सांध्य प्रकाश
ऑस्कर वाइल्ड ने कहा है कि स्मृति एक ऐसी डायरी
है,जिसे हम सब हमेशा अपने साथ रखते है।
भारतीय राजनीति में अटलबिहारी वाजपेयी की निरपेक्षता सहेजने और सीखने के कई
अवसर देती है। उनके राजनीतिक
मित्र लालकृष्ण आडवाणी अपनी किताब मेरा देश मेरा जीवन में लिखते है कि,लोकतांत्रिक
मूल्यों के प्रति अटलजी की आसक्ति कमाल की थी और यह निष्ठा तब भी बनी रही जब वे
देश के प्रधानमंत्री बन गए।
के.आर.नारायणन के बाद देश के राष्ट्रपति कौन होगे इसे लेकर उनके और अटलजी के बीच
मंथन का किस्सा सुनाते हुए कहते है कि अटलजी चाहते थे कि वे देश के राष्ट्रपति के
रूप में किसी उदात्त हृदय के व्यक्ति
को बनाएं और जो गैर भाजपाई हो और देश में यह सन्देश जाएं की वे सबको साथ लेकर चलने
में विश्वास करते है। अंततः
उन दोनों की सहमति पी.सी.अलेक्जेंडर पर बनी,जो इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के
नजदीकी रहे थे। हालांकि कुछ
कारणों से वे नही बन सके और देश को अब्दुल कलाम मिले लेकिन अटलजी की मंशा बेहद साफ थी।
दरअसल अटलबिहारी
वाजपेयी ने आज़ादी के बाद उस नेहरु युग में संसद में कदम रखा था जब मुद्दों पर
आधारित राजनीति होती थी और कई बार सत्तारूढ़ कांग्रेस के नेता अपनी पार्टी की मुखर
आलोचना करने से नहीं चूकते थे। नेहरु को इससे कोई एतराज भी नहीं था। जाने माने
पत्रकार किंगशुक नाग अपनी किताब अटलबिहारी वाजपेयी ए
मैन फ़ॉर ऑल सीज़न में लिखते हैं कि एक बार नेहरू ने भारत यात्रा पर आए एक ब्रिटिश
प्रधानमंत्री से वाजपेयी को मिलवाते हुए कहा था,इनसे मिलिए। ये विपक्ष के
उभरते हुए युवा नेता हैं,हमेशा मेरी आलोचना करते हैं,लेकिन इनमें मैं भविष्य की
बहुत संभावनाएं देखता हूँ। एक बार एक दूसरे विदेशी मेहमान से नेहरू ने
वाजपेयी का परिचय संभावित भावी प्रधानमंत्री के रूप में भी कराया था। वाजपेयी
के मन में भी नेहरू के लिए बहुत इज़्ज़त थी। बाद में अटलजीने भी उन्हीं मूल्यों का पालन किया। एक बार वे विपक्ष के
नेता होकर भी देश का प्रतिनिधित्व करने सरकार के द्वारा वैश्विक मंच भेजे गए थे और
उन्होंने सहर्ष इसे स्वीकार भी किया था।
लोकतांत्रिक मूल्यों को लेकर उनकी सजगता उनकी लिखी और बोली गई कविताओं और भाषणों में भी प्रतिबिम्बित होती रही। उनका मुद्दों पर आधारित विरोध होता था,वह व्यक्तिगत कभी नहीं बना। द अनटोल्ड वाजपेयी में अटलजी ने कहा कि,जब राजीव गांधी प्रधानमंत्री थे,तब उन्हें पता चला कि मुझे किडनी की दिक़्क़त है। एक दिन उन्होंने मुझे अपने दफ़्तर बुलाया और कहा कि वो मुझे संयुक्त राष्ट्र में भेजे जाने वाले प्रतिनिधिमंडल में शामिल कर रहे हैं। उन्होंने उम्मीद जताई कि मैं इस मौक़े का इस्तेमाल अपने इलाज के लिए करूंगा। मैं न्यूयॉर्क गया,ये एक वजह है,जिसके चलते आज मैं ज़िंदा हूं। वास्तव में अटलजी उदार मन से और सार्वजनिक रूप से कृतज्ञता ज्ञापित करने से कभी पीछे नहीं हटें,फिर चाहे वह उनके राजनीतिक विरोधी क्यों न हो।
अटलजी के जीवन में जब विरोधियों ने साम्प्रदायिकता के आरोप लगाएं तो उन्होंने उसका जवाब भी बेहद शानदार तरीके से दिया था। 1996 के लोकसभा चुनाव के दौरान लखनऊ की सैकड़ों मुस्लिम महिलाओं ने उनकी सफलता के लिए उनकी दाहिनी भुजा पर इमाम-जामिन अर्थात पवित्र ताबीज बांधा था। भारत में साम्प्रदायिक विद्वेष के बहुसंख्यकों पर प्रभाव को लेकर उन्होनें संसद में बेबाकी से सर्वधर्म समभाव को हिन्दू धर्म की जन्म घूंटी बताते हुए कहा था की इस देश में ईश्वर को मानने वाले भी है और ईश्वर को नकारने वाले भी है। यहाँ किसी को सूली पर नही चढ़ाया गया। किसी को पत्थर मारकर दुनिया से नही उठाया गया। ये सहिष्णुता इस देश की मिट्टी में है। ये अनेकान्तवाद का देश है,और भारत कभी मजहबी राष्ट्र नहीं हो सकता।
सुशासन जनतंत्र का मूल आधार है। आज ये अपने तौर तरीकों को लेकर विवादों में भी रहता है। लेकिन अटलजी ने सुशासन की अपनी कोशिशों में दलीय राजनीति को कभी हावी नही होने दिया। सामान्यत सरकारें बदलने के साथ नीतियां भी बदल जाती है लेकिन वाजपेयी अलहदा थे। श्री नरसिम्हा राव ने आर्थिक सुधारों की जो नीति आरम्भ की थी,उसे अटल जी ने जारी रखा। उन्हें इस नीति के सकारात्मक तथ्यों का ज्ञान था। वह उसे इस कारण ख़ारिज नहीं करना चाहते थे कि वह कांग्रेस की आर्थिक नीति थी। अटलजी का इस साहस के दूरगामी परिणाम हुए और अर्थव्यवस्था के सुधार से देश आर्थिक रूप से सम्पन्न हुआ।
अब अटलजी नहीं है और न ही उन जैसी राजनीति करने की किसी में कूबत है या इच्छा। अब पक्ष और विपक्ष वैचारिक लड़ाई के साथ सार्वजनिक मंचों पर अपनी घृणा को उभारने से भी परहेज नहीं करते। लोककल्याण से ज्यादा जातीय और धर्म की राजनीति,व्यक्तिगत आक्षेप और विदेशी जमीन पर भी एक दूसरे की आलोचना करने से कोई परहेज नहीं किया जाता। अब देश में साम्प्रदायिक राजनीति भी की जाती है और लोगों को धर्म के अपमान के नाम पर मार भी दिया जाता है। राष्ट्रीय सुरक्षा के मामलों पर भी पक्ष विपक्ष के नेता बोलने से परहेज करते है। हाल ही में सेना के पूर्व प्रमुखों एडमिरल अरुण प्रकाश,जनरल वेद मलिक और सेवानिवृत मेजर जनरल यश मोर ने धार्मिक उन्माद फ़ैलाने की कोशिशों के साथ अमृतसर के स्वर्ण मंदिर और पंजाब के कपूरथला के एक गुरुद्वारे में गुरु ग्रंथ साहिब के कथित अपमान के मामले में लिंचिंग की निंदा की है। मेजर जनरल यश मोर ने पंजाब में लिंचिंग को लेकर ट्वीट में लिखा है,यह परेशान करने वाला है कि दो लोगों की पंजाब में मज़हब के नाम पर हत्या कर दी गई। हम दूसरा पाकिस्तान बन गए हैं। यह नफ़रत बंद होनी चाहिए नहीं तो हम तबाह हो जाएंगे।
अब नेता अभिव्यक्ति,किताब या लेख का जवाब हिंसा से देने के लिए लोगों को
उकसाते है। अटलबिहारी वाजपेयी ने कहा था कि किसी किताब या
लेख का जवाब दूसरी किताब या लेख हो सकता है। अब लोकतंत्र में न शुचिता है,न ही सादगी और न ही मुद्दों पर आधारित
प्रतिद्वंदिता। जाहिर है क्योंकि अब अटलजी भी नहीं है।
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