राष्ट्रीय सहारा
इंडो पैसिफिक पर भारत अमेरिका गठजोड़
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संयुक्त राष्ट्र के वैश्विक शांति और सुरक्षा के लिए तय किए गए निश्चित मापदण्डों और नियमों के उलट चीन की सामरिक नीति इस सिद्धान्त पर आधारित है कि, शक्ति को सीमाओं में बांधकर हासिल नहीं किया जा सकता,यह राजनीति,नैतिकता और अन्तर्राष्ट्रीय विधि से नियंत्रित नहीं होती। चीन का वैश्विक व्यवहार असंतुलित और आक्रमणकारी माना जाता है और इसी कारण अमेरिका और भारत जैसे देश लामबंद होकर चीन की साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षाओं को रोकने के लिए कृतसंकल्पित नजर आ रहे है।
हाल ही में भारत और अमेरिका के बीच टू प्लस टू की बातचीत के मुद्दों से यह साफ हो गया कि अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर चीन को रोकने के लिए सामूहिक सुरक्षा की नीति पर काम किया जाएगा और इसके केंद्र में इंडो पैसिफिक रीजन होगा। दरअसल इंडो पैसिफिक का समूचा क्षेत्र आर्थिक और भू सामरिक दृष्टि से बेहद महत्वपूर्ण है और चीन इस क्षेत्र को लगातार घेर रहा है। ऐसे में विश्व राजनीति में अपना प्रभुत्व बनाएं रखने के लिए इस क्षेत्र की सुरक्षा बेहद जरूरी है। भारत अमेरिका ने बेसिक एक्सचेंज एंड कोऑपरेशन एग्रीमेंट के जरिए चीन को यह संदेश दिया है कि,इस क्षेत्र में उसको नियंत्रित करने के लिए भारत और अमेरिका साझा और ठोस प्रयास करेंगे। जिसमें एक दूसरे से संवेदनशील सूचनाओं को साझा करना,रक्षा संबंध मजबूत करना,पड़ोसी देशों व तीसरी दुनिया के देशों में संभावित क्षमता निर्माण और अन्य संयुक्त सहयोग गतिविधियों का पता लगाना, अन्तर्राष्ट्रीय सागर में नेविगेशन के कानून और आजादी के नियम की इज्जत करने वाले नियम आधारित अन्तर्राष्ट्रीय आदेश कायम रखना और सभी राज्यों में क्षेत्रीय अखंडता व संप्रभुता बनाए रखना जरूरी है। यूएस स्टेट सेक्रेटरी माइक पॉम्पियो ने इस मौके पर खसतौर से चीन की कड़ी आलोचना करते हुए चाइनीज कम्युनिस्ट पार्टी की ओर से पैदा किए गए चुनौतियों का जिक्र करते हुए उसे लोकतंत्र और अन्तर्राष्ट्रीय क़ानूनों के लिए समस्यापूर्ण बताया।
वास्तव में चीन
की नीतियों में पारम्परिक रूप से मिडिल किंगडम की भावना विद्यमान रही है। प्राचीन
समय में चीन निवासी अपने आप को विश्व के केन्द्र के रूप में होने का दावा करते थे
इसके तीन मौलिक तत्व अब भी चीन की विदेश नीति में पाये जाते हैं। पहला चीन को
संयुक्त राष्ट्र संघ की सहायता की कोई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि चीन को कोई देश न मानकर विश्व ही माना जाए। दूसरा
चीन बहुत उदार है और जो उसकी नीतियों के अंतर्गत चलता है उस पर चीन कृपा रखता है
और तीसरा तत्व यह है कि चीन कभी भी बाहरी प्रभाव से प्रभावित नहीं होता है।
प्राचीन काल से चली आ रही इस परम्परा को चीन ने जीवित रखा है। वह अंतर्राष्ट्रीय
न्यायालय के फैसलों को दरकिनार कर देता है और संयुक्तराष्ट्र के नियमों के उलट
व्यवहार करता है।
भारत और अमेरिका के बीच टू
प्लस टू की बातचीत पर चीन ने कड़ी प्रतिक्रिया दी लेकिन इससे यह भी साफ हुआ की चीन
को रोकने के लिए लगातार कूटनीतिक और सामूहिक सुरक्षा के कदम उठाने होंगे। कूटनीति को
राष्ट्रीय हित,राष्ट्रीय शक्ति और विदेश नीति के साथ ही साथ राष्ट्रों के मध्य
शक्ति प्राप्ति के चल रहे संघर्षों में शक्ति प्रबन्धन और समायोजन द्वारा
अंतर्राष्ट्रीय शांति को बनाये रखने का एक महत्वपूर्ण साधन बताया जाता है। कूटनीति अपने
राष्ट्र के राष्ट्रीय हित के बीच प्रतिकूलता को कम करने और अनुकूलनता को स्थापित
करने का एक शांतिपूर्ण साधन भी माना जाता है।
1980 के दशक के अंत में चीनी नौसेना के एक अधिकारी ल्यू हुआ किंग ने समुद्री इलाक़े पर चीनी प्रभुत्व बढ़ाने की एक रणनीति बनाई थी,जिसमें अपने जल क्षेत्र से बाहर काम करने में सक्षम पनडुब्बी बनाना,हिन्द महासागर में उसका संचालन करना और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चीनी धाक जमाना था,इसलिए इस योजना को अमल में लाने के लिए चीन ने अपने रक्षा बजट में भी बेहताशा बढ़ोत्तरी की। हिन्द महासागर में चीन ने परमाणु शक्ति चालित हमलावर पनडुब्बी एसएनएन की तैनाती कर भारत की सामरिक घेराबंदी का संकेत साल 2013 में ही दे दिया था,यहीं नहीं उसने बेहद शातिराना ढंग से समुद्री डकैतों को रोकने के नाम पर साल 2008 से ही अदन की खाड़ी में अपने व्यापारिक जहाजों और नाविकों की सुरक्षा के लिए युद्धपोत तैनात कर दिए थे। भारत अदन की खाड़ी और मलक्का जलडमरूमध्य के बीच पूरे क्षेत्र को अपने प्रभाव का हिस्सा मानता है,यह इलाका भारत के समुद्री व्यापार के लिए भी बेहद महत्वपूर्ण है। देश की 80 फ़ीसदी ऊर्जा आपूर्ति यानि रोजाना करीब 38.6 लाख कच्चा बैरल तेल इसी इलाके से गुजरता है,इसलिये भारत के व्यापारिक और सामरिक हितों के लिए ये समुद्री क्षेत्र बहुत ही संवेदनशील है। दूसरी और हमारे रक्षा प्रतिष्ठान यह स्वीकार करते है की चीन को रोकने की भारत के पास अभी सामरिक क्षमता नहीं है,और यहीं कारण है की भारत ने अमेरिका,जापान और ऑस्ट्रेलिया से मिलकर मालाबार युद्धाभ्यास की शुरुआत की और इसमें अपने सबसे उन्नत जंगी जहाजों को लगाया।
29 सितम्बर 2015 को अमेरिका के विदेश मंत्री जॉन केरी ने
संयुक्त राष्ट्र महासभा के वार्षिक सम्मेलन
के दौरान न्यूयार्क में पहली बार भारत और जापान के विदेश मंत्रियों के साथ
त्रिपक्षीय वार्ता का आयोजन किया था। माना जाता है की उस बैठक से यह तय किया गया था की चीन
के समुद्री प्रभुत्व को रोकने के लिए कड़े कदम उठाये जाने के संकेत दिये थे और इसके
परिणाम ही भारत और अमेरिका के बीच बढ़ता सामरिक सहयोग है।
अमेरिकी विदेश नीति में एशिया प्रशांत क्षेत्र को बेहद महत्वपूर्ण माना गया है,चीन के उभार को रोकने के लिए कूटनीति और सामरिक रूप से अमेरिका एशिया के कई इलाकों में अपनी सैन्य क्षमता को बढ़ा रहा है। ओबामा काल में अमेरिका की एशिया केंद्रित नीति में जापान,दक्षिण कोरिया,थाईलैंड,फिलीपींस और ऑस्ट्रेलिया के सहयोग से चीन को चुनौती देने की प्रारंभिक नीति पर काम किया गया था। ओबामा ने एशिया में अपने विश्वसनीय सहयोगी देशों के साथ ही उन देशों को जोड़ने की नीति पर भी काम किया जो चीन की विस्तारवादी नीति और अवैधानिक दावों से परेशान है। इन देशों में भारत समेत इंडोनेशिया, ताइवान,मलेशिया,म्यांमार,ताजीकिस्तान,किर्गिस्तान,कजाकिस्तान,लाओस और वियतनाम जैसे देश शामिल है। इनमें कुछ देश दक्षिण चीन सागर पर चीन के अवैध दावों को चुनौती देना चाहते है और कुछ देश चीन की भौगोलिक सीमाओं के विस्तार के लिए सैन्य दबाव और अतिक्रमण की घटनाओं से क्षुब्ध है। कजाकिस्तान,कम्बोडिया और दक्षिण कोरिया की सम्प्रभुता को चुनौती देते हुए चीन इन्हें ऐतिहासिक रूप से अपना बताता है,नेपाल और भारत के कई इलाकों पर तथा दक्षिण चीनी समुद्र पर भी चीन का इसी प्रकार का दावा है। भारत,ऑस्ट्रेलिया,जापान और अमेरिका लगातार एशिया प्रशांत के समुद्र में अपनी शक्ति बढ़ा रहे है,अमेरिका के नेतृत्व में दि क्वाड्रिलैटरल सिक्युरिटी डायलॉग या क्वॉड की रणनीति पर काम किया जा रहा है।
जाहिर है चीन की
ओर से आक्रामक और अस्थिरता वाली गतिविधियां रोकने के लिए सभी देशों को मिलकर साझा
प्रयास करने होंगे,वहीं
चीन से सीमाई विवादों में उलझे देश यह समझ गये है कि द्विपक्षीय सम्बन्धों और
वार्ताओं से चीन को नियंत्रित नहीं किया जा सकता। वैश्विक शक्तियों के साथ सामूहिक
सुरक्षा की नीति पर चलकर और चीन की सामरिक घेराबंदी करने से ही चीन की
विस्तारवादी नीति को रोका जा सकता है। भारत अमेरिका के मजबूत होते सम्बन्ध चीन पर दबाव बढ़ाने की रणनीति के
रूप में देखे जाने चाहिए।
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