गांधी बनाम सावरकर.माफीनामे पर मनमर्जी...! पॉलिटिक्स

 

 पॉलिटिक्स  



                           





 

भारतीय राजनीति में महात्मा गांधी की स्थिति समुद्र में तैरती उस छोटी नाव की तरह है जिसकी सफलता पर सदा कौतूहल बना रहता है।लेकिन वह नाव तमाम झंझावतों से जूझती हुई और थपेड़ों को सहती हुई लंबी दूरी तय कर लेती है और अंततः सफलता अर्जित कर किनारे लगा देती है।आज़ादी के आंदोलन में भी गांधी की स्थिति कुछ ऐसी ही थी इस बूढ़े आदमी को लेकर सब संशय में होते थे लेकिन मंजिल तक पहुँचने के लिए यह बूढा आदमी सबकी जरूरत भी बन गया था। यह भी बेहद दिलचस्प है महात्मा गांधी पर संशय रखने वालों में अंग्रेज,जवाहरलाल नेहरु,सरदार वल्लभभाई पटेल,सुभाषचंद्र बोस,भगत सिंह से लेकर वीर सावरकर जैसे अनगिनत लोग थे। यह बात और है कि अधिकांश को गांधी के लक्ष्य को लेकर कोई संदेह नहीं था,हालांकि कम से कम उसमें सावरकर शुमार नहीं थे।

बहरहाल अप्रत्याशित परिणामों से अपरिहार्य बनने का महात्मा गांधी का सफर बदस्तूर जारी है। इस सफर में रक्षा मंत्री राजनाथसिंह भी शुमार हो गए है और उन्होंने इसमें यह कहकर नया रंग भरने की कोशिश की है कि सावरकर ने ख़ुद को माफ़ किए जाने के लिए महात्मा गांधी  के कहने पर दया याचिका दायर की थी। राजनाथसिंह ने यह किस आधार पर कहा,यह बताना बहुत मुश्किल है। भारतीय राजनीति की यह सच्चाई है कि राजनेताओं को यहां अभिव्यक्ति की पूरी आज़ादी है। आम आदमी या बुद्धिजीवी भले ही नीति नियमों या क़ानूनी दुष्चक्र में फंस जाएं लेकिन नेताओं को नियम कायदों से काफी राहत मिली हुई है या उन्होंने इसे असाधारण तौर अर्जित कर लिया है।


 

गांधी और सावरकर-विचारधाराओं में गहरा अंतर

महात्मा गांधी और वीर सावरकर के जीवन और विचारधारा  में  गहरा फर्क था जो उनके कार्यों में भी प्रतिबिम्बित हुआ। महात्मा गांधी सर्व धर्म समभाव और सार्वभौमिकता के गहरे पक्षधर थे जबकि वीर सावरकर के लिए हिन्दू राष्ट्रवाद में आज़ादी निहित थी। वीर सावरकर ने अपनी किताब 'हिंदुत्व:हू इज़ अ हिन्दू' में स्पष्ट तौर पर लिखा है कि राष्ट्र का आधार धर्म है,हिन्दुस्थान का मतलब हिन्दुओं की भूमि से है।


महात्मा गांधी के उदय के पहले सावरकर की दया याचिका दायर हुई थी

 

वीर सावरकर करीब ढाई दशक तक तक किसी न किसी रूप में अंग्रेज़ों के क़ैदी रहे।11 जुलाई 1911 को सावरकर अंडमान पहुंचे और 29 अगस्त 1911 को उन्होंने अपना पहला माफ़ीनामा लिखा था,तब महात्मा गांधी भारत की आज़ादी के आंदोलन से कहीं दूर दक्षिण अफ्रीका में काले लोगों के हितों के लिए संघर्ष कर रहे थे।


भारत में गांधी मिटटी की मूरत

 

गांधी दुनिया के लिए शांति और अहिंसा के दूत है लेकिन भारत के लिए ऐसा बिल्कुल भी नहीं है। भारत के राजनेताओं और लोगो के लिए गांधी मिट्टी की वह मूरत है जिसे वे मनचाहा आकार देते रहे है,उसके साथ खेलते है और अक्सर तोड़ भी देते है। हालांकि वह मिट्टी बिना किसी का नुकसान किए नये आकार के लिए फिर से तैयार हो जाती है।


 

आलोचना के लिए सदैव तैयार तैयार गांधी

9 जनवरी 1915 को महात्मा गांधी दक्षिण अफ्रीका को छोड़कर हमेशा के लिए भारत आ गए थे। यही से मोहनदास करमचन्द गांधी का महात्मा बनने का सफर शुरू हुआ। वे जब जहाज़ से उतरे थो उन्होंने एक लंबा कुर्ता धोती और एक काठियावाड़ी पगड़ी पहनी हुई थी। यह उनके विचारों को प्रतिबिम्बित कर रहा था। बापू ने भारतीय धरती पर अपने पहले ही कार्यक्रम में यह भी साफ कह दिया था कि,भारत के लोगों को शायद मेरी असफलताओं के बारे में पता नहीं है। आपको मेरी सफलताओं के ही समाचार मिले हैं। लेकिन अब मैं भारत में हूं तो लोगों को प्रत्यक्ष रूप से मेरे दोष भी देखने को मिलेंगें। मैं उम्मीद करता हूं कि आप मेरी गलतियों को नजरअंदाज करेंगे। अपनी तरफ से एक साधारण सेवक की तरह मैं मातृभूमि की सेवा के लिए समर्पित हूं।"


 

नाकामियों के लिए गांधी को जिम्मेदार ठहराने का रिवाज

 

गांधी के सपनों के भारत में राम राज्य था,वह कभी बन न सका और न ही उसकी कोई संभावना दिखाई देती है।गांधी के नजर ग्राम स्वराज पर थी जिससे वे भारत की गरीबी और करोड़ो लोगों की दयनीय स्थिति को दूर करने चाहते थे लेकिन कथित पंचायती राज भी सामन्तवाद के जंजाल से कभी मुक्त न हो सका और गरीबी के खत्म होने की आशाएं भी टूट गई। इन सबके बीच नाकामियों के लिए गांधी को जिम्मेदार ठहराते हुए उनकी आलोचना के कई बहाने ढूंढे और गढ़े जाते है,लेकिन इन सबके लिए गांधी हमेशा तैयार रहते है। उन्हें जीवित रहते भी आलोचनाओं से कोई फर्क न पड़ा और अब उनके अवशेषों को भी इससे ज्यादा सरोकार कहीं नजर नहीं आता।


 

शुद्द रक्त बनाम विशुद्ध भारतीयता

 

गांधी का वैचारिक और जीवन जीने का तरीका शुद्ध भारतीय था जिसमें त्याग.ममता,सत्य,निर्मलता और सहिष्णुता के गुण समाहित रहे।गांधी के प्रति लोगो की आसक्ति भी इसीलिए थी कि वे बेहद आम नजर आते थे और यहीं उन्हें असाधारण बना देता था।अमेरिकी पत्रकार लुइस फिशर ने अपनी पुस्तक महात्मा गांधी - हिज लाइफ एंड टाइम्स में लिखा हैं कि लोगों के छूने से उनके पैर और पिंडली इतनी खुरच जाती थी कि वहां पर गांधी के सहायकों को वेसलीन लगानी  पड़ती थी। गांधी का राम राज्य विविधताओं को एकाकार किए हुए थे,जाहिर है गांधी ने भारत के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के ऊपर बहुलता और सार्वभौमिकता को प्राथमिकता दी थी। गांधी जानते थे कि एक संस्कृति,एक इतिहास,एक धर्म और एक भाषा के आधार  बंधुत्व की बातें कर विविधताओं वाले देश में एकता स्थापित नहीं की जा सकती। पुराने रीतिरिवाज,मूल्यों और मिथकों को याद कर लोगों को जोड़ने से सांस्कृतिक राष्ट्रवाद मजबूत होगा। भाषा,इतिहास,रंग,संस्कृति,साझा विश्वास और मूल्य के आधार पर लोग जुडाव महसूस करेंगे लेकिन यह पूरे भारत की आवाज नहीं हो सकती क्योंकि यह बहुसांस्कृतिक,बहुधार्मिक और बहुभाषाई राष्ट्र है।


 

सांस्कृतिक राष्ट्रवाद में सावरकर का विश्वास

 

महात्मा गांधी की नजर में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का रास्ता आसान और सरल था लेकिन वे जानते थे कि इससे विविधता वाले भारत की आज़ादी का मार्ग नहीं खुल सकता था। यह किसी विशेष क्षेत्र को उद्देलित तो कर सकता था लेकिन समूचे भारत को इसके सहारे जोड़ देना आसान नहीं था। वहीं वीर सावरकर को हिन्दू राष्ट्रवाद का प्रणेता माना जाता है। सावरकर ने मुसलमानों की पुण्यभूमि सुदूर अरब बताया और कहा कि उनकी मान्यताएं,उनके धर्मगुरु,विचार और नायक इस मिट्टी की उपज नहीं हैं। यह गांधी के विचारों से बिलकुल भिन्न था।


धर्म को लेकर गांधी और सावरकर का स्पष्ट वैचारिक स्तर

गांधी की हिन्दू धर्म में गहरी आस्था थी लेकिन वह अपनी आस्था को किसी पर थोपने का प्रयास नहीं करते थे और सभी धर्मों का समान सम्मान करते थे। हिन्द स्वराज में गांधी ने कहा कि,हिंदुस्तान में चाहे जिस धर्म के लोग रह सकते है,इससे यह एक राष्ट्र मिटने वाला नहीं है। जो नए लोग उसमें दाखिल होते है,वे उसकी प्रजा को तोड़ नहीं सकते,वे उसकी प्रजा में घुल मिल जाते है। ऐसा हो,तभी कोई मुल्क एक राष्ट्र माना जायेगा। ऐसे मुल्क में दूसरे लोगों का समावेश का गुण आना चाहिए। हिंदुस्तान ऐसा था और आज भी है।” वहीं सावरकर ने हिन्दू राष्ट्रवाद को लेकर अपनी स्पष्ट सोच को समाज के सामने रखा।


कानून को लेकर अलग समझ

चम्पारण आन्दोलन के दौरान गांधी स्वयं अदालत में उपस्थित हुए। उन्होंने साफ कहा कि,अदालत में गांधी ने कहा, "मैं इस आदेश का पालन इसलिए नहीं कर रहा कि मेरे अंदर कानून के लिए सम्मान नहीं है बल्कि इसलिए कि मैं अपने अन्तःकरण की आवाज को उस पर कहीं अधिक तरजीह देता हूं।" वीर सावरकर उग्र थे,और उन्होंने अंग्रेजी शासन का विरोध भी उग्रता से किया। उनके माफीनामे पर समय समय पर अलग अलग विचार सामने आते है लेकिन वह अंग्रेजी शासन को उखाड़ फेंकने के लिए आजीवन प्रयत्नशील रहे।   

 


वीर सावरकर की देशभक्ति के गहरे रंग

वीर सावरकर की पुस्तक 'द इंडियन वॉर ऑफ इंडिपेंडेंस-1857 चर्चित किताब थी जिसमें उनका स्वरूप धर्मनिरपेक्ष नजर आता है। उन्होंने 6 बार अंग्रेज़ों को माफ़ी पत्र दिए लेकिन यह उनकी देशभक्ति को तोलने का कारण नहीं हो सकता3 जुलाई 1906 को सावरकर ने लन्दन की धरती पर कदम रखा और यहीं से पराधीन भारत को अभिनव भारत में बदलने की शुरुआत हो गई। उनके लंदन पहुंचने से आज़ादी के मतवालों में असीम ऊर्जा का संचार हुआ और इंडियन हॉउस में चैतन्य आ गया। बैरिस्टरशिप को लेकर सावरकर के मन में उत्साह नहीं था,दरअसल वे यूरोप में भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की मसाल जलाकर दुनिया भर में अंग्रेज सत्ता और उपनिवेश के प्रति जागरूकता फैलाना चाहते थेअभिनव भारत एक गुप्त संस्था थी,इसमें युवकों को जोड़ने के लिए उन्होंने फ्री इण्डिया सोसायटी का गठन कियाहर रविवार को इसकी बैठक आयोजित की जाती जिसमे सावरकर का मुख्य उदबोधन होताअपनी संस्कृति,सभ्यता के मूल्यों और स्वराज की उत्कंठा से प्रेरित उनका भाषण युवाओं को अभिभूत कर देताअपने उदबोधन में सावरकर 1857 के संग्राम के वीरों के चरित्र को प्रभावी शैली में प्रस्तुत करतेविनायक दामोदर सावरकर पहले भारतीय थे जिन्हे दो आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई। इस पर सावरकर मुस्कुराते हुए बोले,अंततः अंग्रेज़ हुकूमत ने हिन्दू धर्म के पुनर्जन्म सिद्धांत को मान ही लिया। उनके गले में 40 साल कारावास का पट्टा देखकर जेलर ने उनसे पूछा की क्या तुम इतने साल की सजा काटने तक जीवित रहोगे। वीर सावरकर ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया कि,मैं जरुर जीवित रहूँगा लेकिन उसके पहले ही ब्रिटिश हुकूमत भारत से समाप्त कर दी जाएगी।" इतिहास गवाह है,वीर सावरकर की भविष्यवाणी अक्षरश: सही साबित हुई।

 


 

इंदिरा गांधी की नजर में वीर सावरकर

इंदिरा गांधी ने अपने एक साक्षात्कार में एक दिलचस्प बात कही थी की भारत की विभिन्नताओं की विशेषताओं में राष्ट्रप्रेम शामिल होता है,और यही इस विशाल राष्ट्र की शक्ति है। वास्तव में वीर सावरकर का उग्र राष्ट्रवाद भारत की सार्वभौमिकता से कभी मेल नहीं खाता था लेकिन इससे उनके राष्ट्र के प्रति बलिदान को कभी कमतर नहीं आँका जा सकता। हालांकि उनका व्यक्तिव बहुत विवादास्पद रहा जो उनके खान पान से लेकर वैचारिक तौर पर भी सामने आया। 1948 में महात्मा गांधी की हत्या के षड्यंत्र में शामिल होने के शक़ में विनायक दामोदर सावरकर को मुंबई से गिरफ़्तार कर लिया गया था। बाद में उन्हें फ़रवरी 1949 में इस आरोप से बरी कर दिया गया था।


आज गांधी भी नहीं है और सावरकर भी नहीं है। भारत की विविधता,धार्मिक एकता और सार्वभौमिकता के लिए महात्मा गांधी के विचार अपरिहार्य नजर आते है।  वहीं सावरकर को भी अप्रासंगिक नहीं माना जा सकता क्योंकि उन्होंने अपने जीवन का बहुमूल्य समय भारत की आज़ादी के प्रयासों में और फिरंगियों का विरोध करते हुए बिताया था। गांधी और सावरकर के रास्ते अलग अलग थे। गांधी आलोचना से दूर रहकर रचनात्मकता में भरोसा करते थे। उनकी रचनात्मकता में प्रखर राष्ट्रवाद की उग्रता कभी दिखाई नहीं दी,इसलिए महात्मा गांधी से वीर सावरकर को किसी भी प्रकार से जोड़े जाने की जरूरत भी नहीं होना चाहिए।

 

1 टिप्पणी:

Unknown ने कहा…

बहुत अच्छा विश्लेषण

brahmadeep alune

पुरुष के लिए स्त्री है वैसे ही ट्रांस वुमन के लिए भगवान ने ट्रांस मेन बनाया है

  #एनजीओ #ट्रांसजेंडर #किन्नर #valentines दिल्ली की शामें तो रंगीन होती ही है। कहते है #दिल्ली दिलवालों की है और जिंदगी की अनन्त संभावना...