राष्ट्रीय सहारा
मै
समाज से पृथक होकर अपनी अस्मिता की तलाश नहीं कर सकता। इसके लिए मुझे प्रत्यक्ष या
अप्रत्यक्ष रूप से भारतीय सभ्यता को अपनाना ही होगा। भारत के संविधान निर्माता यह
भलीभांति जानते और समझते थे कि विविधता का सम्मान करते हुए भी भारतीय सभ्यता ही
भारत और संविधान की पहचान बन सकती है। संविधान की मूल किताब में राम,कृष्ण.भगवतगीता,गंगा,विक्रमादित्य
जैसे चित्र उन आदर्शों और मूल्यों का प्रतिबिम्ब है। संविधान की मूल किताब संसद के
पुस्तकालय में अब भी संग्रहित है।
एक इतिहासकार ने संविधान और मौलिक अधिकारों को लेकर एक दिलचस्प टिप्पणी की थी कि देश की संविधान सभा आम लोगों के मौलिक अधिकारों को उस वक्त तैयार कर रही थी जब मुल्क मौलिक गड़बड़ियों के नरसंहार से होकर गुजर रहा था।
हालांकि आस्था के कठिन प्रश्न पर कोई गलती नहीं हो,इसके प्रति नेता सचेत थे और नेहरु ने उद्देश्य प्रस्ताव के जरिये भारत की भविष्य की तस्वीर को साफ भी किया। यही उद्देश्य प्रस्ताव भारत के संविधान की प्रस्तावना में समाहित है और इसे संविधान की आत्मा भी कहा गया। प्रस्तावना में सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय,विचार,अभिव्यक्ति,विश्वास, प्रतिष्ठा और अवसर की समता,व्यक्ति की गरिमा,धर्म और उपासना की स्वतंत्रता को बनाएं रखने को लेकर प्रतिबद्धता जाहिर की गई है।
भारत विविधता को समेटे हुए है और ऐसे में संविधान का विशिष्ट
रूप भारत की पहचान भी नजर आये इसको लेकर शांति वन में नेहरु की चर्चा एक जाने माने
चित्रकार से हुई और इसके बाद संविधान में वह प्रतिबिम्बित हुआ। संविधान के सभी 22
अध्यायों को ऐतिहासिक और पौराणिक चित्रों और किनारियों से सजाया गया है। इन
चित्रों में भगवान राम,भगवद्गीता का उपदेश,भगवान नटराज का चित्र,महावीर स्वामी,बुद्द,गंगा,मुगल बादशाह अकबर,टीपू सुल्तान,झाँसी
की रानी लक्ष्मीबाई,सिखों
के दसवें गुरु गोविंद सिंह,वैदिक काल में चलाए जा रहे गुरुकुल
के एक प्रतीकात्मक चित्र के साथ राजा
विक्रमादित्य नजर आते है। भारत सार्वभौमिकता से चलता रहा है और यहां यह रचा बसा है। इस देश ने राम
से परस्पर सद्भाव और सामंजस्य सीखा है। मुगलकाल में भी इसे स्वीकार
किया गया।
अकबर ने तो बाकायदा राम सिया के नाम पर एक सिक्का जारी किया
था। चांदी का इस सिक्के पर राम और सीता की तस्वीरें उकेरी गई थी।
जिन्हें हिन्दुस्तान की समझ नहीं,वे यहां से चले जाएं
संविधान
सभा के एक सदस्य आर.वी.धुलेकर ने जब यह कहा...
संविधान
की मूल किताब में उकेरे गए चित्रों से यह साफ हो गया की विविधता को स्वीकार करते
हुए भी भारत को राम राज्य और भारतीय सभ्यता के मूल्यों पर आधारित राष्ट्र के रूप
में अंगीकार किया गया। हिन्दुस्तानी पहचान को लेकर कई बार बहस भी हुई। संविधान सभा
के एक सदस्य आर.वी.धुलेकर ने सबको खरी खरी सुना दी। धुलेकर ने भाषा को लेकर एक
संशोधन प्रस्ताव पेश करते हुए था कि,जो लोग हिन्दुस्तानी नहीं समझते है उन्हें इस
देश में रहने का कोई हक नहीं है। जो लोग भारत का संविधान बनाने के लिए इस सदन में
मौजूद है, लेकिन हिन्दुस्तानी भाषा नहीं समझते वे इस सदन के सदस्य बनने के काबिल
नहीं है। बेहतर है की वे यहाँ से चले जाएँ।
आध्यात्मिकता
पर लौकिकता को तरजीह
धर्मनिरपेक्षता और पंथनिरपेक्षता में मान्यताओं का नहीं बल्कि धर्म के प्रति गहरा वैचारिक मतभेद दिखाई पड़ता है। धर्मनिरपेक्षता राज्य की नीति हो सकती है वहीं पंथ निरपेक्षता में राज्य या व्यवस्थाओं के लिए कोई आदेश नहीं होता। पंथ निरपेक्षता भारतीय शब्द है जिसमें सर्वधर्म समभाव प्रदर्शित होता है। धर्म का संबंध आध्यात्मिकता से स्वत: जुड़ता है और विविध धर्मों में अलग अलग मान्यताएं संघर्ष का कारण बन सकती है। भारतीय संविधान में इसीलिए आध्यात्मिकता पर लौकिकता को तरजीह देते हुए इसे पंथनिरपेक्ष कहा गया। भारतीय संविधान में पंथनिरपेक्षता की सभी अवधारणाएँ विद्यमान हैं अर्थात् हमारे देश में सभी धर्म समान हैं और उन्हें सरकार का समान समर्थन प्राप्त है।
मैं
हिन्दू क्यों हूँ, सलमान खुर्शीद को शशि थरूर का जवाब
हिंदुत्व "रूढ़िवाद" या "नैतिक निरपेक्षता" का एक चरम
रूप नहीं है..
सलमान ख़ुर्शीद की नई किताब 'सनराइज़ ओवर अयोध्या' हाल
ही में बाज़ार में आई है,जिसकी एक लाइन पर विवाद हो रहा है,जिसमें
हिंदुत्व की तुलना आईएसआईएस और बोको हराम से की गई है। खुर्शीद का विरोध कांग्रेस के ही एक नेता गुलाम नबी आज़ाद ने करते हुए कहा कि हिंदुत्व की तुलना आईएसआईएस और जिहादी
इस्लाम से करना तथ्यात्मक रूप से ग़लत और अतिशयोक्ति है। वहीं
हिन्दूवाद को लेकर शशि थरूर अपना नजरिया अपनी किताब में रख चूके है। धर्म आस्था से जुड़ा प्रश्न है,वहीं भारतीयता या इसे हिन्दूवाद
भी कह सकते है,इसके दायरे असीमित है। शशि थरूर ने अपनी किताब मैं हिन्दू
क्यों हूँ,में इसे कुछ इस प्रकार बयाँ किया है,हिन्दूवाद विदेशियों द्वारा भारत के
स्वदेशी धर्म को दिया गया नाम है। इसके दायरे में बहुत से सिद्धांत और धार्मिक
व्यवहार आते है,जो पंथवाद से लेकर अनीश्वरवाद तक और अवतारों में आस्था से लेकर
जातिवाद में विश्वास तक फैले है,परन्तु इनमें से किसी में भी हिन्दू के लिए कोई
अनिवार्य मूलमन्त्र नहीं है। हमारे धर्म में कोई भी हठधर्मिता नहीं है।
गांधी
एक दूसरे के धर्म में दखल देने के खिलाफ रहे
द्वितीय विश्व युद्द के बाद यह अपेक्षा की गई थी की आधुनिक दुनिया मध्यकालीन धार्मिक द्वंद को पीछे छोड़कर समूची मानव जाति के विकास पर ध्यान देगी। लेकिन ऐसा हुआ नहीं और दुनिया भर में आस्था को अंधविश्वास से तथा धार्मिक हितों को व्यक्तिगत सम्मान से जोड़ने की राजनीतिक विचारधाराएँ बढ़ गई,इसके साथ ही सत्ता प्राप्त करने का इसे साधन भी बना लिया गया। महात्मा गांधी इसे लेकर आशंकित तो थे ही। हिन्द स्वराज में महात्मा गांधी ने अपना दृष्टिकोण स्पष्ट करते हुए कहा कि,कोई भी मुल्क तभी एक राष्ट्र माना जाएगा जब उसमे दूसरे धर्मों के समावेश करने का गुण आना चाहिए। एक राष्ट्र होकर रहने वाले लोग एक दूसरे के धर्मों में दखल नहीं देते,अगर देते है तो समझना चाहिए कि वे एक राष्ट्र होने लायक नहीं है।
अदालत
में हिंदुत्व
सुप्रीम कोर्ट की जस्टिस जगदीश शरण वर्मा की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय बेंच ने डॉ. रमेश यशवंत प्रभू बनाम श्री प्रभाकर काशीनाथ कुंटे और अन्य, बाल ठाकरे बनाम श्री प्रभाकर काशीनाथ कुंटे और अन्य और श्री सूर्यकांत वेंकटराव महादिक बनाम श्री सरोज संदेश नाइक केसों में 11 दिसंबर 1995 को अपने फैसले में कहा था कि हिंदुत्व या हिन्दूवाद एक जीवन शैली है और हमें यह देखना होगा कि चुनावी भाषणों में इन शब्द का किस संदर्भ में उपयोग किया गया है।
हिंदुत्व
पर अटलबिहारी वाजपेयी का नजरिया अपनाने की जरूरत
हिंदुत्व भारत की पहचान रही है और वह लोकाचार में दिखाई भी पड़ती है। हिंदुत्ब को राजनीतिक पहचान बनाने की कोशिशों और इसके उभार की आशंकाओं पर अटल बिहारी वाजपेयी ने अपना नजरिया साफ किया था। वाजपेयी ने भारत में साम्प्रदायिक विद्वेष के बहुसंख्यकों पर प्रभाव को लेकर संसद में सर्वधर्म समभाव को हिन्दू धर्म की जन्म घूंटी बताते हुए कहा था की इस देश में ईश्वर को मानने वाले भी है और ईश्वर को नकारने वाले भी है,यहाँ किसी को सूली पर नही चढ़ाया गया। किसी को पत्थर मारकर दुनिया से नही उठाया गया,ये सहिष्णुता इस देश की मिट्टी में है। ये अनेकान्तवाद का देश है,और भारत कभी मजहबी राष्ट्र नहीं हो सकता ।
बहरहाल
हिंदुत्व को समझने वाले,इसे न समझने वाले
और इसका राजनीतिक दोहन करने की कोशिश करने वाले सभी को अटलबिहारी वाजपेयी के
विचारों को ग्रहण करने की जरूरत है। उन्होंने जिस हिंदुत्ब की बात की थी वहीं
संविधान में भी नजर आता है। जरूरत इस बात की है कि उसे समझें,विचारों,व्यवहार और
लोकाचार में उसका पालन सुनिश्चित करें।