पॉलिटिक्स
इस्लाम के पांच मूल स्तंभ माने जाते है,तौहीद,नमाज़,रोज़ा,ज़कात और हज। तौहीद अर्थात् एकेश्वरवाद। ये किसी भी इस्लाम धर्म को मानने वाले के लिए पहली सीढ़ी है जिसमें एक ही ईश्वर को मानना मुसलमान होने के लिए आवश्यक है। इसके बाद नमाज है जो बेहद अहम है। पांच वक़्त की नमाज़ फ़र्ज़ की गई है जो कि तय किये गए वक़्त में पढ़ना ज़रूरी है। तीसरा स्तंभ रोजा है,जिसे पाक रमजान महीने में हर दिन रखा जाता है। यह इन्द्रियों को वश में रखने का संदेश देता है। बुरा मत देखों,बुरा मत बोलो,बुरा मत सुनो के साथ इसका मतलब कड़ी इबादत करना और खुद को भूख और प्यास को सहन करना भी होता है जिसे अल्लाह को राजी करने का मार्ग माना जाता है। चौथा स्तंभ ज़कात है जिसका मतलब समाज के धनवान व्यक्ति अपनी कमाई का कुछ हिस्सा गरीबों में बांटे, जिससे समाज मे एक संतुलन स्थापित होता है। पांचवा और अंतिम महत्वपूर्ण स्तंभ हज है,जिसके बारे में यह साफ है कि इस्लाम मे हर इंसान को अपनी ज़िंदगी मे कम से कम एक बार हज करना ज़रूरी होता है। वहीं पैगम्बर हज़रत मोहम्मद साहब ने कहा है कि अगर किसी गरीब शख्स ने अपनी ईमानदारी कमाई से अपनी बेटी का निकाह ही कर दिया तो ये भी हज करने के बराबर ही मन जाएगा।
क्या भारत में समान नागरिक संहिता लागू होने से इन धार्मिक दृष्टि से महत्वपूर्ण पांच स्तंभों का पालन करने में मुसलमानों को कोई अड़चन आएगी। भारत में समग्र रूप से सभी धर्मों का सम्मान करने की संवैधानिक मान्यता प्रचलित है। भारत के संविधान ने यहां रह रहे नागरिकों को मौलिक अधिकार दिए हैं। उन्हीं अधिकारों में धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार भी शामिल है। जिसका उल्लेख संविधान के अनुच्छेद 25 से लेकर 28 तक में मिलता है। भारत में यह अधिकार हर एक व्यक्ति या कहें कि नागरिकों को समान रूप से प्राप्त है। अल्पसंख्यक समुदाय की रक्षा को लेकर भारत सरकार का स्पष्ट मत है कि भारत एक जीवंत लोकतंत्र है,जहाँ संविधान धर्मनिरपेक्षता का परिचायक है तथा मौलिक अधिकारों के माध्यम से धार्मिक स्वतंत्रता को संरक्षण प्रदान करता है और साथ ही लोकतांत्रिक शासन और विधि के शासन को बढ़ावा भी देता है। इसका स्पष्ट सन्देश है कि देश में समान नागरिक संहिता लागू होने की दशा में धार्मिक स्वतन्त्रता बिलकुल भी प्रभावित नहीं होगी।
समान नागरिक संहिता जैसे कानून पहले ही लागू है..
दंड प्रक्रिया संहिता,भारतीय
अनुबंध अधिनियम,नागरिक प्रक्रिया संहिता,माल बिक्री अधिनियम,संपत्ति हस्तांतरण
अधिनियम,भागीदारी अधिनियम, साक्ष्य अधिनियम आदि एक समान है और भारत के सभी
नागरिकों पर समान लागु होते है।
निजी
कानूनों से दुविधा
हाल ही में समान नागरिक संहिता लागू करने की पैरवी करते हुए दिल्ली हाई कोर्ट ने कहा है कि शादी और तलाक़ को लेकर अलग-अलग पर्सनल लॉज़ में जो विवाद की स्थिति है,उसको ख़त्म करने की ज़रूरत है। दरअसल भारत में अधिकतर निजी कानून धर्म के आधार पर तय किए गए हैं। हिंदू पर्सनल के अंतर्गत हिंदू,सिख,जैन और बौद्ध आते हैं, जबकि मुस्लिम और ईसाई के लिए अपने कानून हैं। मुस्लिमों का कानून शरीअत पर आधारित है।
इंदौर का शाहबानो केस के बाद राजनीतिक मुद्दा
इंदौर
कि शाहबानों ने लगभग साढ़े तीन दशक पहले पति से भरण पोषण को लेकर उच्चतम न्यायालय
से न्याय की गुहार की थी,जिसके बाद उच्चतम न्यायालय ने दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 125
के अंतर्गत एक तलाकशुदा मुस्लिम महिला को गुजारा भत्ता देने का आदेश पारित किया था। शाहबानो के
पति मोहम्मद अहमद खान ने अदालत में यह कहते हुए गुजारा भत्ता देने से इंकार
कर दिया कि मुस्लिम पर्सनल लॉ में ऐसा कोई कोई नियम नहीं है। बाद में अदालती फैसले के विरोध में कट्टरपंथी ताकतें लामबंद हो
गयी और उलेमाओं के दबाव में आकर
तत्कालीन सरकार
ने 1986 में मुस्लिम महिला अधिनियम
पारित कर दिया।
इस प्रकार सरकार के द्वारा विधि में परिवर्तन करते हुए मुस्लिम
महिलाओं को मजबूत करने वाले न्यायालय के फैसले को निष्फल बना दिया गया।
मुस्लिम महिलाओं के
लिए कितना उपयोगी
देश में तकरीबन 9 करोड़ मुस्लिम महिलाएं है और वे समान नागरिक संहिता लागू होने के बाद सशक्त हो जाएगी तथा लैंगिक पक्षपात की समस्या से भी निपटा जा सकेगा। अभी पर्सनल लॉ में महिलाओं के अधिकार सीमित हैं। महिलाओं का अपने पिता की संपत्ति पर अधिकार और गोद लेने जैसे मामलों में भी एक समान नियम लागू होंगे।
मजहबी अदालतों का
विचार ख़ारिज
भारत के तकरीबन 20 करोड़ आबादी वाले मुसलमानों कि शैक्षणिक,आर्थिक और सामाजिक हालात बद से बदतर तो है ही उनके कई धार्मिक ठेकेदार भी आम मुसलमान के लिए समस्याएँ पैदा कर रहे है। मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड का ध्यान मुसलमानों कि शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी चिंताओं पर होना चाहिए लेकिन इसके स्वयंभू धार्मिक नेता मुसलमानों में अपनी खोती हुई साख बहाल करने के लिए देश के सभी ज़िलों में शरीया अदालत क़ायम करने का ऐलान कर देते है। वे कहते है कि इन मनोनीत अदालतों में जमाते इस्लामी,जमीयत उलेमा ए हिंद,देवबंद, नदवा इस जैसे संस्थानों के काज़ी और मुफ़्ती मुसलमानों के मसले का इस्लामी दृष्टिकोण से फ़ैसला सुनाएंगे। भारत जैसे बहुसांस्कृतिक देश में मजहबी कोर्ट की बातें बहुसंख्यकों को परेशान करती है और इसका प्रभाव समाज से लेकर धार्मिक अलगाव तक सामने आ रहा है।
आधी
आबादी का सवाल
संविधान सभी
को बराबरी का अधिकार देता है,अत: गैर बराबरी को हतोत्साहित किया जाना चाहिए। समान नागरिक संहिता से गैर
बराबरी समाप्त होगी और इसका सीधा फायदा महिलाओं को मिलेगा। इससे मुस्लिम महिलाओं समेत सभी धर्मों की महिलाओं का आत्म
विश्वास बढ़ेगा। इसका साफ मतलब है कि देश की आधी आबादी सशक्त होगी।
दुनिया
में स्थिति
दुनिया के कई देशों में समान नागरिक संहिता लागू है जिसमें बांग्लादेश,मलेशिया,तुर्की,इंडोनेशिया,सूडान और मिश्र जैसे देश भी है. इन देशों में मुसलमान बहुसंख्यक है लेकिन अन्य धार्मिक अल्पसंख्यक भी बड़ी संख्या में रहते है। बांग्लादेश के हिन्दुओं को समान नागरिक संहिता से कोई शिकायत नहीं है वहीं तुर्की के ईसाई भी बढिया जीवन जीते है।
बहरहाल समान नागरिक संहिता आस्था को प्रभावित किए बिना समानता स्थापित करने
का द्वार खोल सकती है। भारत में गैर बराबरी से अभिशिप्त समाज को इसकी जरूरत है। जस्टिस प्रतिभा एम सिंह ने इसकी जरूरत पर बल देते हुए कहा है कि धर्म,जाति
और समाज की पारंपरिक बेड़ियां आहिस्ता-आहिस्ता ग़ायब हो रही हैं। इसलिए समान नागरिक संहिता केवल उम्मीद बनकर नहीं रहनी चाहिए। ।
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