राष्ट्रीय सहारा
जवाहरलाल नेहरु ने अपनी किताब डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया में बुद्द की
शिक्षाओं पर बात करते हुए बुद्द और उनके शिष्य आनंद के बीच की एक घटना का वर्णन
किया है। इसके अनुसार एक बार बुद्द ने अपने हाथ
में कुछ सूखी पत्तियां लेकर अपने प्रिय शिष्य आनंद से पूछा कि हाथ की इन पत्तियों के
अलावा क्या और भी कही पत्तियां है। आनंद ने जवाब दिया,पतझड़ की पत्तियां सभी तरफ गिर रही है,और वे इतनी है कि
उनकी गिनती नहीं हो सकती। तब
बुद्द ने कहा, “इसी तरह
मैंने तुम्हें मुट्ठी भर सत्य दिए है,लेकिन इनके अलावा कई हजार सत्य है,इतने कि
उनकी गिनती नहीं हो सकती।”
नेपाल की राजनीति के उथल पुथल के बीच तत्कालीन समय में नेहरु की नेपाल के संबंध में नीति बेहद दिलचस्प नजर आती है। उन्होंने लोकतंत्र के समर्थन से ज्यादा भारत के राष्ट्रीय हितों को सर्वोपरी समझा। उनकी नजर में नेपाल में अचानक राजतन्त्र खत्म हो जाने से भारत के इस पड़ोसी देश में आंतरिक संघर्ष शुरू हो सकता था और नेपाल की भौगोलिक स्थिति को देखते हुए सामरिक और सांस्कृतिक दृष्टि से भारत के लिए यह बेहतर स्थिति न होती। लिहाजा भारत ने 1950 की एक मैत्री संधि के जरिये न केवल नेपाल की सुरक्षा सुनिश्चित की बल्कि राजा त्रिभुवन की मदद भी की। इसके बाद नेपाल में संवैधानिक राजतंत्र को बहाल किया गया। यह वह समय था जब राजा त्रिभुवन के अस्तित्व पर ही खतरा मंडरा रहा था और ऐसे समय में भारत में नेपाल के विलय की उनकी पेशकश को मानना भारत की आंतरिक और बाहय सुरक्षा के लिए आत्मघाती कदम हो सकता था। किसी चूके हुए और अलोकप्रिय राजा के किसी राज्य की संप्रभुता को दांव पर लगाने के निर्णय का परिणाम जन विद्रोह के रूप में सामने आ सकता था और ऐसे में भारत के लिए इसे सम्हालना बेहद मुश्किल हो सकता था। ऐसा लगता है की नेहरु ने बेहद कूटनीतिक दूरदर्शिता का परिचय देते हुए न केवल नेपाल में राजनीतिक स्थिरता कायम करके वहां की जनता की संवेदनाओं को जीत लिया बल्कि सीमित संसाधनों के बावजूद नेपाल की आर्थिक सहायता प्रदान करके चीन पर निर्णायक बढ़त हासिल कर ली। भारत और नेपाल के बीच की 1950 में हुई मैत्री संधि दोनों देश के मधुर संबंधों का आधार बन गई और इस प्रकार भारत ने चीन की शरण में जाते हुए एक देश को अपने पक्ष में कर लिया। इसके अनुसार दोनों देशों की सीमा एक-दूसरे के नागरिकों के लिए खुली रहेगी और उन्हें एक-दूसरे के देशों में बिना रोकटोक रहने और काम करने की अनुमति होगी। इस सन्धि से दोनों देशों की जनता में अभूतपूर्व विश्वास बढ़ा। इस समय नेपाल और भारत के बीच बेरोकटोक आवागमन होता है।
गौरतलब है की नेपाल की राजनीति में 1950 से लेकर 1955 तक गहरा अस्थायित्व रहा।1951 में दिल्ली समझौते के बाद नेपाल में संयुक्त सरकार की स्थापना हुई। लेकिन कुछ ही दिनों बाद राणाओं और नेपाली कांग्रेस में गहरे मतभेद पैदा हो गये थे, जिसके बाद नेपाल में एक सशत्र विद्रोह प्रारम्भ हो गया था। इस समय देश में कम्युनिस्ट विचारधारा के लोगों का भी अच्छा खासा प्रभाव था,भारत के किसी अप्रिय कूटनीतिक कदम से वहां की जनता भारत के खिलाफ लामबंद हो सकती थी और उससे चीन मजबूत हो सकता था। नव स्वतंत्र भारत ने शुरू से ही नेपाल में लोकतंत्र को मजबूत करने की कोशिशें जारी रखी,1947 में नेपाल के प्रधानमन्त्री की मांग पर भारत ने नेपाल की सरकार को नया संविधान बनाने में सहायता देने के लिए वरिष्ठ राजनीतिज्ञ श्रीप्रकाश के साथ नई संधि करने का प्रस्ताव रखा,जो बेहद कारगर और महत्वपूर्ण परिणाम देने वाला रहा।भारत की आज़ादी के आंदोलन में उपनिवेश और साम्राज्यवाद का विरोध केंद्र में रहा था। साम्राज्यवाद यह राज्य की ऐसी नीति है जिसका उद्देश्य अपने राज्य की सीमाओं से बाहर रहने वाली ऐसी जनता पर अपना नियन्त्रण स्थापित करना होता है,जो सामान्य रूप से ऐसे नियंत्रण को स्वीकार करने के लिए अनिच्छुक है। क्या भारत किसी अलोकप्रिय राजा के द्वारा अपने राज्य को भारत में मिलाने के फैसले को स्वीकार करने की गलती कर सकता था। नेपाल अब भी राजतन्त्र और लोकतंत्र के बीच झूलता हुआ नजर आता है और वहां आंतरिक अशांति बदस्तूर जारी है। शुक्र है नेहरु ने ऐसा कोई निर्णय नहीं लिया जिसके दूरगामी परिणाम नव स्वतंत्र भारत की सुरक्षा और प्रगति के लिए नासूर बन जाते।
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