दांव पर तमिलों का भविष्य

 

राष्ट्रीय सहारा


                            

यह ऐतिहासिक मान्यता रही है कि दक्षिण भारत के तमिलों ने सिंहलियों को पराजित किया था,इसीलिए सिंहली तमिलों को लेकर आशंका ग्रस्त रहे है और उनकी यह नीति भारत के संदर्भ में सदैव नजर आती है  श्रीलंका में करीब 20 लाख तमिल बसते है,जो कई वर्षों से सामाजिक,धार्मिक और आर्थिक  उत्पीड़न सहने को मजबूर है। तमिल बराबरी पाने के संविधानिक अधिकारों के लिए लगातार संघर्षरत है लेकिन भारत की कोई भी पहल श्रीलंका में अब तक वह 13 वां संविधान संशोधन अधिनियम लागू करवाने में सफल नहीं हो सकी है  जिससे तमिलों के गरिमापूर्ण जीवन जीने के लिए कई तरह के अधिकार मिलने का मार्ग प्रशस्त हो सकता हैभारत के सामने बड़ी चुनौती यह रही है कि वह श्रीलंका की सरकार से उसे लागू करवाएं। इसके विपरीत श्रीलंका ने अपनी राजनीतिक व्यवस्था में सिंहली राष्ट्रवाद की स्थापना कर और भारत विरोधी वैदेशिक ताकतों से संबंध मजबूत करके भारत पर दबाव बढ़ाने की लगातार कोशिश की है जिससे वह तमिलों को लेकर अपने पड़ोसी देश से सौदेबाज़ी कर सकेफ़िलहाल श्रीलंका अपनी इस नीति में सफल होता दिखाई दे रहा है 


दरअसल पिछले महीने भारत यात्रा पर आएं श्रीलंका के विदेश सचिव एडमिरल जयनाथ कोलंबेज ने संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद में भारत का सक्रिय समर्थन मांगते हुए कहा था की भारत उसे मुश्किल वक़्त में छोड़ नहीं सकता  अब संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद में श्रीलंका पर तमिलों के व्यापक नरसंहार के आरोप का  प्रस्ताव पास हुआ तो वोटिंग के दौरान चीन और पाकिस्तान ने प्रस्ताव के विरोध में वोट किया  जबकि भारत ने वोटिंग से दूरी बनाए रखते हुए ग़ैर हाज़िर रहने का फैसला लिया  यह श्रीलंका की राजनयिक विजय रही क्योंकि तमिलों का सम्बन्ध सीधे भारत से है और भारत की इस पर ख़ामोशी उसके नियंत्रण और संतुलन की नीति दर्शाती है हालांकि इसका कोई भी दीर्घकालीन लाभ भारत को मिलता दिखाई नहीं पड़ रहा



श्रीलंका में प्रवासी भारतीयों की समस्या एक प्रमुख राजनीतिक मुद्दा रही है। ब्रिटिश औपनिवेशिक काल में भारत के तमिलनाडू राज्य से गये तमिलों की तादाद अब श्रीलंका में लाखों में है लेकिन मानवधिकारों को लेकर उनकी स्थिति बेहद खराब है। श्रीलंका के जाफना,बट्टिकलोवा और त्रिंकोमाली क्षेत्र में लाखों तमिल रहते है जिनका संबंध दक्षिण भारत से है। श्रीलंका के सिंहली नेताओं द्वारा तमिलों के प्रति घृणित नीतियों को बढ़ावा देने से तमिलों का व्यापक उत्पीड़न बढ़ा और इससे इस देश में करीब तीन दशकों तक गृहयुद्ध जैसे हालात रहे। 2009 में श्रीलंका से तमिल  पृथकतावादी संगठन लिट्टे के खात्मे के साथ यह तनाव समाप्त हुआ,जिसमें  हजारों लोगों की जाने गई। इस दौरान श्रीलंका की सेना पर तमिलों के व्यापक जनसंहार के आरोप लगे। वैश्विक दबाव के बाद श्रीलंका ने सिंहलियों और तमिलों में सामंजस्य और एकता स्थापित करने की बात कही लेकिन हालात जस के तस बने हुए है। 



इस समय श्रीलंका की सत्ता में राजपक्षे बंधुओं का प्रभाव है। श्रीलंका के राष्ट्रपति गोटाभाया राजपक्षे बहुसंख्यक सिंहली जनता के नायक बन माने जाते है। उनका संबंध परम्परावादी दल श्रीलंका पोदुजन पेरामुना से है जो आमतौर पर बहुसंख्यक सिंहलियों के हितों के प्रति उदार और अन्य अल्पसंख्यक समूहों के लिए अपेक्षाकृत कठोर माना जाता है। गोटाभाया राजपक्षे,प्रधानमंत्री महिंदा राजपक्षे के भाई होने के साथ ही देश के रक्षामंत्री रहे है। इनके कार्यकाल और आक्रामक नीतियों से तमिल पृथकतावादी संगठन एलटीटीई का खात्मा हुआ था और इसीलिए वे देश की बाहुल्य सिंहली जनता की पहली पसंद बनकर उभरे है। 


गोटाभाया राजपक्षे की नीतियां तमिल और अन्य अल्पसंख्यक समूहों के प्रति घृणा को बढ़ावा देने वाली है। करीब एक दशक पहले श्रीलंका से तमिल  पृथकतावादी संगठन लिट्टे के खात्मे के बाद हजारों तमिलों को श्रीलंका की सेना ने बंदी बनाया था और यह विश्वास भी दिलाया था की उन्हें वापस उनके घर लौटने दिया जायेगा।  लेकिन इतने वर्षों बाद भी सैंकड़ों तमिल परिवार हर दिन अपने प्रियजनों के घर लौटने की बांट जोह रहे है  और उनके लौट आने की कोई उम्मीद दूर दूर तक नजर नहीं आती।  इन तमिलों का सम्बन्ध भारत के दक्षिणी राज्य तमिलनाडू से है।  इसीलिए भारत सरकार की भूमिका इस संबंध में बेहद महत्वपूर्ण और निर्णायक हो सकती है।  भारत श्रीलंका की भौगोलिक स्थिति को लेकर सतर्क रहता है और उसकी यह दुविधा वैदेशिक नीति में  साफ नजर आती है। 



भारत के दक्षिण में हिन्द महासागर में स्थित श्रीलंका सामरिक और व्यापारिक दृष्टि से अत्यधिक महत्वपूर्ण है। श्रीलंका पूर्वी एशिया व्यापार का बड़ा केंद्र है और ग्रीक,रोमन और अरबी व्यापार करने के लिए इसी मार्ग से गुजरते है। श्रीलंका की भू राजनीतिक स्थिति उसका स्वतंत्र अस्तित्व बनाती है लेकिन भारत से उसकी सांस्कृतिक और भौगोलिक निकटता सामरिक दृष्टि से ज्यादा असरदार साबित होती है। श्रीलंका भारत से  निकटता और निर्भरता से दबाव महसूस करता रहा है और यह भारत के लिए बड़ा संकट है। भारत जहां श्रीलंका की एकता,अखंडता और सुरक्षा को लेकर जिम्मेदारी की भूमिका निभाता रहा है वहीं श्रीलंका की सरकारों का व्यवहार बेहद असामान्य और गैर जिम्मेदार रहा है।


 

श्रीलंका में शांति और स्थिरता के लिए भारत की सैन्य,सामाजिक और आर्थिक मदद के बाद भी तमिल संगठन लिट्टे से निपटने के लिए श्रीलंका ने भारत के प्रतिद्वंदी देश पाकिस्तान से हथियार खरीदें।  पिछले एक दशक में श्रीलंका के ढांचागत विकास में चीन ने बड़ी भूमिका निभाई है और चीन का इस समय श्रीलंका में बड़ा प्रभाव है। 1962 के भारत चीन युद्द के समय श्रीलंका की तटस्थ भूमिका हो या 1971 के भारत पाकिस्तान युद्द में पाकिस्तान के लड़ाकू विमानों को तेल भरने के लिए अपने हवाई अड्डे देने की हिमाकत,श्रीलंका भारत विरोधी कार्यों को करने से कभी पीछे नहीं हटा है। भारत की सामरिक सुरक्षा को दरकिनार कर श्रीलंका ने हम्बनटोटा बंदरगाह चीन की मर्चेंट पोर्ट होल्डिंग्स लिमिटेड कंपनी को 99 साल के लिए लीज पर दे दियाइस साल भारत ने वैक्सीनमैत्री के तहत श्रीलंका को 50 हज़ार कोरोना वैक्सीन की डोज़ कर भारत श्रीलंका मैत्री को मजबूत क्र्न्बे की कोशिश की। वहीं राजपक्षे सरकार ने भारत के साथ एक ट्रांसशिपमेंट परियोजना के करार को ठंडे बस्ते में डाल दिया। इसका प्रमुख कारण सिंहली प्रभाव में काम करने वाली ट्रैड यूनियनों का विरोध रहा जो भारत के बढ़ते प्रभाव को तमिलों के लिए मुफीद बता रही थी। भारत को इस मसले पर कड़ा विरोध दर्ज कराना चाहिए था लेकिन ऐसी कोई भी कूटनीतिक कोशिश नहीं देखी गई।


श्रीलंका में भारतीय तमिलों के हितों की रक्षा तथा भारत की सामरिक सुरक्षा के लिए अग्रगामी और आक्रामक कूटनीति की जरूरत है। संयुक्तराष्ट्र मानवाधिकार परिषद में श्रीलंका के विरुद्द रखा गया प्रस्ताव श्रीलंका पर दबाव बढ़ाने के लिए बड़ा मौका था,जिस पर भारत का कड़ा रुख श्रीलंका पर मनौवैज्ञानिक दबाव बढ़ा सकता था। कूटनीति के तीन प्रमुख गुण होते है,अनुनय,समझौता तथा शक्ति की धमकी। भारत श्रीलंका के साथ अनुनय और समझौता सिद्धांत से अपने राष्ट्रीय हितों की रक्षा करने में असफल रहा है,यह समझने की जरूरत है। राजपक्षे बंधु सिंहली हितों,अतिराष्ट्रवाद को बढ़ावा देने तथा चीन और पाकिस्तान के साथ सम्बन्ध मजबूत करने की नीति पर कायम है। ऐसे में उनसे तमिल और भारतीय हितों के संरक्षण की उम्मीद नहीं की जा सकती।  

बदहाल वेनेजुएला के लोकतांत्रिक सबक,venejuela

 जनसत्ता


            

·         दुनिया में तेल की कीमतों का निर्धारण करने वाला लातिन अमेरिकी देश वेनेजुएला इस समय आर्थिक और राजनीतिक रूप से गहरे संकट में फंस गया है। राजनीतिक सत्ता पर मजबूत पकड़ बनाएं रखने की कोशिश और अमेरिकी विरोध के बूते वैश्विक जगत में आक्रामक पहचान बनाने की इस देश के नेतृत्व की नीति के दुष्परिणाम यहां के लोगों के लिए जानलेवा हो गए है।  करीब सवा तीन करोड़ की आबादी वाले इस देश के पास अपार खनिज संसाधन है लेकिन इसके बाद भी लगभग 7 लाख लोग ऐसे हैं जिनके पास दो वक्त का खाना खरीदने के लिए पैसे नहीं हैं। 


यूनाइटेड नेशन फूड प्रोग्राम एजेंसी के अनुसार वेनेजुएला के हर तीन में से एक नागरिक के पास खाने के लिए भोजन नहीं है। मुद्रा इतनी कमजोर स्थिति में है की वहां के 10 लाख बोलिवर के नोट की भारत में कीमत महज 36 रुपये के बराबर है। दुनिया के कच्चे तेल के सबसे बड़े केंद्र समझे जाने वाले इस देश में महंगाई बेतहाशा बढ़ गई है। देश के कई इलाके पानी की समस्या से जूझ रहे है,मुद्रा संकट बढ्ने से भोजन मिलना बहुत महंगा हो गया है और लोग भूखे रहने को मजबूर है। सुपर बाज़ार पर सरकारी नियंत्रण स्थापित कर दिया गया है,जहां महंगा और दूषित खाना बेचा जा रहा है,रोजगार छीन गए है और लोग दूसरे देशों में भागने को मजबूर हो रहे है। भ्रष्टाचार चरम पर है,कानून व्यवस्था की स्थिति संकट में है। अपराध बहुत बढ़ गए है और जेलों में खूनी संघर्ष होने लगे है। वेनेजुएला जेलों की दयनीय स्थिति के लिए बदनाम है। यहां की जेलों में आवश्यकता से अधिक कैदी भरे होते हैं और समूचे लातिन अमेरिका में इनकी हालत सर्वाधिक खराब है। इन सबके बीच बड़ा सवाल यह भी है की देश की राजनीतिक अस्थिरता का संकट कैसे खत्म हो,इसको लेकर भी स्थिति अस्पष्ट है।


वेनेजुएला के इस संकट के पीछे विकासशील देशों में संचालित लोकतांत्रिक परम्पराओं की वह मान्यता भी काफी हद तक जिम्मेदार है जहां करिश्माई नेतृत्व को सम्पूर्ण सत्ता सौंपकर आम जनता खुशियां ढूंढती है और राजनीतिक सत्ता पर जनता का यह अतिविश्वास अंतत: आत्मघाती बन जाता है। 1998 में देश के राष्ट्रपति बने ह्यूगो शावेज पर इस लोकतांत्रिक देश का मसीहा बनने की धुन सवार थी। उन्होंने लंबे समय तक देश की सत्ता पर काबिज रहने के लिए लोकलुभावन नीतियों का सहारा लिया। शावेज 1998 से लगातार डेढ़ दशक तक देश के राष्ट्रपति रहे। उनके कार्यकाल में जनता को सुख,शांति,वैभव और आराम की जिंदगी के सपने दिखाकर सत्ता पर अपनी पकड़ मजबूत करने पर ज़ोर दिया गया। वहीं दूसरी और अन्य संवैधानिक निकायों को कमजोर करके सत्ता पर एकाधिकार कायम करने के लिए जनता को मुफ्त में सुविधाएं दी गई और ऐसी योजनाओं को बड़े पैमाने पर लागू किया गया। लोगों को आधुनिक जीवन शैली में जीने के लिए पैसे दिए गए। इन सबसे आम जनमानस का ह्यूगो शावेज पर विश्वास बढ़ता गया। जनता का विश्वास जीतकर शावेज ने राजनीतिक सत्ता का इस प्रकार दोहन किया की इससे संवैधानिक संस्थान राष्ट्रपति की कठपुतली बनकर रह गए। वेनेजुएला के लोग बेहद विनम्र और आसान चरित्र के माने जाते है। ये लोग राजनीतिक सिद्धांत की इस सीख को नजर अंदाज कर गए की राजनीतिक प्रभुत्व सदैव आर्थिक प्रभुत्व पर आधारित होता है तथा राजनीतिक करिश्माई सत्ता को संप्रभु बना देना राष्ट्र के भावी भविष्य को संकट में डाल सकता है। शावेज पर लोगों का भरोसा इतना बढ़ गया था की कार्यपालिका और न्यायपालिका के सारे अधिकारों को राष्ट्रपति के अधीन कर लिया गया। शावेज की लोकप्रियता के आगे विपक्ष नाकाम रहा  और इसका असरकारक विरोध भी न हो सका। 



आमतौर पर लोकतंत्र में करिश्माई सत्ता लोकप्रिय होती है किंतु यह स्थिति आदर्श नहीं मानी जाती। मजबूत लोकतंत्र के लिए शासन व्यवस्था के सभी निकायों का मजबूत होना जरूरी होता है तथा मजबूत विपक्ष की जरूरत बनी रहती है। जबकि    करिश्माई सत्ता के बारे में यह विश्वास किया जाता है की कोई एक दल लोकतंत्र पर हावी हो जाता है और वह प्रतिस्पर्धी दलों को उभरने नहीं देता। यह दल करिश्माई नेतृत्व के बल पर लोगों के दिलों में जगह बना लेता है। इसके बाद वह देश को आधुनिकीकरण और विकास की दिशा में ले जाने का दावा करता है और इस तरह अपनी सत्ता की वैधता का आधार ढूंढ लेता है। वेनेजुएला में यही सब देखा गया और अब तेल की दुनिया का अग्रणी यह देश राजनीतिक अस्थिरता और बदहाली से बूरी तरह जूझ रहा है।


2013 में शावेज नहीं रहे और इसके बाद उनके सहयोगी निकोलस मादुरो देश के नए राष्ट्रपति बने। लेकिन उनके लिए चुनौतियाँ कुछ अलग प्रकार की थी। अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में कच्चे तेल की कीमतों में भारी गिरावट आई और इसका गंभीर असर पहले से ही संकट से जूझ रही वेनेजुएला की अर्थव्यवस्था पर पड़ा।  निकोलस मादुरो इस समय अमेरिका से सम्बन्धों को बेहतर करके अपने देश की अर्थव्यवस्था को उबार सकते थे लेकिन उन्होंने शावेज की नीतियों को ही अपनाया और अमेरिकी विरोध जारी रखा। अमेरिकी प्रतिबंधों का सामना करते हुए मादुरो की नजर रूस और चीन पर टिकी हुई थी।  यह दोनों देश लातिन अमेरिका में अपना कूटनीतिक और सामरिक महत्व बनायें रखने के लिए वेनेजुएला को मदद देने आगे भी आए। इन सबके बाद भी 2015 में वेनेजुएला में महंगाई दर 180 फीसदी तक बढ़ गई थी। इस समय भी मादुरो ने कोई सबक न लेते हुए अर्थव्यवस्था के लिए बेहद असंतुलनकारी कदम उठाएं2016 में नोटबंदी की घोषणा करके उन्होंने देश की अर्थव्यवस्था को तहस नहस कर दिया। इससे आम जनजीवन बहुत प्रभावित हुआ और देश की अर्थ और आंतरिक व्यवस्था चरमरा गई।

2019 में देश के सामने राजनीतिक संकट और ज्यादा बढ़ गया। इस समय यहां राष्ट्रपति चुनाव के जो नतीजे आए थे,उसमें सत्ताधारी निकोलस मादुरो चुनाव जीत गए,लेकिन उन पर वोटों में गड़बड़ी करने का आरोप लगा। चुनाव में मादुरो के सामने खुआन गोइदो थे। निकोलस मादुरो को साम्यवादी देशों रूस और चीन का समर्थन हासिल है। जबकि खुआन गोइदो को अमेरिका,ब्रिटेन समेत यूरोपियन यूनियन का समर्थन हासिल है। इस समय मादुरों और गोइदो दोनों देश का राष्ट्रपति होने का दावा करते है। इस प्रकार वेनेजुएला का राष्ट्रपति इस समय कौन है,इसे लेकर ही कोई भी स्पष्ट स्थिति नहीं है। 


निकोलस मादुरो ने शावेज की नीतियों पर चलकर उनके देश को पूंजीवाद और साम्यवाद के द्वंद का केंद्र बना दिया है।  चीन की कंपनियों का जाल पूरे देश में फैला हुआ है और उसने वेनेजुएला को कर्ज के जाल में उलझा लिया है। हालांकि चीन से वेनेजुएला के मजबूत संबंध शावेज के दौर से ही थे। शावेज अपने देश की आर्थिक संपन्नता का उपयोग लोकतन्त्र को मजबूत करने के लिए कर सकते थे। लेकिन उन्होंने अपने देश को साम्यवाद का मजबूत स्तंभ बनाना ज्यादा जरूरी समझा। चीन और रूस जैसे साम्यवादी देशों की शह पर उन्होंने अमेरिकी कंपनियों एक्सॉन एवं कोनोको फिलिप्स को वेनेजुएला से अलविदा कहने को मजबूर कर दिया था


वेनेजुएला के राजनीतिक नेतृत्व ने देश में पर्यटन के क्षेत्र में उभरने की अपार संभावनाओं पर कभी ध्यान नहीं दिया। वेनेज़ुएला पश्चिम में कोलम्बिया,पूर्व में गुयाना और दक्षिण में ब्राजील से घिरा हुआ है। कैरिबियाई द्वीप जैसे त्रिनिदाद और टोबैगोग्रेनाडाकुराकाओअरुबा और लीवर्ड एंटील्स, वेनेज़ुएला तट के पास स्थित हैं। ऐसे में दुनिया का बेहतरीन पर्यटन केंद्र बनने की इस देश में अपार संभावनाएं है। लेकिन इस देश के नेतृत्व ने अपनी अर्थव्यवस्था को तेल पर ही केन्द्रित रखा। पेट्रोलियम और लोह अयस्क यहां की उर्वरा जमीन से इतना निकलता है कि  यह देश कच्चे तेल का सबसे बड़ा निर्यातक माना जाता है तेल की बढ़ती कीमतों से चमकने वाला यह देश तेल की कीमतें घटते ही हांफने लगा। शावेज ने अल्पकालिक राजनीतिक हितों के लिए कोई ऐसी दीर्घकालीन नीति नहीं बनाई जिससे देश का आर्थिक ढांचा अस्त व्यस्त होने से बच सके इसके साथ ही शावेज ने अपनी दानशीलता से लोगों को पंगु बना दिया था और वे मुफ्तखोर  होकर सरकार पर निर्भर हो गए थे इन सबसे शावेज सत्ता में तो बने रहे लेकिन देश आर्थिक रूप से गहरे संकट में फंसता चला गया इस समय  वेनेजुएला की सरकार हजार मूल्य के नोटों से आगे बढ़कर लाखों की मुद्रा वाले नोट छाप रही है। सरकार देश के आर्थिक संकट का समाधान इस प्रकार ढूंढ रही है।  उसका मानना है की आम लोग बड़ी संख्या में नकदी को लेकर बाज़ार जाने से बचेंगे। आर्थिक संकट के साथ राजनीतिक विरोध बदस्तूर जारी है। राष्ट्रपति मादुरो को सत्ता से बेदखल करने के लिए ख़्वान ग्वाइदो देशभर में चरणबद्ध आंदोलन चला रहे हैहड़तालों और विरोध प्रदर्शनों से जन जीवन अस्त व्यस्त है


वेनेजुएला में राष्ट्रपति मादुरो साम्यवादी विचारधारा को बनाएं रखने के लिए कृत संकल्पित नजर आ रहे है और यह स्थिति इस देश को अस्थिरता की और ही ले जा रही है। वहीं अमेरिका और यूरोपियन यूनियन के देश ख़्वान ग्वाइदो को मजबूत करके इस तेल से समृद्द देश में अपनी स्थिति मजबूत करना चाहते है। जर्मन वैज्ञानिक कार्ल मैन्हाइम की एक किताब है आइडियोलॉजी एंड यूटोपिया। मैन्हाइम ने इस किताब में विचारधारा और कल्पनालोक में अंतर स्पष्ट करते हुए लिखा है की विचारधारा मिथ्या चेतना को व्यक्त करती है और उसका ध्येय प्रचलित व्यवस्था को बनाएं रखना है दूसरी और कल्पनालोक परिवर्तन की शक्तियों पर बल देता है। इस समय वेनेजुएला यदि अपनी प्रचलित विचारधारा के साथ चला तब उसका आर्थिक और राजनीतिक संकट से उभरना आसान नहीं होगा,वहीं पूंजीवाद का कल्पना लोक नया लेकिन इस बदहाल देश के लिए फिलहाल बेहतर विकल्प नजर आ रहा है।

धर्म ग्रन्थ पर सवाल क्यों, 26 aayat vasim rizvi

 पॉलिटिक्सवाला 

                                                             

धर्म को देखने की आपकी दृष्टि क्या होना चाहिए,इसका जवाब भारतीय सभ्यता में बखूबी मिलता हैमहाभारत काल में यक्ष और युधिष्ठिर के बीच की प्रश्नोत्तरी में जीवन के प्रति दृष्टिकोण का वृहत रूप प्रतिबिम्बित होता हैयक्ष ने जब पूछा की दुनिया में श्रेष्ठ धर्म क्या है तब युधिष्ठिर का जवाब था की दया दुनिया में श्रेष्ठ धर्म है  दया की यह श्रेष्ठता दुनिया के सभी धर्मों में प्रधानता लिए हुए है अत: धर्मराज युधिष्ठिर का जवाब युगों युगों से धर्म को देखने की दृष्टि का आदर्श रूप माना जाता है


शिया नेता के रूप में विख्यात वसीम रिजवी ने पवित्र धर्म ग्रंथ कुरान की कुछ आयतों पर सवाल उठाते हुए सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की हैइस जानहित याचिका में रिजवी ने कुरान से 26 आयतों को हटाने की बात कही है और इसका आधार उन्होंने हिंसा और कट्टरता को बताया हैधर्मनिरपेक्ष भारत की आत्मा में किसी विशेष पहचान पर मानवता की उच्चता को प्राथमिकता दी गई है,ऐसे में रिजवी के धर्म को देखने की दृष्टि पर तो बात की ही जा सकती है


धर्म अलग अलग मान्यताओं के साथ जीवन जीने का एक तरीका है जिसमें आम तौर पर आस्था के सहारे शांति को खोजा जाता है और जहां शांति की परिकल्पना हो वहां सदाचार,सहिष्णुता,सादगी,दया,करुणा जैसे मानवीय गुण स्वत: आचरण और व्यवहार में आ जाते हैप्राचीनकाल से भारतीय समाज इस अवधारणा  पर विश्वास और पालन करता रहा है की धर्म का सर्वस्व यह है की सुनो और सुनकर उस पर चलो,अपने को जो अच्छा न लगे,वैसा आचरण दूसरे के साथ नही करना चाहिये। वसीम रिजवी का धर्म ग्रंथ में लिखी गई कुछ आयतों पर दृष्टिकोण बेहद संकुचित दायरें में नजर आता है क्योंकि मानवता के साथ होने वाले अपराधों को किसी धर्म से जोड़कर देखना ठीक नहीं माना जा सकता।  मानव समाज में बुराईयां आदिम काल से रही है,यह एक मानसिक और शारीरिक विकार रहा है जो समाज में जिसकी लाठी उसकी भैंस के तर्ज पर संचालित होता रहा है। यह सीरिया और पाकिस्तान में भी नजर आता है,हिंदुस्तानी समाज आदर्श समाज होने का दावा नहीं सकता वही अमेरिका और ब्रिटेन में यह नस्लवाद के घिनौने रूप में सामने आता है।

पाकिस्तान में ईसाई आशिया को मुस्लिम महिलाओं ने  कुंए से पानी पीने से रोका था और बात में यह बात बढ़कर ईशनिंदा तक चली गई। इस घटना में कुरान कहीं नहीं है,कथित मुस्लिम महिलाओं की अज्ञानता रही। भारत में ऐसी घटनाएं हर दिन भारतीय समाज को कलंकित करती रही है लेकिन यह समाज के कुछ तत्वों की गलती है,धर्म ग्रंथ ऐसा कुछ कभी किसी को नहीं सिखाते। बाइबिल में कोई गोरा या काला नहीं है लेकिन पश्चिम का पढ़ा लिखा समाज इस बुराई से अभिशिप्त रहा है।


किसी नागरिक समाज में धर्म से ज्यादा चिंता के विषय शिक्षा,स्वास्थ्य और सामाजिक न्याय रहना चाहिए और दुनियाभर में इसकी जरूरत भी महसूस की जाती रही है। करीब दो साल पहले बतौर उत्तर प्रदेश शिया वक़्फ़ बोर्ड के अध्यक्ष रहते वसीम रिज़वी ने प्रधानमंत्री को एक पत्र लिखकर प्राथमिक स्तर तक के सभी मदरसों को बंद करने का सुझाव दिया था उन्होंने अपने पत्र में दावा किया था कि अगर ऐसा नहीं किया गया तो 15 साल के बाद देश के आधे से ज़्यादा मुसलमान चरमपंथी संगठन आईएस की विचारधारा के समर्थक हो जाएंगे

इस समय भारत में करीब 20 करोड़ मुसलमान रहते हैदेश के विभिन्न हिस्सों में कई अलगाववादी आंदोलन चल रहे है,जो बोडोलैंड,गोरखालैंड,नागा लैंड के रूप में राष्ट्र की कानून व्यवस्था के लिए बेहद चुनौतीपूर्ण रहे हैजैसा वसीम रिजवी का मानना है,उसके अनुसार भारत के 50 से ज्यादा जिले मुस्लिम बाहुल्य है और वहां अब तक इस्लामिक कानून लागू करने की मांग उभर कर सामने आ जानी चाहिए थी,लेकिन ऐसा कभी नहीं देखा गया और न ही देश की खुफियां एजेंसियों ने इसे लेकर किसी भी सरकार को आगाह करने की कोई खबर सामने आई है


जाहिर है मध्य एशिया या दुनिया के अन्य देशों में जारी गृह युद्द को धार्मिक कारणों से देखने की दृष्टि राजनीतिक ही हो सकती हैभारत में धार्मिक ग्रन्थ या मदरसों को बंद करने की सलाह देना न तो भारतीय दृष्टिकोण से उचित है,न ही समाज के लिए और न ही देश के लिएबेहतर होता की वसीम रिजवी मुस्लिम समाज की बेहतरी की योजना देश के सामने पेश करते,मुस्लिम युवाओं की शिक्षा और रोजगार से जुड़े मुद्दों को लेकर सुप्रीम कोर्ट का रुख करते तो उनके इरादों में मुस्लिम समाज की बेहतरी नजर आतीवहीं यहां यह भी समझने की जरूरत है की आतंकवाद और अलगाव को किसी धर्म ग्रंथ से जोड़ने की कोई भी कोशिश सभ्य समाज का आईना नहीं हो सकतीजहां तक इस्लामिक दुनिया का सवाल है तो हिंसा के मूल में असमानता और अशिक्षा ज्यादा नजर आती है

यूरोप के एक मात्र देश तुर्की के मुसलमान हो,सऊदी अरब अमीरात हो या अजरबेजान चले जाइये मुस्लिम बाहुल्य इन इलाकों में जीवन जीने का तरीका किसी सभ्य समाज जैसा इसलिए है क्योंकि इन देशों में शिक्षित समाज धर्म का प्रतिनिधित्व करता है इन देशों में भी लोग कुरान की उन्हीं आयतों को पढ़ते है जो हिंदुस्तान या किसी और देश में पढाई जाती है आतंकवाद का इस्लामिक देशों में होना महज संयोग भर नहीं बल्कि वैश्विक राजनीति के कारणों में नजर आता हैचार दशक पहले के अफगानिस्तान का आधुनिक समाज के नष्ट होने का कारण साम्यवाद और पूंजीवाद की कभी न खत्म होने वाली लड़ाई रहीइराक के राष्ट्र पति सद्दाम हुसैन के रहते वह देश धर्मनिरपेक्ष नीतियों में फलता फूलता रहाउसे अमेरिका ने इस्लामिक राष्ट्र के रूप में  निशाना नहीं बनाया था बल्कि इसके पीछे तेल की राजनीति रहीसद्दाम हुसैन के बाद इराक और सीरिया आज जिस हालात में है उसके लिए जिम्मेदार वैश्विक ताकतें मानी जाती है


बहरहाल भारत के समाज को वसीम रिजवी या इन जैसे अन्य लोगों की कोशिशों पर सतर्क रहने की जरूरत है। अंततः भारत की पहचान इस दुनिया में एक सफल लोकतांत्रिक और उदार राष्ट्र की रही है,इसे कायम रखने के लिए लोककल्याण के प्रति प्रतिबद्धता दिखना चाहिए। धार्मिक मामलों में देश,न्यायालय और समाज  को उलझाने की राजनीतिक कोशिशें देशहित में नहीं हो सकती।

 

देशभक्ति की असंतुलित अवधारणा,deshbhkti tirnga delhi

 

 राष्ट्रीय सहारा

                        



चमचमाती दिल्ली में लोगों के जीवन की खुशहाली का मंत्र अब तिरंगे होंगे। दिल्ली सरकार ने देशभक्ति बजट को आधार बनाकर 45 करोड़ रुपया खर्च करने का प्रावधान  कर यह दावा किया है की दिल्ली में तिरंगे चारों और लगने से लोगों में देशभक्ति की भावना जागेगी। सुशासन समावेशी विकास का मार्ग सुनिश्चित करने की एक अवधारणा है जिसमें खुशहाल जीवन की संकल्पना दिखाई देती है। रोटी,कपड़ा,मकान,शिक्षा और स्वास्थ्य लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था के आधार स्तम्भ है लेकिन देखा यह जा रहा है की लोकतंत्र की यह लोकप्रिय अवधारणा अब बदलने लगी है।


दरअसल लोकतन्त्र का अत्याधुनिक रूप जनता के शासन,उनकी भागीदारी और लोककल्याणकारी राज्य की अवधारणा की पहचान से आगे निकलने को आमादा है। दुनिया के अनेक देशों में कार्य करने वाली राजनीतिक सत्ताएं सत्ता परिवर्तन के चुनावी चक्र को तो बनायें रखना चाहती है लेकिन इसके साथ ही सत्ता पर नियंत्रण स्थापित करने के लिए राष्ट्रवाद और देशभक्ति की भावना को उभार देकर एक हथियार की तरह उपयोग कर रही है। बीते दौर में राजतंत्र और अधिनायकवादी शासन व्यवस्था को सुरक्षित रखने के लिए राष्ट्रवाद को उभारना तानाशाहों की मजबूरी माना जाता था,अब इसे लोकसत्ताओं ने आत्मसात कर लिया है।


करीब  तीन साल पहले दिल्ली के एक इलाके में तीन सगी बहनों की भूख से मौत हो गई थी।  इन तीनों की उम्र दो,चार और आठ साल की थी। पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट में डॉक्टरों के अनुसार तीनों के पेट में खाने का एक अंश भी नहीं था मिला और यह साफ हो गया था की इन मजबूर बच्चों ने सात-आठ दिन से खाना नहीं खाया था। पिछले साल कोरोना के कहर से बचने के लिए लॉक डाऊन को कारगर हथियार मान लिया था और रातों रात तुगलकी फरमान जारी कर यह कहा गया की जो जहां है उसी अवस्था में रुक जाएँ। यह भारत की सामाजिक और आर्थिक हकीकत को झुठलाने वाली शर्मनाक सोच थी जिसमें झोपड़पट्टी में रहने वाले और दिहाड़ी मजदूरों की मजबूरियों को भूला दिया गया था। इसका नतीजा यह हुआ की दिल्ली समेत देश के कई इलाकों में रहने और काम करने वाले हजारों गरीब परिवार बदहवासों की तरह सैकड़ों किलोमीटर पैदल चलने को मजबूर कर दिये गए थे। इसमें कई लोग मारे गए थे और कई सड़क दुर्घटनाओं का शिकार बनकर अपंग जीवन जीने को मजबूर हो गए। 


कोरोना से निपटने की दवाएं अब चर्चाओं में है लेकिन लॉकडाऊन की विभीषिका को झेलने वाले लोग भूला दिये गए है। इन लोगों के जीवन में तिरंगा देखकर ही खुशहाली लाई जा सकती है,यह विचार अवश्य किया जाना चाहिए। 45 करोड़ रुपए खर्च कर मजदूरों के बच्चों को बेहतरीन शिक्षा दी जा सकती है,मजदूरों और गरीबों के लिए स्व रोजगार के संसाधन भी जुटाएँ जा सकते है। इससे लोक कल्याण को बढ़ावा देने के लिए उपयोग किया जा सकता था लेकिन राष्ट्रीय ध्वज के प्रदर्शन को सबसे ऊपर तरजीह दी गई। झंडे और डंडे को लेकर महात्मा गांधी बेहद दिलचस्प उदाहरण पेश करते है। उनके लिए झंडे की महत्ता कभी ज्यादा नहीं रही,वे किसी भी झंडे से न तो ज्यादा उत्साहित हुए और न ही विचलित हुए। इससे ज्यादा उनकी चिंता यह होती थी की भारत की जनता की मूल समस्याओं का हल ढूंढते हुए उन्हें कैसे गरीबी और लाचारी के जाल से बाहर लाया जा  सके। उनके लिए वह डंडा ज्यादा महत्वपूर्ण रहा जिसे अपनी ताकत बनाकर वे मीलों का सफर तय कर लिया करते थे। महात्मा गांधी की देश भक्ति का बेहद व्यापक स्वरूप रहा और उसे झंडे में सिमटने का सामाजिक या राजनीतिक प्रयास नहीं किया। वे राष्ट्रवाद की परिकल्पना के विविध आयामों को लेकर सजग रहे। बापू यह जानते थे की किसी राष्ट्र के प्रति असीम प्रेम,निष्ठा,समर्पण और त्याग को दर्शाता है,इसके साथ यह किसी जातीय सर्वोच्चता या धार्मिक अभिमान का प्रतीक भी हो सकता है। गांधी के बाद के भारत में झण्डा देश भक्ति का प्रतीक बना दिया गया और इससे राष्ट्रवाद को जोड़कर उस खूबसूरत टोपी की तरह इसका राजनीतिक उपयोग प्रारम्भ हो गया जो किसी भी आकार और प्रकार में सम्मोहक नजर आती है।



दिल्ली में सत्तारूढ आम आदमी पार्टी की स्थापना का आधार सुशासन बताया  गया था। लेकिन एक दशक में ही यह दल अब उस रास्ते पर चल पड़ा है जो लोकतन्त्र के असंतुलित विकास को स्वीकार कर सत्ता में बने रहने के लिए आमादा नजर आता है। कुछ अन्य राजनीतिक दलों के रास्ते पर चलकर आप ने भी देशभक्ति या राष्ट्रवाद के प्रदर्शन को सबसे मुफीद मान लिया है।   यह जानना बेहद जरूरी है की राष्ट्रवाद के विकास और पोषण में उदारवाद और प्रजातंत्र की प्रमुख भूमिका रही है।  जबकि आधुनिक राजनीतिक तंत्र ने लोकतांत्रिक सत्ता पर बने रहने के लिए जिस प्रकार राष्ट्रवाद का उपयोग किया है इससे लोकतंत्र की उपयोगिता पर ही गहरे सवाल उठ खड़े हुए है 15 वी सदी में इटली में जन्में मैकियावली का राजदर्शन कूटनीति की धूर्तता को नैतिकता से जोड़कर आम जनमानस की अस्मिता को राजहित में दांव पर लगाने को प्रोत्साहित करता रहा 5 सौ साल बाद लोकतंत्र  को भी राज सत्ता की तरह संपूर्ण सत्तावादी शासन पद्धति की तरह ढालने का प्रयास होगा,यह कल्पना शायद ही किसी ने कभी की हो। लोकतंत्र को सामाजिक न्याय,आज़ादी,विकास और समानता के शासन तंत्र का आदर्श रूप माना जाता है जिसमें सत्ता से यह अपेक्षा की जाती है कि वह समभाव रखकर नागरिकों के सर्वांगीण विकास में अपना सकारात्मक योगदान दे। लोकतंत्र में संपूर्ण सत्तावादी शासन पद्धति के विकास और सत्ता में बने रहने की राजनीतिक दलों की कोशिशों से लोक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा नष्ट हो रही है। 

वास्तव में लोकतंत्र में राष्ट्रवाद को ऐसी तलवार समझ लिया गया है जिससे सामाजिक न्याय की गर्दन काटकर भी सत्ता में बना रहा जा सकता है और लोक कल्याण को गौण किया जा सकता है। अफसोस इस बात का है की जनता राजनीतिक पार्टियों की धूर्तता को समझने में लगातार नाकामयाब हो रही है।


जनता में जन कल्याण के प्रति सजगता की कमी का फायदा राजनीतिका दल बदस्तूर उठा रहे है। आक्रामक राष्ट्रवाद को औजार की तरह प्रयोग किया जाने लगा है और इससे न केवल जनता की भावनाओं को उभार मिल रहा है बल्कि विपक्षी दलों को भी नतमस्तक होना पड़ रहा है। इसके पीछे यह डर भी होता है की उन्हें सत्ता के द्वारा राष्ट्र के विरोधी के तौर पर न प्रचारित कर दिया जाए। किसी भी लोकतांत्रिक देश में सभी राजनीतिक दल राष्ट्रवाद को ही हथियार बनाने लगे  तब जनता साधन बन जाएगी और सत्ता चलाने वाले साध्य। यह अधिनायकवादी शासन व्यवस्था की पहचान है लोकतंत्र की तो कभी नहीं।


भारत जैसे गरीब,पिछड़े और विकासशील देश के आगे बढ्ने की संभावनाएं संवैधानिक रूप से लोकतंत्र और समाजवाद में ढूँढी गई है। जहां सर्व सत्तावाद के मजबूत होने की संभावनाओं को खत्म करने पर ज़ोर दिया गया है। ऐसे में भ्रमित करने वाला राष्ट्रवाद का उभार लोकतन्त्र के असंतुलित विकास को बढ़ावा दे रहा है और यह स्थिति सामाजिक न्याय स्थापित करने की राह में सबसे बड़ा रोड़ा साबित हो सकती है। 

 

 

brahmadeep alune

पुरुष के लिए स्त्री है वैसे ही ट्रांस वुमन के लिए भगवान ने ट्रांस मेन बनाया है

  #एनजीओ #ट्रांसजेंडर #किन्नर #valentines दिल्ली की शामें तो रंगीन होती ही है। कहते है #दिल्ली दिलवालों की है और जिंदगी की अनन्त संभावना...