राष्ट्रीय सहारा
यूरेशिया की शांति, सुरक्षा व स्थिरता के लिए गठित शंघाई सहयोग संगठन के सदस्य देशों कज़ाकिस्तान,चीन,किर्गिस्तान,रूस,ताजिकिस्तान, उज़्बेकिस्तान,भारत और पाकिस्तान में से अधिकांश की सीमाएं अफगानिस्तान से मिलती है। अफगानिस्तान में तालिबान के सत्ता में आने से एससीओ का कोई भी देश इतना आशंकित नहीं है जितना भारत। करीब तीन दशक पहले तालिबान का जन्म रूस और साम्यवाद के विरोध में हुआ था,अब तालिबान के सबसे बड़े सहयोगी और हमराह रूस और चीन बन गए है। कूटनीति का आधार ही राष्ट्रीय हितों का संवर्धन होता है जिसमें यथार्थवादी दृष्टिकोण की निर्णायक भूमिका होती है। इसी दृष्टिकोण के सहारे अमेरिका ने तालिबान से गुपचुप समझौता करके अपने हित साध लिए,रूस ने तालिबान की मेजबानी कर डाली,चीन ने तालिबान को दो अरब रुपए की मदद का ऐलान कर दिया,तुर्की ने काबुल हवाई अड्डे की सुरक्षा और देखभाल का प्रस्ताव रख दिया और पाकिस्तान ने अपनी इच्छा के अनुसार तालिबान की अंतरिम सरकार का गठन करने के लिए आईएसआई प्रमुख को काबुल भेजने में कोताही नहीं बरती।वहीं भारत की कूटनीति आदर्शवादी दृष्टिकोण के अंतहीन मार्ग पर चल पड़ी है जहां देश के सामरिक हित गहरे संकट में पड़ते जा रहे है। चीन के अख़बार ग्लोबल टाइम्स ने भारत की विदेश नीति के अनुदार निर्णयों को इसके लिए जिम्मेदार ठहराते हुए भारत की स्थिति को शर्मनाक बताया है।
दरअसल अफगानिस्तान भारत की सामरिक सुरक्षा के लिए अतिमहत्वपूर्ण देश रहा है। पाकिस्तान विरोधी भावनाएं अफगानों में बड़े पैमाने पर रही है। तालिबान के सत्ता में आने के बाद भी वहां पाकिस्तान विरोधी प्रदर्शन इस हकीकत को बयां कर रहे है।भारत अफगानिस्तान में मजबूत रहकर पाकिस्तान पर दबाव बनाने में लगातार कामयाब रहा था।पिछले बीस सालों में भारत ने अफ़ग़ानिस्तान में क़रीब 500 छोटी-बड़ी परियोजनाओं में निवेश किया है जिनमें,स्कूल, अस्पताल, स्वास्थ्य केंद्र,बच्चों के होस्टल और पुल शामिल हैं।यहां तक कि भारत ने अफ़ग़ानिस्तान में गणतंत्र की निशानी के तौर पर खड़ा संसद भवन,सलमा बांध और ज़रांज-देलाराम हाइवे में भी भारी निवेश किया है।भारत करोड़ों रुपये निवेश कर ईरान के चाबहार बंदरगाह के विकास का काम कर रहा है जिसे जोड़ने वाली सड़क अफ़ग़ानिस्तान से होकर जाती है।भारत ने अफगानिस्तान में करीब 22 हजार करोड़ का निवेश किया है और अब यह सारी परियोजनाएं अब अधर में पड़ गई है।2017 में क़ाबुल और दिल्ली के बीच हवाई रास्ते से माल ढुलाई के सीधे कॉरिडोर की शुरुआत हो गई थी वहीं चाबहार बन्दरगाह से ईरान के रास्ते भारत-अफगानिस्तान का व्यापार शुरू हो गया था। भौगोलिक रूप से भारत-अफगानिस्तान और ईरान से पाकिस्तान घिरा हुआ है। भारत,अफगानिस्तान और ईरान सामूहिक मोर्चाबंदी करके पाकिस्तान पर दबाव बना सकने की स्थिति में है।
यह देखने में आया है कि पिछले कुछ वर्षों में भारत ने अफगानिस्तान के सामरिक महत्व को समझते हुए भी तालिबान को लेकर रुको और देखो की नीति को अपनाया और यह नीति अब भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए बड़ी परेशानी का कारण बन सकती है।अफगानिस्तान को लेकर एक दशक पहले बराक ओबामा ने साफ कर दिया था कि अमेरिका की सेनाएं अफगानिस्तान को छोड़ दे इस नीति पर आगे बढ़ा जा रहा है। बाद में ट्रम्प ने तालिबान के नेताओं से बात करने से गुरेज नहीं कियाऔर अंततः बाइडेन ने दोहा समझौते की आड़ लेकर अफगानिस्तान को छोड़ दिया। इस एक दशक में अफगानिस्तान के राजनीतिक भविष्य के अनुसार चीन,रूस,ईरान,पाकिस्तान और कतर ने अपनी विदेश नीति को यथार्थवादी नीति के अनुसार ढालकर अपने राष्ट्रीय हितों को सुरक्षित कर लिया। लेकिन इस दौरान भारत की अफगान नीति अदूरदर्शिता और अपरिपक्वता से भरी रही।
अफगानिस्तान की समस्या को लेकर रूस,चीन और कतर जैसे देशों ने शिखर सम्मेलन आयोजित किए और उन्होंने पाकिस्तान के दबाव में जानबूझकर भारत की अनदेखी की।अफगानिस्तान की लोकतान्त्रिक गनी सरकार और वहां के लोगों से मित्रतापूर्ण संबंध होने के बाद भी भारत ने ऐसे किसी शिखर सम्मेलन के आयोजन में अपनी दिलचस्पी नहीं दिखाई जिससे पाकिस्तान और तालिबान पर दबाव बनाया जा सके।इस दौरान भारत की नीति अमेरिका पर अतिविश्वास के रूप में सामने आई। भारत की इस नीति से भारत का परम्परागत मित्र रूस यथार्थवादी हितों के सहारे पाकिस्तान और चीन के खेमे में चला गया।रूस का समर्थन भारत की क्षेत्रीय और वैश्विक सुरक्षा के लिए अनिवार्य माना जाता है,लेकिन अब उसका रुख भारतीय हितों के प्रतिकूल दिखाई पड़ रहा है।
अफगानिस्तान में दो दशक पहले भी तालिबान की सरकार काबिज हुई थी लेकिन उस समय तालिबान विरोधी नार्दन अलायंस को भारत का समर्थन बना रहा।यही कारण है कि तालिबान कभी अफगानिस्तान में मजबूत नही हो सका था।इस समय पंजशीर घाटी में भारत समर्थित मोर्चा तालिबान का प्रतिरोध कर रहा है। भारत की नीति में तालिबान को लेकर इतना संशय है कि भारत समर्थित शक्तियाँ बिना वैदेशिक मदद के कमजोर पडती जा रही है और यह स्थिति भारत के लिए बड़ा झटका है।
पिछले महीने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की अध्यक्षता करते हुए भारत ने तालिबान की आलोचना करने और उसे आतंकवादी समूह कहने से परहेज किया था।इसका जवाब तालिबान ने भारत को दिया।तालिबान की अंतरिम सरकार का गठन किया गया तो इस मौके पर तुर्की,चीन,रूस,ईरान,पाकिस्तान और क़तर को तालिबान की सरकार ने आमंत्रित किया,जबकि भारत को नजरअंदाज कर दिया गया।
पाकिस्तान की ख़ुफ़िया एजेंसी आईएसआई के प्रमुख लेफ़्टिनेंट जनरल फ़ैज़ हमीद की काबुल की यात्रामें तालिबान के कमांडरों और नेताओं से मुलाक़ात के बाद तालिबान की सरकार का गठन भारत के लिए शुभ संकेत नहीं है।तालिबान की नयी केबिनेट में पाकिस्तान की आतंक को प्रश्रय देने वाली यूनिवर्सिटी जामिया दारुल उलूम हक़्क़ानिया से पढ़ने वाले अधिकांश सदस्य शामिल है। तालिबान की कमान अधिकांश उन कुख्यात आतंकियों के हाथों में है जिनकी शिक्षा दीक्षा पाकिस्तान के उन मदरसों में हुई है जो भारत विरोध का प्रमुख केंद्र रहे है। तालिबान प्रशासित अफगानिस्तान के प्रधानमंत्री मुल्ला मोहम्मद हसन अखुंदधार्मिक कट्टरपंथी माने जाते है।कट्टरपंथ और जिहाद से अभिशिप्त दक्षिण एशिया में अस्थिर देश अफगानिस्तान में कट्टरपंथ को बढ़ावा मिलने से भारत अप्रभावित नहीं रह सकता।मुल्ला अखुंद ने 2001 में बामियान में बुद्ध की मूर्तियाँ तुड़वाई थीं।उनकी अगुवाई में तालिबान की सरकार भारत जैसे बहुसांस्कृतिक देश के लिए कितनी समस्या बढ़ा सकती है,इसका अंदाजा भी नहीं लगाया जा सकता।अफगानिस्तान के गृहमंत्री सिराजुद्दीन हक्क़ानी को बनाया गया है।इनका हक्कानी नेटवर्क कुख्यात चरमपंथी समूह माना जाता है जिसे अफगानिस्तान में भारतीय दूतावास,मुम्बई छब्बीस ग्यारह समेत कई आतंकी हमलों का जिम्मेदार माना जाता है। हक्कानी समूह के आईएसआई और आईएस से गहरे संबंध रहे है।
राष्ट्रीय
सुरक्षा के निर्धारण और उसकी सफलता के कुछ विशिष्ट आधार होते है जिनमें भू
राजनैतिक और भू सामरिक नीति बेहद महत्वपूर्ण है। अफगानिस्तान में तालिबान की सरकार बनने से भारत
विरोधी शक्तियाँ लामबंद होती दिखाई दे रही है। इससे साफ है कि भारत के लिए चुनौती
बढ़ गई है। जाहिर है शक्ति
संतुलन,राष्ट्रीय सुरक्षा और सामरिक हितों की रक्षा तथा तालिबान पर दबाव बनाएं
रखने के लिए अफगानिस्तान में भारत समर्थक शक्तियों का मजबूर रहना जरूरी है।उन्हें
पूर्व की भारत की नीति की तरह आर्थिक,सामरिक और राजनीतिक समर्थन मिलता रहना चाहिए।