आंदोलनजीवी की अस्मिता और लोकतंत्र के अंतर्द्वंद,aandolanjivi,loktntntra
मृदुभाषी
जिंदगी के आठ दशक पार कर चूकी बठिंडा की मोहिंदर कौर किसान आंदोलन की पोस्टर वुमन है,वह कमर झुकाकर चल रही है और एक हाथ में भारतीय किसान यूनियन का झंडा थामे हैं। लेकिन एक और दादी भी किसान आंदोलन को समर्थन देने के लिए चर्चा में है,जो बिलकिस बानो के नाम विख्यात है। वे सीएए के खिलाफ शाहीन बाग आंदोलन का चेहरा थी और टाइम मैगजीन ने उन्हें 100 प्रभावशाली लोगों की लिस्ट में शामिल किया गया था। दोनों दादियों की किसान आंदोलन में शख्सियत और उद्देश्य को लेकर आम राय अलग अलग बन सकती है।
हाल ही में सत्ता के खिलाफ या सत्ता के नीतियों के खिलाफ़ खड़े होने वाले लोकतांत्रिक जनआंदोलनों में अक्सर शामिल होने वाले लोगों की विश्वसनीयता पर सवाल उठा तो आंदोलनों की उपयोगिता भी सवालों में घिर गई। किसान आंदोलन से देश में जो माहौल दिखाई दे रहा है उस बीच इस प्रकार का सवाल खड़ा करना एक खेलने वाला दांव था और ऐसा करने से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कभी गुरेज भी नहीं करते।
लोकतांत्रिक
देश में जन आंदोलन रचनात्मक विषयों पर अहिंसात्मक तरीके से हो,यह अपेक्षा की जाती
है। भारत में भाषाई,जातीय,क्षेत्र
और कानून के समर्थन और विरोध में अक्सर आंदोलन होते रहे है जिनका अहिंसात्मक और
हिंसक रूप दोनों देश ने देखा है। कृषि कानूनों के विरोध में अहिंसात्मक
तरीकों से धरना और हड़ताल लगातार कई दिनों तक जारी रहने के बीच 26 जनवरी को गणतंत्र
दिवस पर अराजकता भी देखने को मिली और इसीलिए इस पर सवाल उठ खड़े हुए। इस अराजकता को लेकर वैचारिक समर्थन
असामान्य था और इसमें शामिल कुछ लोग किसान नहीं थे। यह संयोग भर इसलिए नहीं कहा जा
सकता क्योंकि इस आंदोलन में हर्ष
मंदर,योगेश यादव जैसे कुछ सामाजिक कार्यकर्ता भी जुड़े है जो पिछले कुछ सालों से
किसी भी सत्ता विरोधी आंदोलन के पक्ष में अपनी आवाज बुलंद करते रहे है।
मसलन योगिता भयाना को ही लीजिये,वे किसान आंदोलन का समर्थन कर रही है जबकि वे पीपल अगेंस्ट रेप्स इन इंडिया की संस्थापक होकर दिल्ली की एक जानी मानी सामाजिक कार्यकर्ता हैं और महिला सशक्तिकरण के उद्देश्य से पिछले 10 साल से सामाजिक हक
की लड़ाई में आम लोगों के पक्ष में काम कर रही हैं। उनकी संस्था भारत
में रेप पीड़ितों की देखभाल और उनकी कानूनी लड़ाई में मदद करती है,निर्भया को न्याय
दिलाने में भी योगिता ने महती भूमिका निभाई थी। वे किसान
आंदोलन में क्यों है,इसे लेकर संशय उत्पन्न हो सकता है।
इस
आंदोलन में भारतीय सेना से रिटायर्ड होने वाले जोगिंदर सिंह उगराहां भी है जो करीब ढाई दशक से
किसानों के मुद्दों पर संघर्ष कर रहे हैं। वहीं
डॉ.दर्शन पाल भी है जो लगभग चार दशक से चिकित्सा के क्षेत्र में अपनी सेवाएं देने
के साथ क्रांतिकारी किसान यूनियन के नेता भी हैं। उगराहां और डॉ.दर्शन पाल का उद्देश्य साफ है इसलिए इन्हें लेकिन
सवाल नहीं खड़े किये जा सकते लेकिन ऐसा सबके साथ नहीं है।
लोकतंत्र
का आधार व्यापक चर्चा और बहसें है, और सामान्य रूप से यह विश्वास किया जाता है की आंदोलन
से लोकतंत्र मजबूत होता है। भारत
में संसदीय लोकतंत्र तो है लेकिन भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में यह सवाल भी उभरता
है की प्रतिनिधित्व वाले लोकतंत्र में क्या सम्पूर्णता होती है। इसका जवाब जन आंदोलनों में मिल ही जाता
है। एक आदर्श लोकतंत्र में निर्णय लेने की प्रक्रिया लोकतांत्रिक होना
चाहिए और हर लोकतंत्र को इस आदर्श स्थिति को प्राप्त करने की कोशिश करना चाहिए। क्या भारत में इस प्रकार की
कोशिश की गई है। सामान्य लोकतंत्र
और एक अच्छे लोकतंत्र में फर्क समझने के लिए इसके बहुआयामी अर्थ को समझने की जरूरत
है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी
स्वयं इस देश के उन राजनेताओं में शुमार है जो भारतीय लोकतंत्र से हासिल की जाने
वाली सत्ता की चाबी के इस समय मजबूत दावेदार नजर आते है। उन्होंने यहां तक
आने के सफर में अपनी पहचान पुख्ता करने के लिए लोकतंत्र की जमीन पर होने वाले
आंदोलनों का ही सहारा लिया है। उनके राजनीतिक जीवन के सफर में
आपातकाल,कश्मीर,राम जन्मभूमि,स्वदेशी जागरण जैसे कई जन आंदोलन हुए है और उनकी
इसमें अहम भागीदारी भी रही है। 2014
में जब मोदी युग का सूत्रपात हुआ तब भी उसमें अन्ना और बाबा रामदेव के भ्रष्टाचार
विरोधी आंदोलन की बड़ी भूमिका मानी जाती है। इसे गैर राजनीतिक आंदोलन बताकर प्रचारित तो किया गया लेकिन कोई
आंदोलन लम्बे समय तक गैर राजनीतिक नहीं हो सकता और वह भी किसी लोकतांत्रिक देश में। राजनीतिक दलों का अंतिम लक्ष्य
सत्ता की प्राप्ति ही है अत: कोई भी विपक्षी दल सरकार के खिलाफ जाते हुए किसी
माहौल को अपने पक्ष में करने का प्रयास न करे,ऐसा मुमकिन भी नहीं है। बेशक किसान आंदोलन को भाजपा के खिलाफ
देखा जा रहा है और विपक्षी दल अपनी वापसी की संभावनाएं भी तलाश रहे है।
लोकतंत्र
जीवन के अनेक पहलुओं में प्रासंगिक है।
लेकिन इसका रचनात्मक होना जनकल्याण के लिए ज्यादा प्रभावकारी होता है। जन आंदोलनों के उद्देश्य के अनुरूप
लोगों की भागीदारी से इसमें पारदर्शिता बनी रहती है और इसे लेकर सजग और सावधान
रहने की जरूरत है। यह सजगता और स्पष्टता महात्मा गांधी के आंदोलनों में दिखती थी
और वे इसे लेकर सावधान रहते थे।
जनआंदोलनों को लोकतंत्र का प्राण बताने वाले डॉ.राम मनोहर
लोहिया ने कहा भी था की जिंदा कौमें पांच साल इंतजार
नहीं करती। भारत की आज़ादी के आंदोलन में गांधी और नेहरु के खास सहयोगी रहे
लोहिया आज़ादी के बाद नीतियों को लेकर नेहरु के सामने संसद में बेहद मुखरता से बोला
करते थे। उनकी तथ्य परक मुद्दों पर तत्कालीन सरकार निरुत्तर हो जाया करती
थी। एक बार जब डॉ. लोहिया से किसी ने यह सवाल किया कि उनके भीतर
जवाहर लाल नेहरू के प्रति इतना गुस्सा क्यों है तो उनका कहना था कि उनका उनसे निजी
कोई राग द्वेष नहीं है। वे नेहरु के शिष्य भी रहे है और वे उनका गहरा सम्मान करते
है लेकिन यह सारा विरोध वे सिद्धांत के लिए कर रहे हैं और देश में मरे हुए विपक्ष
को खड़ा करने के लिए कर रहे हैं। वे जानते थे कि नेहरू के नेतृत्व में कांग्रेस एक
चट्टान की तरह से है इसीलिए उससे टकराना ही होगा तभी उसमें दरार पड़ेगी।
यह घटनाक्रम आज़ादी के बाद दस पन्द्रह सालों का है और अब हमने लंबा सफर तय कर लिया है। अब विपक्ष के लिए भाजपा और मोदी उसी चट्टान की तरह खड़े है जिसकी चर्चा लोहिया ने कांग्रेस के लिए की थी। लेकिन अब संसद में कोई लोहिया और उन जैसा पारदर्शी व्यक्तित्व नहीं है अत: वैसे तथ्य परक विरोध की उम्मीद भी बेमानी है।
पिछलें कुछ सालों से भारत के लोकतंत्र में भारी
बदलाव देखने में आ रहे है और इसका प्रभाव आम जनमानस के साथ राजनीतिक विचारधाराओं
पर भी पड़ा है। यह जिम्मेदारी राजनीतिक पार्टियों की है की वे रचनात्मक तरीके से
अपना काम करके जनता को आकर्षित करें। यह दुर्भाग्य है की भारत जैसे मजबूत लोकतांत्रिक
देश में सत्ता और विपक्ष अपना समर्थन दिखाने के लिए कलाकारों और जानी मानी
शख्सियतों का उपयोग करने लगे है और यह स्थिति लोकतंत्र और आंदोलन के उद्देश्य और स्वरूप
को बिगाड़ने वाली है।
सत्ता के विरोध को हथियार बनाकर सामाजिक
कार्यकर्ताओं का राजनीतिक समर्थन अराजक स्थिति को बढ़ा सकता है,वहीं किसी आंदोलन को
देशद्रोह से जोड़ना वैधानिक और सामाजिक व्यवस्था के लिए भी खतरनाक है। जहां
तक लोकतंत्र का सवाल है तो इसका फायदा यह है की इसमें गलतियों को ज्यादा देर तक
छुपाया नहीं जा सकता,इन गलतियों पर सार्वजनिक चर्चा की गुंजाइश लोकतंत्र में है और
इनमे सुधार की गुंजाइश भी लोकतंत्र में है। इस स्थिति और भूमिका को लेकर सत्ता और विपक्ष को ज्यादा स्पष्ट होने की
जरूरत है।
टिप्पणियां