राज
एक्सप्रेस
दुनियाभर में प्रसिद्द जगन्नाथपुरी की धार्मिक यात्रा के दौरान रथ एक मुस्लिम संत की मजार पर आकर ठहरता है और आगे चलता है। यह मुस्लिम संत सालबेग की मजार है जिनका गहरा जानलेवा घाव कृष्ण की भक्ति करने से ठीक हुआ था। जिन्ना भारत की इसी संस्कृति से डरते थे और बाद में जिया-उल हक ने इसे स्वीकार भी किया। पाकिस्तान बन जाने के करीब 35 साल बाद पाकिस्तान के सैनिक तानाशाह जनरल जिया उल हक़ से एक पत्रकार ने पूछा कि,पाकिस्तान भारत के साथ जानबूझ कर दुश्मनी निभाने की नीति क्यों अपनाएं हुए है। इस पर जिया हल हक ने बेबाकी से डर को स्वीकार करते हुए कहा कि,अगर तुर्की और मिस्र अपनी मुस्लिम पहचान को पूरे जी जान से न जताएं तो भी वह वही रहेंगे जो वह है-तुर्की और मिस्र। लेकिन पाकिस्तान अगर इस्लामिक पहचान को अपनाने के साथ उसे जाहिर न करता रहे तो वह हिंदुस्तान हो जाएगा। हिंदुस्तान के साथ दोस्ताना मेलजोल का मतलब होगा हिंदुस्तान का सब कुछ अपने आगोश में समेट लेने वाले अपनेपन के दलदल में फंस जाना।" भारत के अपनेपन में समाकर गुम हो जाने की फिक्र जिन्ना को इतनी थी की भारत की आज़ादी के एक दिन पहले ही उन्होंने पाकिस्तान बना लिया,और बाद के पाकिस्तानी सियासतदान भी अपने देश के अस्तित्व के लिए जिन्ना की नफ़रत की राजनीति को ज़िन्दा रखे हुए है।
लेकिन भारत की राजनीति में मजहबी राजनीति,धार्मिक द्वेष और नफरत को कोई क्यों जिंदा रखना चाहता है। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने धर्मान्ध राजनीति के उभार की असंख्य आशंकाओं के बीच कहा कि कुछ ऐसे काम हैं जो राजनीति नहीं कर सकती। राजनीति लोगों को एकजुट नहीं कर सकती,राजनीति लोगों को एकजुट करने का माध्यम नहीं बन सकती बल्कि यह एकजुटता को बिगाड़ने का हथियार बन सकती है। संघ प्रमुख ने प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से देश के उन तमाम राजनीतिक दलों पर निशाना साधा जिनकी राजनीति धर्म के बिना चल ही नहीं सकती। यहीं नहीं धर्म का सहारा लेकर लोकतंत्र को केन्द्रित सत्ता में पिरोने के खतरों के बीच उन्होंने यह भी नसीहत दे डाली की एकता का आधार राष्ट्रवाद और पूर्वजों की महिमा होनी चाहिए। हम लोकतांत्रिक देश में रहते हैं। यहां केवल भारतीयों का प्रभुत्व हो सकता है,हिंदू या मुसलमानों का प्रभुत्व नहीं।
दरअसल मोहन भागवत के पूर्वजों के समाजशास्त्र में भारतीयता और हिंदुत्व एक बार फिर उठ कर मजबूती से सामने आ गया। लेकिन इससे परहेज किसे है,यह सवाल भी उठ खड़ा हुआ है। दिसंबर 1995 में जस्टिस जेएस वर्मा की अगुआई वाली बेंच ने एक महत्वपूर्ण निर्णय में कहा था कि,हिंदुत्व शब्द भारतीय लोगों के जीवन पद्धति की ओर इशारा करता है। इसे सिर्फ उन लोगों तक सीमित नहीं किया जा सकता,जो अपनी आस्था की वजह से हिंदू धर्म को मानते हैं।
अब आप मोहन भागवत के साथ खड़े होते है तो आप हिंदुत्व की मूल अवधारणा को समझते है और आप उनके मत से सहमत नहीं है मतलब भारतीयता को लेकर आपकी दृष्टि संकुचित है। यह भी बेहद दिलचस्प है कि राष्ट्रवाद और हिंदुत्व को लेकर स्वामी विवेकानन्द को पूजा जाता है,लेकिन उनके जीवन की दृष्टि को कितने लोग समझ और ग्रहण कर पाएं है,इसका पता नहीं है। स्वामी विवेकानन्द जब भी अजमेर जाते एक मुस्लिम वकील के घर विश्राम करते। एक मुंशी जगन मोहन को ये बात नागवार गुजरी। वे स्वामी जी से बोले मेरे मन में एक बहुत बड़ी शंका समाई हुई है की आप हिन्दू जाति के होते हुए भी मुसलमान के घर क्यों ठहरे हुए है। स्वामी बड़ी गंभीरता से बोले "मुंशीजी क्या मुसलमान इन्सान नहीं है,क्या इनका निर्माण उस परमेश्वर के द्वारा नहीं हुआ।
भारतीयता को लेकर स्वामी विवेकानन्द की व्यापक दृष्टि के भारत के पूर्व राष्ट्रपति जाकिर हुसैन कायल थे। उन्होंने स्वामी विवेकानन्द के बारे में कहा था कि मैंने अपने छात्र जीवन में उनके साहित्य को पढ़कर एक ऐसे आध्यात्मिक पुरुष के दर्शन किये,जिन्होंने धर्म को तंग दायरे में नहीं रखा और मानव समाज को ऐसे धर्मान्ध खेमों में विभक्त होने से बचाया,जो सत्य पर एकाधिकार का सतही दावा किया करते थे। अब न तो विवेकानन्द जीवित है और न ही जाकिर हुसैन लेकिन धर्म का तंग दायरा अलग अलग रूपों के साथ चुनौती बनकर अक्सर खड़ा नजर आता है।
भारत के पूर्व प्रधानमन्त्री अटल बिहारी वाजपेई ने इस तंग दायरे
से निकलने का आह्वान भी किया था। उन्होंने संसद
में एक बार सर्वधर्म समभाव को हिंदुत्व की
जन्म घूंटी बताते हुए कहा था की इस देश में ईश्वर को मानने वाले भी है और ईश्वर को
नकारने वाले भी है ,यहाँ किसी को सूली पर नही चढ़ाया गया। किसी को पत्थर मारकर
दुनिया से नही उठाया गया,ये सहिष्णुता इस देश की मिट्टी में है। ये अनेकान्तवाद का
देश है,और भारत कभी मजहबी राष्ट्र नहीं हो सकता।
अब भारत के राजनीतिक दलों की यह जिम्मेदारी है कि वे लोगों को समझाएं कि राष्ट्र का मतलब कोई झंडा,धर्म,संप्रदाय,मूर्ति,नारे या भावनाओं का उभार कभी नहीं है। राष्ट्र सभ्यता और सांस्कृतिक एकता से बनता था। इस समय राष्ट्रवाद की असल भावना भी दांव पर लगा दी गई है। राष्ट्रवाद किसी राष्ट्र के प्रति असीम प्रेम,निष्ठा,समर्पण और त्याग को दर्शाता है,इसके साथ यह किसी जातीय सर्वोच्चता या धार्मिक अभिमान का प्रतीक भी हो सकता है। गांधी के विचारों में राष्ट्रवाद किसी संकीर्णता से परे है। उनके राष्ट्रवाद में अन्तर्राष्ट्रीयता का सम्मान और साझा संस्कृति को संजोने की भावना रही। उन्होंने स्पष्ट कहा कि जातीय उच्चता के गर्व से निर्मित राष्ट्रीयता विश्व शांति के लिए बड़ा खतरा है, गांधी ने इटली और जर्मनी का उदाहरण दिया।
भारतीय संस्कृतिवादी शिवाजी को अपना आदर्श बताते है,ऐसे में यह भी जानना चाहिए कि शिवाजी की भारत को देखने की दृष्टि क्या थी। शिवाजी ने अपने प्रशासन में धर्मनिरपेक्षता का पालन किया था और उनका राजधर्म किसी एक किसी धर्म पर आधारित नहीं था।उनकी सेना में सैनिकों की नियुक्ति के लिए धर्म कोई मानदंड नहीं था और इनमें एक तिहाई मुस्लिम सैनिक शामिल थे। हिन्दू राजशाही के तौर पर पहचाने जाने वाले शिवाजी का जीवन बेहद दिलचस्प रहा।शिवाजी के दादा मालोजीराव भोसले ने सूफी संत शाह शरीफ के सम्मान में अपने बेटों को नाम शाहजी और शरीफजी रखा था। उनकी नौसेना की कमान सिद्दी संबल के हाथों में थी और सिद्दी मुसलमान उनके नौसेना में बड़ी संख्या में थे।जब शिवाजी आगरा के किले में नजरबंद थे तब मुगलों की कैद से निकल भागने में जिन दो व्यक्तियों ने उनकी मदद की थी उनमें से एक मुसलमान था। यहीं नहीं शिवाजी ने अपनी राजधानी रायगढ़ में अपने महल के ठीक सामने मुस्लिम श्रद्धालुओं के लिए एक मस्जिद का ठीक उसी तरह निर्माण करवाया था जिस तरह से उन्होंने अपनी पूजा के लिए जगदीश्वर मंदिर बनवाया था। हिंदुस्तान में शिवाजी को हिन्दू भावनाओं का प्रतीक बताने की लगातार कोशिश होती रही है,लेकिन स्वयं शिवाजी अपनी नीतियों से हिंदुस्तान की बहुसांस्कृतिक शक्ति के प्रतीक थे।
शिवाजी
की मिट्टी भी यही थी और सिद्धि संबल भी इस माटी से निकले वीर थे।
असल संकट यह है कि भारत के राष्ट्रवाद को भी जातीय उच्चता के तराजू पर बार बार
तोला जाता है। यहां के लोग न तो फासीवादी हो सकते है और न ही नाजीवादी बनने का
उन्हें कोई शौक है। इसके बाद भी संकीर्णता में भारतीय राजनीति इतनी उलझी नजर आती
है कि धर्म और राजनीति को अलग अलग रखना नामुमकिन बना दिया गया है। इसके दूरगामी
परिणामों के खतरों से बेखबर नीरों की बांसुरी बज रही है। इसमें कोई संदेह नहीं की संघ प्रमुख की हिंदुत्व की जीवन
घुट्टी की नसीहत का वाजिब असर राष्ट्र के लिए बेहतर परिणाम दे सकता है। लेकिन
भारतीयता या हिंदुत्व क्या है इसकी व्याख्या का काम राजनीतिक दलों के पास सुरक्षित
है। बहरहाल काशी,हैदराबाद,मुम्बई,चेन्नई और दिल्ली जैसे राजनीतिक केन्द्रों से भारत
को देखने की दृष्टि राजनीतिक दलों की मनोदशा,सियासी फायदों और धार्मिक-जातीय गणित के
हिसाब से तय होती है,भारत की एकता तथा अखंडता के सामने सबसे बड़ा संकट यही है।
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