राष्ट्रीय सहारा,हस्तक्षेप विशेषांक
स्वास्थ्य सुरक्षा किसी भी देश की प्राथमिकता होनी चाहिए लेकिन भारत में ऐसा बिल्कुल भी नहीं है। भारत वर्तमान में दुनिया की पांचवी बड़ी अर्थव्यवस्था है जो कुल जीडीपी का तक़रीबन सवा फीसदी हिस्सा ही स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च करता है,यह पाकिस्तान, सूडान और कंबोडिया जैसे अल्पविकसित देशों से भी कम है। स्वास्थ्य सेवाओं पर जीडीपी के खर्च का वैश्विक स्तर 6 फीसदी माना गया है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार प्रत्येक 1000 नागरिकों पर 1 डॉक्टर होना अनिवार्य है। जबकि भारत में इससे दस गुना अधिक नागरिकों पर मुश्किल से 1 सरकारी डॉक्टर उपलब्ध हो पाता है। स्वास्थ्य को लेकर भारत की वैश्विक रैंकिंग बदतर है और लोगों को समय पर प्राथमिक चिकित्सा भी मुहैया नहीं होती।
यह बेहद दिलचस्प है कि देश में उपलब्ध 1
मिलियन डॉक्टरों में से मात्र 10
प्रतिशत ही सार्वजनिक स्वास्थ्य क्षेत्र में कार्य करते हैं। इसका
मतलब साफ है कि समाजवादी भारत में निजी स्वास्थ्य सेवाओं का प्रभावी जाल है जिससे किसी न किसी तरीके से देश के 90 फीसदी डॉक्टर
जुड़े हुए है। इन अस्पतालों के
मालिक उस पूंजीवादी समाज का प्रतिनिधित्व करते हुए दिखाई देते है जिसका पैमाना
ऊंची बोली और ऊंचा रसूख होता है। ऐसे में आम लोगों के लिए ज्यादा गुंजाईश नहीं बचती।
कोरोना महामारी के कहर में यह तथ्य साफ उभर कर आया कि भारत अपने
मौजूदा बुनियादी ढांचे और स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली के साथ महामारी से लड़ने के
लिए तैयार नहीं है। लचर सार्वजनिक
स्वास्थ्य सेवाओं से आशंकित कोविड मरीज जिन्दा बचे रहने की आस में निजी अस्पतालों
की ओर रुख करने को मजबूर हुए है लेकिन बेलगाम निजी अस्पतालों के भारी भरकम बिल के
आगे कई उम्मीदें धराशाई हो गई। देश के अमूमन सभी क्षेत्रों में निजी अस्पतालों की मनमानी देखी जा
रही है।
कोरोना महामारी से जूझते नागरिकों के लिए जो भी राहत देने की कोशिशें हुई उसमें उच्चतम न्यायालय की भूमिका स्पष्टता से कई बार सामने आई है। पिछले साल सुप्रीम कोर्ट ने एक याचिका पर सुनवाई करते हुए कहा था कि सरकारों से मुफ़्त में ज़मीन लेने वाले अस्पताल कोविड मरीज़ों का मुफ़्त में इलाज क्यों नहीं कर सकते? दरअसल यह सवाल इसलिए उठ खड़ा हुआ क्योंकि महामारी से मौत के आतंक के बीच निजी अस्पतालों की मनमानी भी आतंकित करने वाली रही है। ऐसा प्रतीत होता है कि लोककल्याणकारी समाजवादी भारत की स्वास्थ्य पर आधारित व्यवस्थाएं पूंजीवादी मॉडल पर सवार हो चूकी है। इसके बावजूद की ब्रिटेन जैसे पूंजीवादी देश में भी स्वास्थ्य की जरूरतों को सार्वजनिक सेवाओं के माध्यम से पूरा किया जाता है। भारत में संविधानिक तौर पर राज्य के नीति निदेशक तत्वों में यह जाहिर किया गया है कि अपने नागरिकों के स्वास्थ्य की देखभाल और उसकी सुरक्षा राज्य की जिम्मेदारी है।
भारत के प्रत्येक नागरिक को स्वास्थ्य और उत्पादक
जीवन मुहैया कराने के उद्देश्य से राष्ट्रीय स्वास्थ्य
नीति के अलग अलग रूप लगातार सामने आएं है। हालांकि उनके केंद्र में सदैव यह सुनिश्चित करने का आम नागरिकों को भरोसा
दिलाया गया कि स्वास्थ्य पर होने वाले खर्च को कम किया जा सकता
है। इससे नागरिकों को स्वास्थ्य संबंधी खर्च के जोखिम से भी बचाया जा सकता है। लेकिन निजी अस्पतालों के
प्रभाव ने खर्च को असीमित कर दिया है जबकि जान का जोखिम बरकरार रहता है। कोविड से प्रभावित
मरीजों से लाखों रुपए वसूली की अनगिनत घटनाओं के बीच अनेक राज्य सरकारों को निजी
अस्पतालों की इलाज के लिए निश्चित फीस तय
करना पड़ा पड़ा। फिर भी यह खर्च जनरल वार्ड के लिए प्रतिदिन के
हिसाब से 5 हजार से 10 हजार और आईसीयू वार्ड का खर्च
अधिकतम 15 हज़ार से 20 हजार तक देने को
मजबूर होना पड़ा। भारत
में जहां 60 फीसदी आबादी के लिए रोज रोटी जुटाने का संकट होता है वहां आम नागरिक
के लिए इलाज पर हजारों-लाखों रुपया खर्च करना मुमकिन नहीं होता। ऐसे में न केवल निजी अस्पतालों पर
नकेल कसने की जरूरत है बल्कि भारत की सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली को बेहतर करने
की जरूरत भी है जिससे आम नागरिक को बेहतर स्वास्थ्य सेवाओं का लाभ मिल सके।
साल 2020-21 में स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय का बजट तकरीबन 65 हज़ार करोड़ रुपए था,जबकि रक्षा का बजट चार लाख 71 हज़ार करोड़ रुपये से ज़्यादा। रक्षा पर ख़र्च केंद्र सरकार के बजट का 15.5 फीसदी है, यह स्वास्थ्य से कई गुना ज्यादा है। दुनिया में अपनी रक्षा पर सबसे ज्यादा खर्च करने वाले देशों में तीसरे स्थान पर आने वाले भारत में ऑक्सीजन और दवाइयों की कमी से लाखों लोग असमय मौत का शिकार हो गए। इसका प्रमुख कारण देश में स्वास्थ्य के बुनियादी ढांचे का अभाव रहा है। स्वास्थ्य सेवा प्रणाली की अनदेखी कई दशकों से की जा रही है और इसमें आमूलचूल परिवर्तन करने की सख्त जरूरत है।
2017 में आई राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति के आयामों पर ही ठीक ढंग से काम
किया जाएं तो स्वास्थ्य की दिशा में आम लोगों को बड़ी सुरक्षा और राहत मिल सकती है। इस नीति का उद्देश्य
सभी लोगों,विशेषकर उपेक्षित लोगों को सुनिश्चित स्वास्थ्य देखभाल उपलब्ध कराना
है। इसके साथ ही स्वास्थ्य
के क्षेत्र में निवेश,स्वास्थ्य देखभाल सेवाओं का प्रबंधन और वित्त-पोषण करने,
विभिन्न क्षेत्रीय कार्रवाई के जरिये रोगों की रोकथाम और अच्छे स्वास्थ्य को
बढ़ावा देने,चिकित्सा प्रौद्योगिकियां उपलब्ध कराने,मानव संसाधन का विकास करने,चिकित्सा
बहुलवाद को प्रोत्साहित करने,बेहतर स्वास्थ्य के लिये अपेक्षित ज्ञान आधार
बनाने,वित्तीय सुरक्षा कार्यनीतियां बनाने तथा स्वास्थ्य के विनियमन और
उत्तरोत्तर आश्वासन के संबंध में स्वास्थ्य प्रणालियों को आकार देने पर विचार
करते हुए प्राथमिकताओं का चयन किया गया है। इस नीति में वित्तीय सुरक्षा के
माध्यम से सभी सार्वजनिक अस्पतालों में नि:शुल्क दवाएं,
नि:शुल्क निदान तथा नि:शुल्क आपात तथा अनिवार्य स्वास्थ्य
देखभाल सेवाएं प्रदान करने का प्रस्ताव किया गया है।
स्वास्थ्य व्यवस्था में नीतिगत रूप से भी आमूलचूल बदलाव करने के लिए डॉक्टर्स की कमी को दूर करना बेहद आवश्यक है। स्वतंत्र भारत में प्रशासनिक सेवाओं की तर्ज पर एक अलग सार्वजनिक स्वास्थ्य कैडर गठित का सुझाव सर्वप्रथम मुदलियार समिति द्वारा दिया गया था। इसकी जरूरत अब महसूस की जा रही है। 2017 में आई राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति में भी इसकी जरूरत को उभारा गया है कि स्वास्थ्य सेवाओं की गुणवत्ता में सुधार करने के लिए एक सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रबंधन कैडर की शुरुआत की जानी चाहिए। इसके माध्यम से समर्पित और काबिल प्रतिभावों को मौका मिल सकेगा जिससे स्वास्थ्य सेवाओं को बेहतर बनाने की दिशा में तेजी से कार्य हो सकेंगे। फ़िलहाल जिले की स्वास्थ्य सेवाओं की जिम्मेदारी जिला कलेक्टर की होती है और वे प्रशासनिक दायित्वों से बंधे होते है। ऐसे में स्वास्थ्य सेवाओं के बेहतर होने की संभावनाएं सीमित हो जाती है।
भारत जैसे विकासशील और लोककल्याणकारी राज्य में स्वास्थ्य सुरक्षा
से ही देश की प्रगति और खुशहाली सुनिश्चित हो सकती है।
कोरोना काल में लचर स्वास्थ्य सेवाओं के चलते ही लाकडाउन जैसे कदम उठाना पड़े और
इससे अर्थव्यवस्था भी धराशाई हो गई। जाहिर है देश में सुदृढ़
सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली सुनिश्चित करने की तुरंत जरूरत है।
इसके लिए भारतीय चिकित्सा सेवा के गठन को प्रभाव में लाना होगा। सार्वजनिक स्वास्थ्य कैडर के माध्यम से स्वास्थ्य सेवाओं के
मानवीकरण, स्वास्थ्य सामग्री प्रबंधन,तकनीकी विशेषज्ञता, आवश्यक सामाजिक
निर्धारकों एवं वित्तीय प्रबंधन की प्राप्ति में मदद मिलेगी। इसके साथ ही निजी अस्पतालों का
राष्ट्रीयकरण करने जैसे क्रांतिकारी कदम भी उठाएं जा सकते है। जब देश के 90 फीसदी
डॉक्टर्स सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं से दूर है,ऐसे में अस्पतालों का राष्ट्रीयकरण
निर्णायक और आमूलचूल परिवर्तन लाने का माध्यम बन सकता है।
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