हिन्दुओं का कत्लेआम कर दिया गया था।
1946 में नोआखाली मुस्लिम बहुल था,लेकिन
ज़मींदारों में हिंदुओं की संख्या अधिक थी। उस समय यह माना गया था कि नोआखाली में एक सुनियोजित दंगा था,जिसका लक्ष्य हिंदुओं को भगाकर उनकी संपत्तियों पर क़ब्ज़ा
करना था। इस समय भी बांग्लादेश में हालात मिले
जुले और समान नजर आते है।
बंग्लादेश के नोआखाली समेत जेसोर,देबीगंज,राजशाही,मोईदनारहाट,शांतिपुर,प्रोधनपारा,आलमनगर,खुलना,राजशाही,रंगपुर और चटगांव जैसे अहम इलाकों से हिंदू पलायन अब भी जारी है। ढाका यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर डॉ.अबुल बरकत का एक शोध 2016 में सामने आया था जिसके अनुसार यह दावा किया गया है कि करीब तीन दशक में बांग्लादेश से हिंदुओं का नामोनिशान मिट जाएगा। इस शोध के मुताबिक हर दिन अल्पसंख्यक समुदाय के औसतन 632 लोग बांग्लादेश छोड़कर जा रहे हैं। देश छोड़ने की यह दर बीते 49 सालों से चल रहा है और यदि यही दर आगे भी जारी रही तो अगले 30 सालों में देश से करीब-करीब सभी हिंदू चले जाएंगे। पाकिस्तान और बांग्लादेश से हिन्दुओं के पलायन का प्रमुख कारण सम्पत्ति रही है,जिस पर कब्जा करने के लिए मुस्लिमों द्वारा अक्सर और सुनियोजित रूप से उन्हें निशाना बनाया जाता है।
इन
देशों में हालात इतने खराब है कि अदालत
के निर्णय के बाद भी हिंदुओं का सम्पत्ति को शांतिपूर्ण हस्तान्तरण मुमकिन नहीं
होता। कश्मीर घाटी में भी हालात बहुत अलग नहीं है। यहां के दूरस्थ इलाकों में केंद्र की सरकार और
प्रशासन यदि कश्मीरी पंडितों की सम्पत्ति वापस लौटाने के लिए व्यापक अभियान छेड़ भी
दे। फिर भी चुनौतियां कम नहीं हो सकती। पाकिस्तान की शह पर घाटी में प्रभावी कट्टरपंथी
ताकतें,आतंकवादी संगठन और क्षेत्रीय राजनीतिक दल कश्मीरी पंडितों के लिए स्थितियां
अनुकूल होने देंगे,यह सपना ही नजर आता है।
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