अमेरिका से सीखे अपने नागरिकों की सुरक्षा, Amerika,covid india

 दबंग दुनिया

 


                                                                                                     

अमेरिका ने वैक्सीन के निर्यात पर तब तक रोक जारी रखी है,जब तक पूरे देश में टीकाकरण पूरा ना हो जाए। लेकिन भारत की नीति इससे कहीं अलग थी। भारत ने वैक्सीन कूटनीति को दृष्टिगत रखते हुए अपने देश में आयु-सीमा तय करके टीकाकरण योजना शुरू की। जो पहले दौर में 60 से ज्यादा और दूसरे दौर में 45 साल से ज्यादा उम्र के लोगों को वैक्सीन लगाने को लेकर थी।


भारत ने घाना,फ़िजी और भूटान जैसे देशों को तो वैक्सीन भेजी,साथ ही सऊदी अरब,ब्रिटेन और कनाडा जैसे अमीर देशों को भी वैक्सीन निर्यात की गई। भारत में सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया कंपनी द्वारा निर्मित कोविशील्ड वैक्सीन की पांच लाख डोज वाली पहली खेप कनाडा पहुंचाई गई। भारत ने ब्राजील को कोरोना वैक्सीन की 20 लाख खुराक भेजी। इसी प्रकार कोविशील्ड की 1.417 करोड़ खुराक भूटान,मालदीव, बांगलादेश,नेपाल,म्यामांर ओर सेशेल्स में पहुंचाई गई। भारत ने भूटान को कोविशील्ड टीके की एक लाख  पचास हजार खुराक और मालदीव को  एक लाख खुराकें भेजी जबकि बांग्लादेश को कोविड-19 टीकों की 20 लाख से अधिक खुराक और नेपाल को 10 लाख खुराक भेजी गई।

 

इस समय आंकड़ों को लेकर यह दावा किया गया कि दुनिया में सबसे ज्यादा संख्या में भारत में लोगों का टीकाकरण किया गया जिसे मोटे तौर पर 10 करोड़ बताया गया।  लेकिन आबादी के हिसाब से यह कितना कम था,इसे इन आंकड़ों को देखकर समझा जा सकता है। जब भारत में यह दावा किया जा रहा था तब भारत में आबादी के हिसाब से यह बेहद कम थी और इसकी पहुँच साढ़े पाँच फीसदी लोगों तक हुई। वहीं,ब्रिटेन में लगभग पचास फीसदी और अमेरिका में तैतीस फीसदी आबादी को टीका लगाया जा चुका था। कोरोना के कहर कि पहली लहर को झेलने वाला ब्राज़ील भी भारत से आगे रहा और उसने 10 फीसदी लोगों को टीका लगा दिया। भारत का पड़ोसी देश भूटान,जिसने भारत से वैक्सीन निर्यात की है। वहाँ साठ फीसदी से ज्यादा लोगों का टीकाकरण हो चुका है।


चीन में कोरोना फैलने के बाद पिछले साल जनवरी में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इसे लेकर चेतावनी दी थी,इसके बाद भी फरवरी के महीने में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के भारत दौरे पर अहमदाबाद में नमस्ते ट्रंप कार्यक्रम का आयोजन किया गया था,जिसमें एक लाख से अधिक लोग शामिल हुए थे। भारत ऐसे आयोजनों से दूर नहीं हुआ और इस साल पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव आयोजित किए गए जिसमें करीब अठारह करोड़ मतदाताओं ने भाग लिया। यह आगामी समय में और संकट बढ़ाएगा,इसकी आशंका बढ़ गई है।


वहीं कोरोना से निपटने कि योजनाओं को ले तो अमेरिका के पास ऐस्ट्राज़ेनेका की 300 लाख डोज़ बिना इस्तेमाल हुई रखी हुई है, जो संकट में काम आ सकती है। भारत में कोरोना के बढ़ते मामले और इससे उत्पन्न भीषण संकट के बीच बड़ी समस्या यह सामने आई की अमेरिका ने वैक्सीन और दवाओं से जुड़े कच्चे माल के आयात पर रोक लगा रखी थी। भारत ने जब इसे हटाने की बात कहीं तो अमेरिका ने पहले तो इसे हटाने से इंकार कर दिया और फिर व्हाइट हाउस की प्रवक्ता जेन साकी ने कहा कि,अमेरिका पहले अपने नागरिकों की ज़रूरतें पूरी करेगा। हालांकि बाद में अमेरिकी प्रशासन ने हाल ही में भारत को मदद देने का भरोसा दिलाया, यह कब मिलेगी,यह साफ नहीं है।



कोरोना से निपटने की बेहतर  कार्ययोजना कभी भारत में नजर ही नहीं और वैश्विक खतरों को नजर अंदाज करके इसे हर्ड इम्यूनिटी वाला देश बार बार बताया गया। पिछले साल कोरोना संक्रमण फैलने के खतरों के बीच ऑक्सीज़न की कमी की समस्या सामने आई थी। बाद में भारत ने दूसरी लहर को लेकर कोई भी तैयारी करने पर ज़ोर नहीं दिया। भारत कोरोना महामारी से सबसे ज्यादा 3 प्रभावित देशों में शामिल था। बिजनेस टुडे के मुताबिक अप्रैल 2020 से जनवरी 2021 के दौऱान भारत ने 9301 मीट्रिक टन ऑक्सीजन का निर्यात किया जिससे उसे 8.9 करोड़ रुपये की कमाई हुई। इसकी तुलना में भारत ने वित्त वर्ष 2019-20 में कुल 4514 मीट्रिक टन ऑक्सीजन का निर्यात किया था जिससे 5.5 करोड़ रुपये की कमाई हुई थी। भारत ने वित्त वर्ष 2020-21 के पहले 10 महीनों में पूरे वित्त वर्ष 2019-20 की तुलना में दोगुना ऑक्सीजन का निर्यात किया। डिपार्टमेंट ऑफ कॉमर्स के आंकड़ों में यह खुलासा हुआ है। कोरोना के संकट में भारत कि यह नीति हैरान और परेशान करने वाली है।

इस समय देश में ऑक्सीजन की कमी से हजारों लोग मर चुके है और यह समस्या बदस्तूर जारी है। हालत यह है कि दिल्ली और कुछ दूसरे राज्यों के पास अपने ऑक्सीजन प्लांट नहीं हैं। सप्लाई के लिए वे दूसरे राज्यों पर निर्भर हैं। ऑक्सीजन कि कमी से मरते लोगों कि बड़ी संख्या से संतप्त सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से एक राष्ट्रीय कोविड योजना बनाने को कहा है जिससे  ऑक्सीजन सप्लाई की कमी दूर की जा सके।  देश के कई राज्यों में अस्पतालों के बाहर बोर्ड टांग दिये गए जिसमें अस्पताल में ऑक्सीजन उपलब्ध न होने का हवाला दिया गया है। कोविड से निपटने में इस समय रेमडेसिविर इंजेक्शन को बेहद मददगार माना जा रहा है और इसकी काला बाजारी भी बड़े पैमाने पर सामने आई है। भारत में सात कंपनियाँ मायलेन,हेट्रो हेल्थ केयर,जुबलियंट,सिप्ला,डॉक्टर रेड्डी लैब,सन फ़ार्मा और ज़ाइडस कैडिला रेमडेसिविर का उत्पादन करती हैं। कोरोना की दूसरी लहर को लेकर भारत में तैयारियों और चेतावनियों का अभाव इस कदर रहा कि रेमडेसिविर का प्रोडक्शन तीन महीने रोक दिया गया था,इसका कारण बीते दिसंबर से लेकर इस साल फ़रवरी तक रेमडेसिविर की कम या लगभग न के बराबर माँग को बताया गया। तीन महीने तक न के बराबर प्रोडक्शन होना इस दवा की आपूर्ति में कमी के पीछे बड़ा कारण बन गया।


इस समय देश कोरोना की विपदा से बूरी तरह जूझ रहा है और इसकी जद में कम उम्र के वे लोग भी आ गए है,जिन्हें वैक्सीन लग जाने से वे ज़िंदा बच सकते थे। जाहिर है देश के नेतृत्व को यह समझने की जरूरत है कि किसी राष्ट्र के कितने भी ऊंचे आदर्श और कितनी ही उदार अभिलाषाएं हो,वह अपनी विदेश नीति को राष्ट्रीय हित के अतिरिक्त किसी अन्य धारणा पर आधारित नहीं कर सकता। अंतत: राष्ट्रीय चरित्र और राष्ट्रीय शक्ति का सार तो राष्ट्र के लोगों की सुरक्षा में ही निहितहोना चाहिए,फिर वह राष्ट्रीय स्वार्थ या अव्यवहारिक आदर्शवाद के रूप में ही क्यों न हो। अमेरिका से यह सीखने की जरूरत है।  

 

 

 

 

 

यूक्रेन का संकट ukraine rusia

 जनसत्ता


                                         

                                                                                  

रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन को सोवियत संघ के बिखराव का बड़ा दर्द रहा है। इस बिखराव के तीन दशक बीत चूके है लेकिन अलग हुए देशों की स्वतंत्र नीतियों को लेकर पुतिन अक्सर असहज हो जाते है। यूक्रेन को लेकर रूस की आक्रामक नीतियों में पुतिन की अधिकनायकवादी विचारधारा प्रभावी रही है,जिसके अनुसार रूस के पड़ोसियों की नीतियां रूस के हितों से अलग नहीं हो सकती और जब भी कोई देश ऐसा करने की मंशा दर्शाता है,पुतिन आक्रामक हो जाते है। इस समय रूस यूरोप से लगे अपने पड़ोसी यूक्रेन की सीमा पर अपनी फौजों का जमावड़ा बड़ा रहा है और पुतिन ने साफ कहा है कि यदि यूक्रेन ने अपने देश में रह रहे रूसी समर्थित नागरिकों को निशाना बनाने कि कोशिश की तो इसके गंभीर परिणाम होंगे। 


दरअसल अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में शक्ति संतुलन को बनाएं रखने के लिए हस्तक्षेप को एक प्रमुख साधन माना जाता है। यह देखा गया है कि अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में राष्ट्रों के महत्वपूर्ण हितों के लिए या तो खतरा  विद्यमान रहता है या खतरा उत्पन्न होने कि संभावना बनी रहती है। इसलिए राष्ट्र उनकी रक्षा के लिए सतत सजग और प्रयत्नशील रहते है। शक्ति संतुलन को बनाएं रखने के लिए विभिन्न राज्यों के साथ गठबंधन अथवा मैत्री संधियों कि नीति एक प्रमुख साधन रही है। सोवियत संघ के विघटन के बाद रूस के नेतृत्व में सामूहिक सुरक्षा और सामूहिक हितों के प्रति एक दूसरे पर निर्भरता बढ़ाने के लिए एक स्वतंत्र राष्ट्र  संगठन सीआईएस  का गठन 8 दिसम्बर 1991 को किया गया था जिसे मिंस्क समझौता कहा जाता है। सोवियत संघ के विघटन के परिणामस्वरूप अस्तित्व में आये राज्यों की  सीआईएस के अंतर्गत सामूहिक नीतियां बनाई गई। यह संगठन मुख्य रूप से व्यापार,वित्त,कानून निर्माण,सुरक्षा तथा सदस्यों के मध्य समन्वय स्थापित करने जैसे कार्य करता है। इस संगठन की स्थापना में यूक्रेन का भी अहम योगदान माना जाता है। यूक्रेन सोवियत संघ से अलग हुआ एक बड़ा देश है जो यूरोप में आता है और इसे  सामरिक रूप से एक शक्तिशाली देश माना जाता है। इसका  एक कारण यह भी है कि अविभाजित सोवियत संघ के अधिकांश आणविक केंद्र यूक्रेन में रहे थे अत: यह न केवल रूस के लिए अहम बना रहा बल्कि यूरोपियन देशों की नजर भी इस पर बनी रही। 


 

रूस बनने के बाद देश के पहले राष्ट्रपति बोरिस येल्तसिन ने सीआईएस से संबद्द देशों से आपसी सहमति के आधार पर सम्बन्धों को आगे बढ़ाने की नीति पर काम किया,लेकिन पुतिन युग के प्रारम्भ होते ही स्थितियां बदलने लगी। पुतिन ने रूसी प्रथम की भावना पर काम करते हुए पड़ोसी देशों पर दबाव बढ़ाने की नीति अपनाई। उनके मन में सोवियत संघ के बिखराव को लेकर दर्द तो था ही,अत: यूक्रेन जैसे शक्तिशाली देशों से उनके संबंध खराब होने लगे। इसका व्यापक असर  जल्द सामने आया और यूक्रेन की यूरोप समर्थित नीति खुलकर सामने आ गई। इसमें यूक्रेन की यूरोप के महत्वपूर्ण सहयोगी बनने के साथ ही नाटो का सदस्य बनने की इच्छा शामिल थी। 1949 में स्थापित नाटो यूरोप और उत्तरी अमेरिका के देशों के मध्य एक सैन्य गठबंधन है जिसका उद्देश्य साम्यवाद और रूस का प्रभाव कम करना रहा है। नाटो सामूहिक रक्षा के सिद्धांत पर काम करता है,जिसका तात्पर्य एक या अधिक सदस्यों पर आक्रमण सभी सदस्य देशों पर आक्रमण माना जाता है। नाटो की अपनी सेना है जिसमें सभी सदस्य देशों की सेना  की भागीदारी होती है। जब किसी मुद्दे पर राजनीतिक तरीके से समाधान नहीं निकलता है तो फिर उसके लिये  सैन्य ऑपरेशन का विकल्प आजमाया जाता है। अफगानिस्तान,इराक,सीरिया और आईएसआईएस समेत दुनिया के कई भागों में विभिन्न सैन्य अभियानों में नाटो की भागीदारी देखी गई है।


जाहिर है यूक्रेन का नाटो के साथ खड़े होने का संकल्प रूस के लिए संदेह बढ़ाता रहा है और इसी के परिणामस्वरूप क्रीमिया संकट उभर कर सामने आया था।  यह पूर्वी यूरोप  में यूक्रेन का एक स्वशासित अंग था। 2014 को हथियारबंद रूस समर्थकों ने यूक्रेन के क्रीमिया प्रायद्वीप में संसद और सरकारी इमारतों पर कब्जा कर लिया। यह सब बेहद सुनियोजित तरीके से किया गया जिसका उद्देश्य यूक्रेन को सबक सिखाना नजर आता था। क्रीमिया के आंतरिक हालात का फायदा उठाते हुए पुतिन ने वहां अपनी सेना भेजने में बिल्कुल देर नहीं की। रूस का कहना था की यूक्रेन वहां रहने वाले रूसी मूल के लोगों पर अत्याचार कर रहा है,ऐसे में रूसी मूल के लोगों के हितों की रक्षा करना रूस की जिम्मेदारी है। रूस ने इसके बाद राजनीतिक स्तर पर कदम उठाते हुए अन्य प्रयास करने से भी गुरेज नहीं किया और  क्रीमिया की संसद ने  रूसी संघ  का हिस्सा बनने के पक्ष में मतदान किया। इसी जनमत संग्रह के परिणामों को आधार बनाकर रूस ने यह घोषणा कर दी की अब क्रीमिया रूसी फेडरेशन का हिस्सा बन गया है। इस घटना से यूक्रेन और रूस के बीच तनाव गहरा गया जो बदस्तूर जारी है। रूस यूक्रेन को लेकर आक्रामक कूटनीति का प्रदर्शन करता रहा है और यूक्रेन से द्विपक्षीय संबंध बनाने वाले देशों पर भी दबाव बनाता रहा है।


दूसरी तरफ यूक्रेन के समर्थन में अमेरिका आक्रामक कूटनीति अपनाता रहा है। क्रीमिया के रूस में विलय को लेकर तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने रूस की कड़ी आलोचना करते हुए इसे अंतर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा के लिए खतरा बताया था। यूक्रेन का आरोप है कि रूसी खुफिया एजेंसी केजीबी यूक्रेन को तोड़ने के लिए वहां रह रहे रूसी मूल के लोगों को भड़काने की योजना पर लगातार काम कर रही है। अमेरिका ने इसकी पुष्टि भी की है। इस समय जब यूक्रेन की सीमा पर भारी तनाव है,उसका असर अमेरिका और रूस के सम्बन्धों पर भी पड़ता दिखाई दे रहा है। इस साल अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडन के सत्ता में आने के बाद अमेरिका ने रूस के कई अधिकारियों को देश निकाला दे दिया है,वहीं रूस ने भी कुछ अमेरिका अधिकारियों पर प्रतिबंध लगा दिए है।  यूक्रेन के समर्थन में अमेरिका ने सामरिक मदद देने कि बात कही है वहीं रूस ने अमेरिका से किसी भी आक्रामक कदम उठाने को लेकर आगाह किया है।


हालांकि पुतिन युग में वैश्विक स्तर पर रूस की बढ़ती महत्वाकांक्षाओं को देखकर लगता है कि यूक्रेन के संकट पर उसका रुख महज क्षेत्रीय प्रभुत्व कायम करने नीति से कहीं आगे बढ़कर है। रूस के राष्ट्रपति के तौर पर ताकतवर बनकर उभरे पुतिन कि अधिकनायकवादी नीतियों को उनके देश में व्यापक समर्थन हासिल है,इसके साथ ही विश्व में रूस के शक्ति प्रदर्शन को रूसी जनता द्वारा लगातार सराहा जा रहा है। इससे उत्साहित पुतिन अमरीका और नाटो को वैश्विक स्तर पर चुनौती देते हुए नजर आ रहे है। इसके साथ ही वे चीन से मिलकर अमेरिका के विरुद्द आर्थिक और सामरिक दबाव बनाने कि नीति पर भी लगातार काम कर रहे है।  यह समर्थन म्यांमार से लेकर ईरान और उत्तर कोरिया तक दिखाई देता है। अमेरिका और यूरोप से विभिन्न कारणों से प्रतिबंधित देश रूस के लिए सामरिक रूप से बड़े बाज़ार बन कर उभरे है। ईरान रूस से व्यापक हथियार खरीद रहा है और ऐसा माना जाता है कि उसके हथियारों को उन्न्त करने और परमाणु केन्द्रों को अत्याधुनिक करने में भी रूस गोपनीय तरीके से मदद कर रहा है।


   

इस बीच अमेरिका के राष्ट्रपति बाइडेन ने रूसी राष्ट्रपति पुतिन के साथ एक शिखर बैठक करने का भी प्रस्ताव रखा है,अभी इन बैठकों कि तारीख और एजेंडा तय नहीं हुआ है,लेकिन दोनों महाशक्तियों के बीच होने वाली यह बैठक बेहद महत्वपूर्ण हो सकती है। इसमें यूक्रेन को लेकर क्या सहमति बनती है,यह देखना भी बड़ा दिलचस्प होगा। पिछले सालों में यूक्रेन ने अपनी सेना को अत्याधुनिक करने के साथ ही अमेरिका से सामरिक सहयोग बढ़ाया है। ऐसे समय में जब मध्य और पूर्वी यूरोप में दुनिया की बड़ी शक्तियों के बीच भू-राजनीतिक मुक़ाबला तेज़ हो रहा है और यूक्रेन पश्चिमी देशों के साथ अपने संबंधों को मज़बूत करने की लगातार कोशिश कर रहा है,ऐसे में रूस पर सामरिक दबाव बनाने के लिए नाटो और अमेरिका के लिए यूक्रेन निर्णायक भूमिका में नजर आता है।  नाटो की सर्वोच्च प्राथमिकताओं में से एक समुद्री सुरक्षा है। जिसके लिये नाटो ने अटलांटिक महासागर और हिन्द महासागर को केंद्र में रखा है,यहीं नहीं उसके लिए काला सागर सामरिक रूप से बहुत  अहम है जो रूस और यूक्रेन से भी जुड़ा है। नाटो जमीन,आसमान,स्पेस और साइबर चुनौतियों से निपटने के लिए अपनी सेना को अत्याधुनिक बनाने की ओर अग्रसर है,इसमें उसकी सीधी प्रतिद्वंदिता रूस और चीन से है।  काला सागर उत्तर-पूर्व में  रूस  और  यूक्रेन तथा  दक्षिण में तुर्की के बीच स्थित है। पिछले कुछ सालों में तुर्की के  राष्ट्रपति रेचेप तैय्यप अर्दोआन सुर्ख़ियों में  रहे है और उनकी विस्तारवादी नीतियां नाटो देशों के लिए चिंता का सबब बन गई है। तुर्की की सेना लीबिया,सीरिया और अज़रबैजान में जिस प्रकार सक्रिय रही और अर्दोआन ने अपनी विस्तारवादी नीति को बढ़ावा दिया  उसमें उसे कई मर्तबा रूस का समर्थन मिलता रहा है। आर्मेनिया और अज़रबैजान युद्द में तुर्की को रूस का समर्थन मिला और इसी कारण नागोर्नो और काराबाख़ क्षेत्र आर्मेनिया के हाथ से चला गया। अर्दोआन अपनी गनबोट कूटनीति से मुस्लिम राष्ट्रों का समर्थन का सपना देख रहे है और रूस के लिए मुस्लिम देश हथियारों का बड़ा बाज़ार है।


ऐसे में रूस न केवल यूक्रेन पर दबाव डाल रहा है बल्कि अपनी आक्रामक नीतियों से अमेरिका समेत नाटो को यह संदेश भी देने की कोशिश भी कर रहा है की जरूरत पड़ने पर उसे विश्व के कई देशों का समर्थन हासिल होगा। रूस आने वाले समय में यूक्रेन में राजनीतिक अस्थिरता को बढ़ावा देकर यूरोप के इस देश को अशांत कर सकता है और यहीं महाशक्तियों की नीतियां भी रही है। इस समूचे घटनाक्रम में यह भी साफ हो जाता है कि यूक्रेन की शुरुआती नीतियां नियंत्रण और संतुलन पर आधारित नहीं रही, इस नव राष्ट्र को भू राजनीतिक स्थिति को परखते हुए अपनी वैश्विक स्थिति को धीरे धीरे मजबूत करना था। लेकिन यूक्रेन की रूस से अलग होते ही उसके सामने खड़े होने की जल्दबाज़ी में वह नाटो और रूस के बीच प्रतिद्वंदिता का मैदान बन गया है। यह स्थिति जहां यूक्रेन के लिए घातक साबित हो रही है वहीं  पुतिन के लिए मुफीद है। वे यूक्रेन को तोड़कर उसके क्षेत्रों को रूस में मिलाने की नीति पर काम कर रहे है,इससे पुतिन की लोकप्रियता रूस में अभूतपूर्व तरीके से बढ़ सकती है,जिसे एलेक्‍सी नवलनी प्रकरण से धक्का पहुंचा था। जाहिर है पुतिन यूक्रेन संकट को बनाएं रखना चाहते है और इसका अपने देश में राजनीतिक और  वैश्विक स्तर पर कूटनीतिक फायदा लेना चाहते है। पुतिन इस प्रकार कि कूटनीति के माहिर खिलाड़ी भी रहे है।


वहीं अमेरिका के राष्ट्रपति बाइडेन के लिए यूक्रेन संकट का ठीक ढंग से समाधान करना बेहद जरूरी होगा। यदि पुतिन अपने इरादों में सफल हो गए तो इसका असर दक्षिण चीन सागर तक प्रभावित कर सकता है। ऐसे में रूस के प्रमुख सहयोगी के तौर पर उभरें चीन की अधिनायकवादी और आक्रामक गतिविधियों को बढ़ावा मिल सकता है। इससे व्यापक अमेरिकी हित प्रभावित हो सकते है और इससे विश्व शांति के समक्ष नई चुनौतियां भी बढ़ सकती है। 

अफगानिस्तान पर असमंजस आत्मघाती,afganstan india

 राष्ट्रीय सहारा   

                        


इतिहास को भुलाकर गहरी रणनीति के विचार को आगे लाने का अवसर एक बार फिर भारत के सामने है। करीब चार दशक से राजनीतिक अराजकता,अस्थायित्व,आतंकवाद,आंतरिक गतिरोध और वैश्विक हस्तक्षेप से जूझते अफगानिस्तान का भविष्य अनिश्चितता कि ओर बढ़ रहा है। इस समय दक्षिण एशिया के सबसे बड़े देश और अफगानिस्तान के पारंपरिक मित्र भारत की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण होना चाहिए,लेकिन कूटनीतिक हलकों में ऐसा बिल्कुल भी नहीं है। अफगानिस्तान को लेकर हो रही बातचीत या महाशक्तियों के फैसलों में भारतीय हित नदारद है। 



दरअसल दो दशक से अफगानिस्तान में तालिबान को उखाड़ फेंकने की तमाम कोशिशों में नाकाम रहने के बाद  अमेरिकी सेना वहां से जाने को तैयार है और इस प्रकार एक बार फिर इस दक्षिण एशियाई देश में तालिबान का कथित इस्लामी शासन  कायम होने का खतरा मंडरा गया है। पाकिस्तान के पूर्व सैनिक तानाशाह जनरल मुशर्रफ कहा करते थे कि वे पाकिस्तान को एक उदारवादी देश बनाने के लिए प्रतिबद्ध है,तालिबान भी विश्व समुदाय यह भरोसा दिला रहा है कि वे अफगानिस्तान में आतंकवाद को नहीं पनपने देंगे और इस देश को एक उदार देश बनाएँगे। पाकिस्तान में कथित लोकतंत्र होने के बाद भी यह देश उदार नहीं हो पाया,फिर धार्मिक उन्माद के आधार पर स्थापित तालिबान पर वैश्विक समुदाय कैसे भरोसा कर सकता है,यह आश्चर्यजनक है। वहीं भारत अफगानिस्तान को लेकर बदलते घटनाक्रम पर अब तक खामोश है और यह ठीक तीन दशक पहले की उस भारतीय कूटनीति कि याद दिला रहा है जब भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव ने रुको और देखों की नीति अपनाई थी और इसके दूरगामी परिणाम बेहद नुकसानदेह साबित हुए है। वे अफगानिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति नजीबुल्ला को भारत में शरण देने को लेकर चार साल तक असमंजस में रहे। इस कारण नजीबुल्ला अपने ही देश में फंसे रहे और उन्हें भारतीय दूतावास के स्थान पर संयुक्त राष्ट्र संघ के दफ्तर में रहने को मजबूर होना पड़ा। अंतत: 27 सितंबर,1996 को अफगानिस्तान स्थित यूएनओ के दफ़्तर में घुसकर  नजीबुल्लाह को तालिबान के लड़ाकों ने खींच कर उनके कमरे से निकाला और सिर में गोली मार कर राजमहल के नज़दीक के लैंप पोस्ट से टांग दिया था। नजीबुल्ला की हत्या के बाद अफगानिस्तान ने तालिबान का बर्बर शासन देखा। तालिबान को पाकिस्तान की खुफियाँ एजेंसी आईएसआई का शिशु माना जाता है। अफगानिस्तान में कश्मीर चरमपंथियों को व्यापक प्रशिक्षण दिये गए,इससे कश्मीर में आतंकवाद का सबसे बुरा दौर देखा गया। 1999 में भारतीय विमान का अपहरण कर उसे कांधार ले जाया गया। भारत की अटलबिहारी सरकार ने इसके बदले कई कुख्यात आतंकवादी छोड़े और इन्हें लेकर भारत के तत्कालीन विदेश मंत्री जसवंतसिंह स्वयं कांधार गए। इस समूचे घटनाक्रम में भारत की छवि एक कमजोर देश के रूप में उभर कर सामने आई थी।


2001 में अफगानिस्तान पर अमेरिकी हमले के बाद तालिबान कमजोर हुआ है और सामरिक रूप से इसका सीधा लाभ भारत को मिला है। यह भी देखा गया है कि अफगानिस्तान के लोग भारत को पसंद करते है और वे इस देश के भविष्य निर्धारण में भारत की बड़ी भूमिका भी देखना चाहते है।   

अफ़गानिस्तान में इस समय बैंकिंग,सुरक्षा और आईटी सेक्टर की कंपनियों के अलावा अस्पतालों को स्थापित करने में भारत की बड़ी भूमिका है और कृषि, विज्ञान,आईटी और शरणार्थी पुनर्वास के कार्यक्रमों में भी वह सहयोग दे रहा है। ईरान के चाबहार बंदरगाह से अफ़गान सीमा तक रेल चलाने की भारत की योजना है और इससे भारत यूरोप तक पहुँच सकता है। इसे चीन की वन बेल्ट योजना के प्रभाव को रोकने के तौर पर भी देखा जाता है।


अफगानिस्तान में भारत की मौजूदगी पाकिस्तान के लिए हमेशा चिंता का विषय रही है। अफगानिस्तान से भारत और पाकिस्तान के सम्बन्धों की जटिलता पर बेनज़ीर भुट्टों ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि,अफगानिस्तान का पाकिस्तान से एक लंबे समय से सीमा रेखा डूरन्ड लाइन को लेकर झगड़ा रहा है। इसके अलावा पख्तून लोगों ने 1947 में हिंदुस्तान के बँटवारे के समय,पाकिस्तान बनाने कि बड़ी खिलाफत की थी। अफगानी लोग खुद को हिंदुस्तान से ज्यादा जुड़ाव महसूस करते है,उन्हें पाकिस्तान पक्ष से असुरक्षा का भाव रहता है।


अफगानिस्तान और पाकिस्तान के बीच डूरन्ड रेखा को लेकर विवाद है। दोनों देशों के बीच इसी रेखा को सीमा निर्धारण का आधार माना जाता है। अफगानिस्तान की लोकतांत्रिक सरकारें पाकिस्तान को चुनौती देती रही है जबकि तालिबान को लेकर स्थिति अलग है।  तालिबान पाकिस्तान की सेना के नियंत्रण में है और तालिबान के नेता और उनके परिवार पाकिस्तान के शहरों में रहकर यहां सुविधाओं का लाभ उठाते हैं।  जाहिर है अफगानिस्तान में तालिबान का शासन पाकिस्तान के लिए मुफीद है और इसीलिए उसने अफगानिस्तान में शांति स्थापित होने,लोकतंत्र कायम होने और तालिबान को खत्म करने के वैश्विक प्रयासों को कभी सफल होने ही नहीं दिया है। इसके साथ ही तालिबान को अफगानिस्तान की भौगोलिक स्थिति और पाकिस्तान तथा चीन के सामरिक,राजनीतिक और आर्थिक सहयोग का बड़ा फायदा मिलता रहा है। अफगानिस्तान के घने और ठंडे पर्वतीय प्रदेश,ऊंची ऊंची घाटियां,ऊबड़ खाबड़ रास्ते तालिबान और मुजाहिदीनों के  लिए सुरक्षित पनाहगह माने जाते है। इस देश के अधिकांश क्षेत्रों में घात लगाकर हमला करने में ज्यादा सफलता मिलती है। 1979 में तत्कालीन समय की विश्व की श्रेष्ठ सोवियत संघ की सेना के विरुद्द मुजाहिदीनों को सफलता मिलने का प्रमुख कारण यहीं था की इन आतंकवादी समूहों की छोटी मोटी टुकड़ियों ने गुरिल्ला पद्धति से अपने से अधिक सुसज्जित नियमित सेना के विरुद्द कम से कम क्षति उठाकर उन पर श्रेष्ठता स्थापित कर ली। पिछले दो दशकों से अमेरिकी सेना को भी इस कठिन स्थिति का सामना करना पड़ा। हालांकि अमेरिका और नैटो सेना ने हवाई हमलों और सेटेलाइट का व्यापक उपयोग कर अत्याधुनिक तरीके से तालिबान को गहरी क्षति पहुंचाई। ऐसे में अमरीका की हवाई शक्ति के बिना अफ़ग़ान सेना का कोई भविष्य दूर दूर तक नजर नहीं आता है और अमेरिका के वहां से जाते ही तालिबान स्थापित सरकार को खत्म करके फिर से शासन पर काबिज हो जाएगा,इसकी पूरी संभावना है।


इस समय अफगानिस्तान में चीन की दिलचस्पी काफी हद तक बढ़ गई है और पाकिस्तान चीन की  महात्वंकांक्षी वन बेल्ट परियोजना में शामिल करने के लिए अफगानिस्तान पर लगातार दबाव बना रहा है। भारत इस परियोजना का बड़ा विरोधी रहा है और इसमें अफगानिस्तान के शामिल होने से यह सामरिक रूप से चुनौतीपूर्ण ही होगा।  इसके साथ ही इस्लामिक स्टेट भी अफगानिस्तान के कई इलाकों में प्रभावी है। तालिबान के प्रभाव में आते ही यह देश फिर आंतरिक अशांति का सामना करेगा और इससे इस्लामिक स्टेट मजबूत होगा,जिसके दूरगामी परिणाम भारत समेत पूरी दुनिया के लिए घातक हो सकते है।


अफ़ग़ानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ़ ग़नी देश में लोकतांत्रिक सरकार की स्थापना चाहते है जबकि उन पर यह वैश्विक दबाव बढ़ रहा है कि वो तालिबान को सत्ता में लाएं और एक संभावित गृहयुद्ध की ओर जाने से बचें। भारत को यह समझना होगा कि तालिबान का अफगानिस्तान की सत्ता में काबिज होने से कश्मीर में आतंकवाद  पुन: उभर सकता है। जाहिर है भारत को अपने राष्ट्रीय हितों की सुरक्षा के लिए अफगानिस्तान में लोकतांत्रिक चुनाव और लोकतांत्रिक सरकार के पक्ष में आवाज बुलंद करना चाहिए।

 

 

भीड़तंत्र की मूर्खता की पराकाष्ठा bhidtantra india

 दबंग दुनिया


                    

गौतम बुद्ध राजघराने से जुड़े थे और उन्हें सत्ता के अवगुणों का बेहतर ज्ञान था। वे सत्ता के अहम में डूबे राजा और उनकी राजनीति को दुखद विज्ञान कहते थे। लगभग डेढ़ हजार साल पहले  दिए गए बुद्द के ये राजनीतिक विचार भारतीय लोकतंत्र की वर्तमान प्रयोगशाला में राजनीति के स्तर और उसके अंतिम लक्ष्य को चित्रित करने के लिए काफी है।  बुद्द ने आगे कहा था कि सत्ता का लोभ राजा के लिए सबसे प्रिय होता है और राजनीति ऐसी चीज़ है जो अपने माता पिता के हनन को भी जायज ठहरा देती है। अत: राजनीति दारुण दुख का विज्ञान है।


दरअसल भारत के विकास के परम वैभव को देखने कि मदहोशी में डूबी भीड़ लाशों के ढेर और जलती हुई चिताओं से रोशन राजनीतिक पार्टियों की चुनावी सभाओं में बेतहाशा उमड़ रही है। इन सभाओं में सपने बांटे जा रहे है और लोग पागलों कि तरह उन सपनों को लूट लेने को आमादा नजर आ रहे है। यह भीड़ महाकुंभ में भी नजर आई जो मुक्ति के पवित्र स्नान की भावना से दूर सामाजिक दुख और अवसाद का कारण बनने को ज्यादा प्रेरित नजर आई। आखिर भारत जैसे प्राचीन और जियो और जीने दो की सभ्यता वाली भूमि पर यह कैसे संभव हो सकता है। लेकिन यह हम सबने कुंभ के मेले मे देखा। कुंभ जैसे स्नान मुख्यत: साधू,सन्यासियों या तपस्वियों के लिए एक प्रमुख धर्म या संस्कार होता है। इससे जनता को दूर रखा जा सकता है। धर्म को आचरण से ज्यादा प्रदर्शन की वस्तु समझने वाले आधुनिक समाज को न तो महामारी की विभीषिका से बचाने के लिए इस स्थान से दूर रखने के बारे में सोचा गया और न ही जनता को स्वयं यह परवाह थी।


  

यह सब भारत के लोकतंत्र में ही हो सकता है जहां जिंदगी के आसन्न संकट के बीच भी धार्मिक और चुनावी महोत्सव जारी है। बंगाल को भारत भूमि में विद्वत्ता के लिए पहचाना जाता है लेकिन यह राजनीतिक कारणों से किसी राष्ट्रीय आपदा के संकट को स्वीकार करने से भी इंकार कर देंगी,यह कल्पना किसी ने नहीं की होगी। महामारी के प्रकोप से मरते लोग और उससे उपजी बेबसी,निराशा और हताशा भारत की त्रासदी बन गई है। यह किसी एक स्थान,गांव,कस्बे या शहर का हाल नहीं है बल्कि समूचे भारत का दृश्य है। इस बीच देश के कई राज्यों में विधानसभा चुनाव हो रहे है और नेताओं के चमकीले भाषण बदस्तूर जारी है। इन राजनीतिक कार्यक्रमों में उमड़ती भीड़ अपनी मौत कि आहट को क्यों न सुन पा रही है,यह आश्चर्यजनक है।   


सवाल यह भी उठता है कि क्या राष्ट्रीय आपदा के संकट में भारत में कुछ राज्यों में होने वाले चुनावों को टाला जा सकता था। बेशक संवैधानिक रूप से तो यह बेहद आसान था लेकिन  इस पर विचार करना न तो सत्ताधारी दल को जरूरी लगा न ही देश की विपक्षी पार्टियों ने ऐसी कोई पेशकश की। इसका कारण यह भी तो है कि भारत में सत्ता भले ही परिवर्तित होती रहे लेकिन सत्ता के केंद्र में अभिजनवादी होते है और उन्हें आम जनता के हितों से कोई ज्यादा सरोकार नहीं होता। इन अभिजनों को लोकतंत्र भीड़ तंत्र नजर आता है जो अपंग होकर भी लंबी दौड़ लगाने का माद्दा रखते है और राजनीतिक दल उनसे यह आसानी से करवा भी लेते है।


एक बार फिर देश के कई इलाकों से भूखे प्यासे मजदूर वापस अपने घरों को लौट रहे है। उसमें से कितने ज़िंदा लौट पाएंगे यह किसी को पता नहीं और न ही इसकी चिंता करने की किसी ने जरूरत समझी। जनता चुनावों में जीत दिलाकर सत्ता की ऑक्सीजन राजनीतिक पार्टियों को इसीलिए देती है क्योंकि कठिन समय में जिंदगी को बचाने के लिए जब उन्हें ऑक्सीजन की जरूरत पड़े,उन्हें मिल जाएँ। ऐसा हुआ नहीं। कई मासूम,युवा और बूढ़े आक्सीजन के इंतजार में जिंदगी से अलविदा कह गए। पूरे के पूरे परिवार उजड़ गए। न जाने कितने सपने इन लोगों के साथ चले गए और जो पीछे छूट गए उनके जीवन का क्या होगा किसी को पता नहीं।


इसके लिए जिम्मेदार भी तो भीड़ तंत्र ही है जो अपने सुनहरे भविष्य की पहचान करने में अक्सर नाकाम रहता है। उसकी बेहतरी शिक्षा,स्वास्थ्य और सड़कों में है लेकिन उसे तो जातीय और धर्म में सब कुछ नजर आता है।  भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है,लोकतंत्र की जड़े भले ही इसमें मजबूत हो लेकिन अंतत: यह जागरूक लोकतंत्र बिल्कुल भी नहीं है। 


एथेंस के दार्शनिक प्लेटो ने लगभग ढाई हजार साल पहले अपनी किताब 'द रिपब्लिक' में मतदाताओं की योग्यता और सोच पर सवाल उठाएँ थे। उन्होने कहा था कि मतदाता अप्रासंगिक बातों जैसे कि उम्मीदवार के रूपरंग आदि से प्रभावित हो सकते हैं। उन्हें ये अहसास नहीं रहेगा कि शासन करने से लेकर सरकार चलाने के लिए योग्यता की ज़रूरत होती है। किसी नेता के लिए मतदान करना उन्हें काफ़ी जोखिम भरा लगा।  


वहीं भारत के करोड़ों लोगों के लिए मतदान से बढ़कर कुछ भी नहीं है,यहां तक कि जिंदगी भीं नहीं। जब आम आदमी जिंदगी के लिए इतना लापरवाह होगा तो सत्ता के लिए तो उनकी जिंदगी सस्ती होगी ही।  2018 में सुप्रीम कोर्ट ने एक मामले की सुनवाई करते हुए कहा था कि,कोई भी नागरिक अपने आप में क़ानून नहीं बन सकता है। लोकतंत्र में भीड़तंत्र की इजाज़त नहीं दी जा सकती। शुक्र है माननीय न्यायालय का जो भारत को लोकतन्त्र समझती है। जबकि यकीनन हम भीड़ तंत्र का हिस्सा है जो सत्ता से उचित,विवेकपूर्ण और बुद्धिमत्तापूर्ण फैसलों की अपेक्षा नहीं करती बल्कि वह भावनाओं के राज को पसंद करती है। अब यही भावनाएं मौत का मंजर लेकर खौफ का कारण बन गई है जो जलती हुई चिताओं के रूप में हम सबक़ों चिढ़ा रही है।  

 

 

क्या संविधान ख़तरे में है,sanvidhan khtre men hai

 

पॉलिटिक्स

                              


संविधान के लिए सिर्फ यह काफी नहीं है कि उसमें लिखा क्या गया है,बल्कि उससे ज्यादा महत्वपूर्ण यह हो जाता है कि संविधान को आप किस तरह पढ़ रहे है,समझ रहे है और उसे किस तरह पढ़ाया जा रहा है। यहां तक की उसकी व्याख्या किस तरह की जा रही है,यह भी अहम हो जाता है। डॉ.आंबेडकर इस बात को भलीभांति जानते भी थेउन्होंने कहा भी था कि संविधान पर अमल केवल संविधान के स्वरूप पर निर्भर नहीं करता,बल्कि व्यवस्थाओं का संचालन करने वाले लोगों तथा अपनी राजनीति की पूर्ति के लिए बनाये जाने वाले राजनीतिक दलों पर निर्भर करता है


आज़ाद भारत के लोकतांत्रिक जीवन में संविधान को अलग अलग तरीके से समझने और समझाने की कोशिशें बेहद आम है  वैसे देश का संविधान इतना उदार और वृहत है की न्यायालय के इतर भी लोग और राजनीतिक पार्टियां अपनी पसंद के अनुसार संविधान को देखने और समझने की कोशिश करते रहते है।  संविधान लागू ही हुआ था कि 1951 में रोमेश थापर बनाम राज्य मद्रास के मामले में न्यायालय की एक संविधान पीठ द्वारा यह कहा गया कि सर्वोच्च न्यायालय का गठन  लोगों के मौलिक अधिकारों के रक्षक और संरक्षक के तौर पर किया गया है।  जाहिर है इससे यह साफ हो जाता है कि कोई अन्य संस्था या निकाय आम जनमानस के मौलिक अधिकारों का हनन नहीं कर सकती। आज़ादी के बाद सैंकड़ों ऐसे मामले मिल जाएंगे जब राजनीतिक या सामाजिक द्वेषवश लोगों को कानूनी मामलों में फंसा दिया जाता है। वे दसों साल जेल कि सजा काट चुके होते है,तब यह तथ्य सामने आता है कि वे निर्दोष है। इस दौरान कथित मुलजिम का परिवार बर्बाद हो चूका होता है,जवान बेटे कि रिहाई का इंतजार करते बूजुर्ग माँ बाप मर जाते है। पत्नी और कहीं चली जाती है और जेल से निकलने के बाद जिंदगी में सब कुछ लूट चूका होता है। ऐसे मामलों में पुलिस की जांच और न्यायालय का निर्णय का फैसला सब कुछ तय कर देता है लेकिन इन गंभीर गलतियों को व्यवस्था का एक अंग स्वीकार कर लिया गया है। 


1973 में सुप्रीम कोर्ट ने  केशवानंद भारती बनाम स्टेट ऑफ़ केरला केस में कहा था कि संसद की शक्ति संविधान संशोधन करने की तो है लेकिन संविधान की प्रस्तावना के मूल ढांचे को नहीं बदला जा सकता है। कोई भी संशोधन प्रस्तावना की भावना के खिलाफ़ नहीं हो सकता है। यह देखा गया है कि कार्यपालिका और व्यवस्थापिका के लिए ऐसी कोई व्यवस्था स्वीकार्य करना मुश्किल हो जाता है जहां उनकी सर्वोच्चता को चुनौती मिले।  ऐसे में संविधान में इच्छा के अनुसार बदलाव भी हुए,समीक्षा करने का दुस्साहस भी किया गया और इसके साथ ही संवैधानिक पदों पर बैठे जिम्मेदार नेता चुनावी सभाओं में प्रस्तावना की भावना की सरेआम धज्जियां उड़ाने से नहीं चूकते है। यह बात और है कि चुनाव आयोग किस पर संज्ञान ले और किस पर खामोशी ओढ़ ले,इसे लेकर अनिश्चितता बनी रहती है। केशवानंद भारती केस में सुप्रीम कोर्ट ने 703 पन्नों का फैसला दिया था और यह  साफ किया था की संसद की शक्तियां अनियंत्रित नहीं हैं। लेकिन सरकार,उनके नुमाइंदों और बहुमत को कैसे नियंत्रित करें,यह संकट भी बना रहता है। देश के लोकतांत्रिक इतिहास में रिकार्ड लोकसभा सीटें जीतकर बनने वाली राजीव गांधी की सरकार ने शाहबानों के केस में समानता के अधिकार के कानूनी ढांचे को ही निशाना बनाने से गुरेज नहीं किया,तो कर्नाटक के एक दिग्गज नेता और केंद्रीय राज्य मंत्री अनंतकुमार हेगड़े ने भारत के संविधान से 'सेक्युलर' शब्द को हटाने कि बात कह दी।


 

अटल बिहारी वाजपेई की सरकार ने संविधान  से उत्पन्न विसंगतियों को दूर करने के लिए एक समीक्षा आयोग बनाया और उसकी कमान एक पूर्व न्यायधीश को सौंप दी। इस पर तत्कालीन राष्ट्रपति के.आर.नारायण ने तल्ख टिप्पणी की। उन्होंने कहा कि संविधान में परिवर्तनों के बजाय राजनेताओं को अपने आचरण में परिवर्तन करना चाहिए। क्योंकि संविधान निर्माताओं ने जिन आदर्शों का निर्माण किया था उनका खुला उल्लंघन हो रहा है।  इंदिरा बनाम राज नारायण 1975 के वाद में मुख्य न्यायाधीश ए.एन. रे मुक्त तथा निष्पक्ष चुनाव को संविधान के आधारभूत ढांचे का भाग नहीं माना। आस्टिन ग्रेनविले की किताब वर्किंग ए डेमोक्रेटिक कांस्टिट्यूशन- ए हिस्ट्री ऑफ द इंडियन एक्सपीरियंस में लिखा है  कि जस्टिस रे अक्सर तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को फोन करके उनसे बात करते थे।  बल्कि कई बार वो मामूली बातों पर प्रधानमंत्री के निजी सचिव को भी फोन करके उनसे सलाह लिया करते थे। जस्टिस रे के ही कार्यकाल के दौरान देशभर में आपातकाल लगाया गया था। लेकिन भारत की राजनीतिक परंपरा का यह एकमात्र सिर्फ उदाहरण है, ऐसा भी नहीं है। पूर्व चीफ जस्टिस रंजन गोगोई न्याय के देवता बनकर भी संतुष्ट नहीं हुए और न जाने किस ख्वाईश को लिए राज्यसभा में चले गए। राजनीतिक दृष्टि से भी तो यह निर्णय ठीक नहीं। और जहां तक संवैधानिक दृष्टि की बात है तो उसके लिए उन्मुक्त आसमान है। 


संविधान सभा के उच्च विद्वानों के बीच देश के निर्माण की समग्र दृष्टि के साथ  डॉ. आंबेडकर ने यह महत्वपूर्ण चेतावनी दी थी कि जनता को अपनी मांगों को पूरा करने के लिए संविधानेतर आंदोलनों से अब परहेज़ करना चाहिएइसे वे ग्रामर ऑफ एनार्की यानी अराजकता का रास्ता बताते हैं दिलचस्प बात है कि देश के संवैधानिक पदों पर बैठे लोग अपनी राजनीतिक हसरतों को पूरा करने के लिए संविधानेतर बातें करते है और उस आधार पर आंदोलन भी खड़ा करने से नहीं चूकते।


पूर्व राष्ट्रपति के.आर.नारायण ने राष्ट्रपति रहते अपने अनुभवों को साझा करते हुए कहा था कि,कई बार मैने खुद को बेहद दुखी और असहाय पाया। कई बार मैं अपने देश के नागरिकों के लिए कुछ न कर सका। सीमित शक्तियों के कारण मैं असमर्थ था। जाहिर है देश के राष्ट्रपति के तौर पर भी जब संविधान की भावना और लोकहित के अनुसार काम करना मुश्किल हो सकता है तो फिर आम आदमी की मुश्किलों का अंदाजा लगाया जा सकता है। यह शब्द भले ही एक पूर्व राष्ट्रपति के हो लेकिन इसमें एहसास तो संविधान की उस किताब का है। जो कसमसाती रहती होगी अपनी लाचारियों और मजबूरियों पर। पर हकीकत तो यह भी है कि संविधान की उस किताब की कोई जुबान नहीं है इसीलिए उसे अलग अलग जुबानों से बोला जाता है। इन सबके बाद भी संविधान बना हुआ है और बरकरार भी है। यकीन मानिए,जब तक यह बरकरार है,इसे खतरे में मत समझिए।

brahmadeep alune

पुरुष के लिए स्त्री है वैसे ही ट्रांस वुमन के लिए भगवान ने ट्रांस मेन बनाया है

  #एनजीओ #ट्रांसजेंडर #किन्नर #valentines दिल्ली की शामें तो रंगीन होती ही है। कहते है #दिल्ली दिलवालों की है और जिंदगी की अनन्त संभावना...