सवालों में फिलस्तीन का भविष्य,phelestine ka bhavishy

 

जनसत्ता

          

अंतर्राष्ट्रीय राजनीति का यथार्थवादी दृष्टिकोण इस बात पर बल देता है की राष्ट्र की शक्ति का विकास ही उसके हितों को पूर्ण करने का एकमात्र माध्यम है तथा विदेश नीति संबंधी निर्णय राष्ट्रीय हित के आधार पर लिए जाने चाहिए न कि नैतिक सिद्धांतों और भावनात्मक मान्यताओं के आधार पर1947 से विश्व राजनीति में उथल पुथल मचाने वाले इजराइल और फिलीस्तीन का जमीनी विवाद अब इन दो राष्ट्रों तक ही सीमित रहने के संकेत मिलने लगे है इस साल ट्रम्प के 'डील ऑफ़ द सेंचुरी' के दांव में इसराइल,यूएई और बहरीन ने जब हाथ मिलाया तो यह साफ हो गया था की मध्यपूर्व अब पारम्परिक प्रतिद्वंदिता को पीछे छोड़कर आगे बढ़ रहा है और अरब देशों के लिए फिलीस्तीन नीतिगत और निर्णायक मुद्दा बना नहीं रह सकता

दरअसल 1947 में संयुक्त राष्ट्र  द्वारा फिलीस्तीन को स्वतंत्र यहूदी राष्ट्र और अरब राष्ट्र में बांटने की सिफ़ारिश के बाद इस इलाके में संघर्ष का नया दौर शुरू हो गया था फिलीस्तीन को मुस्लिम और अरब अस्मिता से जोड़ने वाले ज़्यादातर अरब देश इस नीति पर अडिग माने जाते थे की वे इसराइल के साथ रिश्ते तभी सामान्य करेंगे जब वो फिलीस्तीन के साथ जारी अपने विवाद का निबटारा कर लेगालेकिन 1947 से लेकर 2020 तक मध्यपूर्व की भू रणनीतिक स्थितियों में भारी बदलाव आए है इसराइल को रणनीतिक रूप से घेरने वाले देश आंतरिक अशांति और राजसत्ता की अपनी मजबूरियों से जूझ रहे हैइसराइल के उत्तर में लेबनान और पूर्व में सीरिया है। यह दोनों देश गृहयुद्द से बूरी तरह से प्रभावित है। जबकि उसके दूसरे पड़ोसी जार्डन और मिस्र 1967 के इसराइल अरब युद्द के बाद  यहूदी राष्ट्र के साथ राजनयिक संबंध स्थापित कर खामोश है। इन सबके बीच इसराइल को मध्य पूर्व से खत्म कर अरब राष्ट्रवाद की अगुवाई का स्वप्न ही इस्लामिक दुनिया को दो भागों में बाँट गया हैइसराइल -फिलीस्तीन विवाद की परछाई में शिया बाहुल्य ईरान ने लेबनान के आतंकवादी संगठन हिजबुल्ला को भारी संख्या में हथियार और गोला बारूद देकर इसराइल पर हमला करने के लिए  लगातार प्रोत्साहित किया,वहीं सुन्नी बाहुल्य सऊदी अरब ने फिलीस्तीन के चरमपंथी संगठन हमास को हथियार देकर इसराइल को निशाना बनाने की कोशिश की इस्लामिक दुनिया में बादशाहत कायम रखने के लिए ईरान और सऊदी अरब इसराइल को निशाना बनाते  बनाते आपसी हितों के लिए कालांतर में एक दूसरे के ही प्रतिद्वंदी बन गए  


ईरान इसराइल को घेरने के साथ ही साथ मध्यपूर्व के देशों में शिया प्रभाव के कायम करने के लिए प्रतिबद्धता दिखाने लगा था और यह सुन्नी बहुल सऊदी अरब के लिए स्वीकार्य नहीं था इसका प्रभाव मध्यपूर्व से लेकर यूरोप तक पड़ा और सीरिया,इराक,लीबिया,लेबनान,यमन से लेकर तुर्की  समेत कई देश प्रभावित हुएमध्यपूर्व पिछले कई सालों से लगातार अस्थिरता के दौर से गुज़र रहा है यमन,सीरिया,इराक़ और लेबनान जैसे देशों में ईरान समर्थित सेना इन देशों में स्थित सुन्नी प्रशासन के खिलाफ विद्रोहियों को लगातार हथियार और प्रश्रय दे रही है ईरान एक मजबूत शिया बाहुल्य देश है जो अमेरिका,इसराइल और सऊदी अरब की आंखों की किरकिरी होने के बाद भी अपने मजबूत राष्ट्रवाद के बूते जिंदा और आबाद है। ईरान के रिवोल्यूशनरी गार्ड सीरिया और ईरान में कट्टरपंथी सुन्नी एकाधिकार को चुनौती दे रहे है, यमन के हुती विद्रोही शिया प्रभाव को उस इलाके में काबिज रखे हुए है,वहीं लेबनान का हिजबुल्ला आतंकी संगठन इसराइल की नाक में दम किए हुए है।  दूसरी ओर आर्थिक जरूरतें बढ़ने,तेल का घाटा दूर करने  और ईरान पर दबाव बढ़ाने के लिए सऊदी अरब ने आईएसआईएस का दांव खेला था जिससे  सीरिया,इराक और ईरान तबाह  हो जाये,इन देशों का तेल भंडार नष्ट हो जाएं और तेल की दुनिया का सरताज  वह हो जाए। शिया-सुन्नी प्रतिद्वंदिता और आर्थिक फायदों के लिए यह समूचा क्षेत्र ही अस्थिर हो गयाऐसे में इसराइल के धुर विरोधी देश अब फिलीस्तीन से ज्यादा अपने अस्तित्व को बचाने की फ़िक्र कर रहे है


इसी का परिणाम है कि मध्य पूर्व में रणनीतिक साझेदारी में अरब की अगुवाई का दुस्वप्न पाले सऊदी अरब इसराइल का हमराह बन रहा है और  जिसकी कल्पना शायद ही किसी ने कभी की होइसराइल अब मध्य पूर्व का सबसे बड़ा रणनीतिक खिलाड़ी बनकर अरब से संबंधों की जो नई इबारत गढ़ रहा है,इससे फिलीस्तीन समेत वैश्विक कूटनीतिक में भारी परिवर्तन होने की संभावना के संकेत मिल रहे है। गौरतलब है की शिया,सुन्नी,यहूदी और ईसाईयों के धार्मिक संघर्ष और गृहयुद्द से रक्तरंजित मध्यपूर्व में फिलिस्तीन- इसराइल विवाद को  शांति के लिए अभिशाप समझा जाता है इसराइल की स्थापना के साथ ही उत्पन्न हुए इस विवाद का समाधान करने में वैश्विक समुदाय असमर्थ रहा है और यह समस्या आतंकवाद को बढ़ावा मिलने का कारण मानी जाती है

वास्तव में शक्ति संतुलन अंतर्राष्ट्रीय राजनीति की एक क्रीडा है जिसे विभिन्न राष्ट्र विभिन्न साधनों की सहायता से संचालित करते हैअंतर्राष्ट्रीय राजनीति में राष्ट्रों के महत्वपूर्ण हितों के लिए या तो खतरा विद्यमान रहता है या खतरा उत्पन्न होने की आशंका सदैव बनी रहती है सऊदी अरब के प्रिंस मोहम्मद सुलेमान महत्वाकांक्षी होकर आक्रामक रणनीतिक कदम उठाने के लिए पहचाने जाते है वे ईरान की क़ुद्स फ़ोर्स के प्रमुख जनरल क़ासिम सुलेमानी की अमरीकी एयरस्ट्राइक में मौत पर मुस्कुराते भी है और इसराइल से सम्बन्धों को लेकर रहस्यमय ख़ामोशी भी बनाये रखते है



इस साल की शुरुआत में ईरान की क़ुद्स फ़ोर्स के प्रमुख जनरल क़ासिम सुलेमानी की अमरीकी एयरस्ट्राइक में मौत हो गई तो इसका जश्न अमेरिका,इसराइल से लेकर सऊदी अरब तक मनाया गया था सुलेमानी को पश्चिम एशिया में ईरानी गतिविधियों को चलाने का प्रमुख रणनीतिकार माना जाता रहा  था,वे 1998 से सुलेमानी ईरान की क़ुद्स फ़ोर्स का नेतृत्व कर रहे  थेईरान की रिवॉल्यूशनरी गार्ड्स की स्पेशल आर्मी क़ुद्स फ़ोर्स विदेशों में संवेदनशील मिशन को अंजाम देती  थी और इसे दुनिया में  शिया प्रभाव कायम करने का बड़ा  माध्यम माना जाता था। लेबनान के चरमपंथी संगठन हिज़बुल्ला और इराक़ के शिया लड़ाकों जैसे ईरान के क़रीबी सशस्त्र गुटों को हथियार और ट्रेनिंग देने का काम भी क़ुद्स फ़ोर्स का ही हैइसके साथ ही दुनिया भर में ईरान के दूतावासों में रिवॉल्यूशनरी गार्ड्स के जवान ख़ुफ़िया कामों के लिए तैनात किए जाते हैंये विदेशों में ईरान के समर्थक सशस्त्र गुटों को हथियार और ट्रेनिंग मुहैया कराते हैं। ईरान के प्रभाव को सीमित रखने के लिए अमेरिका और इसराइल बेहतर विकल्प माने जाते है। अत:फिलीस्तीन का समर्थन कर इसराइल से दूर रहने की नीति सऊदी अरब जैसे देश के लिए मुफीद नहीं थी,जिसके लिए ईरान उससे ज्यादा बड़ा खतरा नजर आता है।



सऊदी अरब के प्रिंस मोहम्मद सुलेमान अमेरिका और ईरान के सम्बन्धों को निचले स्तर तक ले जाने को कृत संकल्पित है। इसके पहले 2015 में ओबामा सरकार ने अपने सहयोगियों के साथ ईरान से एक परमाणु समझौता किया था। जिसके तहत साल 2016 में अमरीका और अन्य पांच देशों से ईरान को तेल बेचने और उसके केंद्रीय बैंक को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कारोबार की अनुमति मिली थी। अमरीका के तत्कालीन राष्ट्रपति बराक ओबामा के इस समझौते  को ईरान के परमाणु कार्यक्रम को सीमित करने की कोशिशों के तौर पर देखा गया था। सऊदी अरब अमेरिका के इस कदम से नाराज था और इसका प्रभाव ओबामा के जाते ही दिखा। अमेरिकी राष्ट्रपति और आर्थिक हितों को प्राथमिकता में रखकर आगे  बढ़ने वाले डोनाल्ड ट्रम्प  ने सत्ता में आते ही इस समझौते को बेकार बताकर अपने कदम वापस खींच लिए। जबकि ब्रिटेन,जर्मनी और फ्रांस जैसे देश ईरान से हुए  समझौते  का पालन करना चाहते थे। यूएई और सऊदी अरब जैसे देश यह भली भांति जानते है की इसराइल के साथ राजनयिक संबंधों का मतलब है की उन्हें ब्रिटेन,जर्मनी,फ्रांस समेत अमेरिका का भरपूर समर्थन मिलेगा और इससे ईरान पर अभूतपूर्व दबाव पड़ेगा।

मध्यपूर्व की राजनीति को तेल की अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति से अलग कर देखना असंभव है। अमेरिका की नजर ईरान के तेल कूओं पर है और वह उस पर दबाव डालने के लिए प्रतिबद्धता दिखाता रहा है जिससे अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के भाव में उतार चढ़ाव पर अमेरिका का नियंत्रण बना रहे। इसराइल और यूएई दोनों ही ईरान को अपना साझा दुश्मन मानते हैं और उन्हें लगता है कि इस तरह का समझौता करके वो ईरान के प्रभाव को कम कर सकते हैं इसराइल सऊदी अरब से ख़ुफ़िया जानकारियां साझा करता रहा है और वह शिया देश ईरान के दुश्मनों को आधुनिक हथियार और सुरक्षा उपकरण बेचने के लिए एक बड़े बाज़ार के रूप में देखता है



इस प्रकार इसराइल के यूएई और सऊदी अरब जैसे देशों से मजबूत होते संबंधों के बाद यह संभावना बढ़ गयी है कि अरब क्षेत्र में उसे मान्यता और वैधता मिलेगी और इससे दूसरे अरब देश भी इसराइल से हाथ मिला सकते हैं। बदलती परिस्थितियों में फिलीस्तीन का भविष्य इसराइल की उस मंशा के अनुसार नजर आ रहा है जिसके संकेत पूर्व में ही मिल चुके हैइसराइल के प्रधानमंत्री बिन्यामिन नेतन्याहू का विश्वास रहा है और वो हमेशा कहते आए हैं कि  फिलीस्तीनी समस्या के समाधान को परे रख कर भी अरब देशों के साथ शांति समझौते किए जा सकते हैं

फिलीस्तीन की स्थापना के लिए वर्षों से राजनयिक और सैनिक समर्थन देने वाले इस्लामिक देशों के मजबूत स्तंभों के इसराइल के साथ चले जाने से रणनीतिक मायने बदल गए हैइससे ईरान और तुर्की के साथ सऊदी अरब की प्रतिद्वंदिता बढ़ने की आशंका गहरा गई है। इसके दूरगामी परिणाम इस्लामिक देशों में आपसी संघर्ष को बढ़ा सकते है।  बहरहाल फिलीस्तीन के मुद्दे को पीछे छोड़कर अमेरिका,इसराइल और सऊदी अरब के मजबूत आर्थिक और रणनीतिक संबंध वैश्विक कूटनीति को नई दिशा देते हुए दिखाई दे रहे है।

संवैधानिक आदर्शों को सहेजता भारत,bharat sanvidhan aadrsh

 

     26 नवंबर-संविधान दिवस

प्रजातंत्र

    


भारत की सार्वभौमिकता को चुनौती देकर द्विराष्ट्रवाद के आधार पर पाकिस्तान बनाने वाले मोहम्मद अली जिन्ना का कोई भी नजदीकी वंशज अब पाकिस्तान में नहीं रहता है। 1948 को जिन्ना की मौत के बाद उनकी जायदाद की एक मात्र वारिस उनकी बहन फातिमा जिन्ना 1967 में चल बसी। मादर-मिल्लत के नाम से मशहूर फातिमा 1964-65 में फील्ड मार्शल अयूब खान के खिलाफ राष्ट्रपति पद का चुनाव भी लड़ी। लेकिन उन्हें शिया होने से गैर इस्लामिक कहकर नकार दिया गया और इसके बाद उन्होंने कभी न खत्म होने वाली ख़ामोशी ओढ़ ली। जिन्ना की बेटी दीना अपने पिता के साथ रहने कभी पाकिस्तान ही नहीं गई। वह केवल 1948 में जिन्ना की मैयत में शामिल होने कराची गई थी। दीना और उनके पति नेविल वाडिया ने मुंबई में अपना घर बनाया।  जिस पाकिस्तान का जन्म भारत से नफरत के कारण हुआ था,उसके जन्मदाता के रिश्तेदार भारत में ही रहते है। बदहाल पाकिस्तान में जिन्ना की कब्र की ख़ामोशी सब कुछ बयां करती है जबकि भारत में प्यार का ताजमहल सदा आबाद है। जिन्ना काश यह समझ गए होते की अपनी हिन्दुस्तानी पहचान को नकारने का मतलब अपनी हस्ती मिटा देना है।




दरअसल जिन्ना भारत में रहकर भी यह समझ ही नहीं पाएँ थे की इस जमीन की असल पहचान सार्वभौमिकता और मानवीयता है जो सहस्त्रों वर्षों से जनमानस के आचरण,व्यवहार और विचारों में पाई जाती है। भारत ने आज़ादी मिलने के बाद इसे संवैधानिक दायित्वों का आवश्यक अंग बनाया। इस समय दुनिया के कई देश धर्म आधारित पहचान को लेकर संघर्षरत है वहीं भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक और पंथ निरपेक्ष राष्ट्र के रूप में अपनी पहचान बनाकर दुनिया के सामने मानवीयता के आदर्श प्रस्तुत करता है। न्याय दर्शन के प्रथम प्रवक्ता और भारतीय ज्ञान परम्परा के महान मनीषी ऋषि गौतम की सहस्त्रों वर्षों पहले कही गई यह उक्ति सदैव प्रासंगिक है कि हमारा देश विभिन्न संस्कृतियों का देश है जो समूचे विश्व में अपनी एक अलग पहचान रखता है। अलग अलग संस्कृति और भाषाएँ होते हुए भी हम सभी एक सूत्र में बंधे हुए हैं तथा राष्ट्र की एकता और अखंडता को अक्षुण्ण रखने के लिए सदैव तत्पर रहते हैं।भारत की राष्ट्रीय एकता विविधताओं को एकाकार कर कौमी एकता की संकल्पना को सदियों से साकार करती रही है और यह विशेषता हमारे संविधान में भी दिखाई देती है।


13 दिसम्बर 1946 को संविधान निर्माण की दिशा में पहला कदम बढ़ाते हुए पंडित जवाहरलाल लाल नेहरु ने उद्देश्य प्रस्ताव रखते हुए कहा "मैं आपके सामने जो प्रस्ताव प्रस्तुत कर रहा हूँ उसमें हमारे उद्देश्यों की  व्याख्या की गयी है ,योजना की रूपरेखा दी गयी है और बताया गया है की हम किस रास्ते पर चलने वाले है"13 दिसम्बर से 19  दिसम्बर 1946 तक कुल आठ दिन संविधान सभा ने उद्देश्य प्रस्ताव पर विचार विमर्श कियाअंततः सभी सदस्यों ने खड़े होकर सर्वसम्मति से इसे पास कर दिया इस उद्देश्य प्रस्ताव में भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न लोकतान्त्रिक गणराज्य बनाने के साथ विचार,अभिव्यक्ति,विश्वास ,धर्म और उपासना की स्वतंत्रता सुनिश्चित करने की प्रतिज्ञा से यह साफ कर दिया गया की भारत की पहचान  एक  पंथनिरपेक्ष राष्ट्र  के रूप में ही होगीतमाम विरोधाभास और जिन्ना के राजनीतिक पृथकतावाद के बाद भी देश का धर्मनिरपेक्ष बना रहना भारतीय जनमानस के महान सार्वभौमिक चरित्र को प्रति बिंबित करता हैदेश के पहले शिक्षामंत्री मौलाना कलाम को भारत की कौमी एकता के बड़े प्रवर्तक के रूप में हमेशा याद किया जाता है। 1923 में कांग्रेस के विशेष अधिवेशन में अपने अध्यक्षीय संबोधन में उन्होंने कहा, ''आज अगर कोई देवी स्वर्ग से उतरकर भी यह कहे कि वह हमें हिंदू-मुस्लिम एकता की कीमत पर 24 घंटे के भीतर स्वतंत्रता दे देगी, तो मैं ऐसी स्वतंत्रता को त्यागना बेहतर समझूंगा। स्वतंत्रता मिलने में होने वाली देरी से हमें थोड़ा नुकसान तो ज़रूर होगा लेकिन अगर हमारी एकता टूट गई तो इससे पूरी मानवता का नुकसान होगा।'' पाकिस्तान कि अवधारणा को उन्होंने ख़ारिज करते हुए कहा था कि, नफ़रत की नींव पर तैयार हो रहा यह नया देश तभी तक ज़िंदा रहेगा जब तक यह नफ़रत जिंदा रहेगी, जब बंटवारे की यह आग ठंडी पड़ने लगेगी तो यह नया देश भी अलग-अलग टुकड़ों में बंटने लगेगा। जाहिर है पाकिस्तान 1971 में टूट गया  और एक नया देश बांग्लादेश अस्तित्व में आ गया। गांधी कहते थे की धर्म भिन्न भिन्न हो सकते है,लेकिन उससे संस्कृति भिन्न नहीं हो जाती। भारत से अलग होने के कुछ सालों बाद ही पाकिस्तान को अपने देश के अल्पसंख्यकों और बंगला भाषियों में ही सांस्कृतिक विरोध नजर आने लगा और उसने पूर्वी भाग को कुचलना शुरू कर दिया। पाकिस्तान की इन्हीं गलतियों के कारण वह विभाजित हुआ और बांग्लादेश बना।


आज़ादी के बाद भारत के लोकतांत्रिक ढांचे कि मजबूती का प्रमुख कारण हमारी सार्वभौमिक मान्यताएं ही रही। संयुक्त राष्ट्र द्वारा अंगीकृत मानव अधिकार घोषणा पत्र के अनुच्छेद 1 में यह कहा गया है की “सभी मनुष्य जन्म से ही गरिमा और अधिकारों की दृष्टि से स्वतंत्र और समान है। उन्हें बुद्धि और अंतश्चेतना प्रदान की गई है। उन्हें परस्पर भ्रातृत्व की भावना से कार्य करना चाहिए।” हमारे संविधान की उद्देशिका में बंधुता की यही भावना दृष्टि गोचर होती है। सभी नागरिकों में बंधुता की भावना का विकास और व्यक्ति की गरिमा के साथ राष्ट्र की एकता तथा अखंडता की रक्षा करना प्रस्तावना का मूल ध्येय है। संविधान में स्वतन्त्रता और समानता प्रदान करने के साथ साथ समाज में विद्यमान द्वेष को भी समाप्त करने का प्रयत्न किया गया है,जिससे लोगों के बीच भाईचारे का विकास हो और अपनत्व की भावना का निर्माण हो। व्यक्ति को प्राप्त स्वतन्त्रता,समानता तथा न्याय उपलब्ध कराने के लिए राष्ट्रीय एकता और अखंडता का निर्माण प्राथमिक शर्त है। अनेक मतों को मानने वाले भारत के लोगों की एकता और उनमें बंधुता स्थापित करने के लिए संविधान में पंथ निरपेक्ष राज्य का आदर्श रखा गया है।

जे.ई.वेल्डन कलकत्ता के पूर्व बिशप थे। भारत की आज़ादी के प्रश्न पर 1915 में उन्होने कहा था की,भारत से ब्रिटिश साम्राज्य का अंत एक अकल्पनीय घटना होगी। जैसे ही अंतिम ब्रिटिश सिपाही बंबई या कराची के बंदरगाह से रवाना होगा,हिंदुस्तान परस्पर धार्मिक और नस्लीय समूह के लोगों का अखाड़ा बन जाएगा। इसके साथ ही ग्रेट ब्रिटेन से जिस ठोस रूप में यहां एक शांतिप्रिय और प्रगतिशील सभ्यता की नींव रखी है वह रातों रात खत्म हो जाएगी।”



इसका जवाब 14ंं अगस्त 1947 की मध्य रात्रि को मिला। दिल्ली में जब आज़ाद भारत का पहली बार झण्डा फहराने का महाआयोजन किया गया,वंदे मातरम और ध्वज प्रस्तुतीकरण का दौर चला,उस रात उसमें बोलने वाले तीन प्रमुख वक्ता थे। सबसे पहले चौधरी ख़ालिक़ज्जमा ने मुसलमानों  की नुमाइंदगी करते  हुए कहा की यहां के अल्पसंख्यक समुदाय के लोग इस नए आज़ाद मुल्क के प्रति अपनी वफादारी निभाने से पीछे नहीं हटेंगे। इसके बाद देश के महान शिक्षाविद डॉ.राधाकृष्णन का भाषण हुआ और अंत में देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने कहा की यह एक ऐसा क्षण है जो इतिहास में बहुत कम ही प्रगट होता है,जब हम पुराने युग से नए युग में प्रवेश करते है।”

आज़ादी के बाद भारत की राष्ट्रीय एकता की परीक्षा की घड़ी थी और दुनिया इस और देख रही थी की भारत इस विभिन्नता का सामना करते हुए क्या एकता कायम रख पाएगा। इसका जवाब मुस्लिम बाहुल्य कश्मीर से मिला। भारत के विभाजन,आज़ादी और कश्मीर के भारत या पाकिस्तान में मिलने की कवायदों के बीच महात्मा गांधी ने खराब स्वास्थ्य के बाद भी कश्मीर की यात्रा की थी आज़ादी के महज कुछ दिनों पहले की गई इस यात्रा का ऐतिहासिक महत्व है और कश्मीर के भारत में विलय की संभावनाओं के द्वार भी इसी यात्रा से खुले पाकिस्तान के निर्माता मोहम्मद अली जिन्ना जब कश्मीर गए थे तो उन्हें वहां की जनता ने जमीदारों का पिट्ठू कहकर अपमानित किया लेकिन महात्मा गांधी का स्वागत करने के लिए समूचा कश्मीर उमड़ पड़ा। उनके दर्शन कर कश्मीरी लोग कह रहे थे कि पीर के दर्शन हो गए।



गांधी वहां से लौट आये और भारत का विभाजन होकर पाकिस्तान भी बन गया विभाजन के दंश झेलने वाले भारत और उसके टुकड़े पाकिस्तान के बीच अविश्वास की रेखा खींची जा चुकी थी। इसका असर कश्मीर पर पड़ना स्वभाविक ही था। हिंदू मुस्लिम और बौद्ध संस्कृति से आबाद इस रियासत का आज़ाद रहना पाकिस्तान को गंवारा नहीं हुआ द्विराष्ट्र को लेकर मुखर पाकिस्तानी सियासतदानों का यह मानना था कि उनकी सीमा से लगा कश्मीर मुस्लिम बाहुल्य है,अत: उसका स्वाभाविक विलय पाकिस्तान में होना चाहिए। लेकिन कश्मीर के लोगों ने गांधी के सर्वधर्म समभाव और भारत के लोकतंत्र को पसंद किया,इस प्रकार कश्मीर भारत का अंग बन गया।

इस समय हम देखते है की द्वेष और द्विराष्ट्र सिद्धान्त के आधार पर बना पाकिस्तान एक नाकाम राष्ट्र है जबकि सार्वभौमिकता का सम्मान करने वाला भारत दुनिया में एक मजबूत राष्ट्र के रूप में पहचान बनाने में सफल रहा है। इसमें सबसे महत्वपूर्ण योगदान हमारे संविधान का है जो विविधताओं का सम्मान करते हुए देश की एकता और अखंडता को सुनिश्चित करता है। यह भारत के नागरिकों के आचरण और व्यवहार में प्रतिबिम्बित होता,जहाँ भिन्न भिन्न संस्कृतियाँ फलीभूत होते हुए भारतीयता में आत्मसात होकर आनंदित होती है। यहाँ भिन्न भिन्न भाषाएँ बोली जाती है लेकिन उसमें मानवीयता के इतने गहरे संदेश होते है कि वह स्वत: भारतीयता में समाहित रहती है। यहाँ जातीय पहचान भी है और यह विविधता हमारी सेना में भी है,लेकिन सबका अंतिम ध्येय राष्ट्र के प्रति निष्ठा और असीम सम्मान होता है। मद्रास रेजिमेंट भारतीय सेना की सबसे पुरानी इंफेंट्री रेजीमेंटों में से एक है,इस रेजिमेंट के अधिकांश सैनिकों का संबंध तमिलनाडु, केरल,कर्नाटक एवं आंध्रप्रदेश जैसे दक्षिण भारतीय राज्यों से होता है लेकिन रेजिमेंट के अधिकारी के रूप में किसी भी राज्य के निवासी की नियुक्ति हो सकती हैपंजाब रेजिमेंट भारतीय सेना की उन सबसे पुरानी रेजीमेंट में से एक है जो अभी भी सेवारत है और इसने विभिन्न लड़ाइयों व युद्धों में भाग लिया है तथा अनेक सम्मान प्राप्त किये हैंइस रेजिमेंट में मुख्य रूप से पंजाब, जम्मू-कश्मीर और हिमाचल प्रदेश के सिख एवं डोगरा जाति के लोगों की भर्ती की जाती हैराजपूत रेजिमेंट में राजपूत,गुर्जर,ब्राह्मण, बंगाली,मुस्लिम,जाट,अहीर,सिख और डोगरा जाति के लोगों की भर्ती की जाती हैबिहार रेजिमेंट, असम रेजिमेंट,गढ़वाल राइफल्स,डोगरा रेजिमेंट,सिख रेजिमेंट,महार रेजिमेंट भी है लेकिन सबके लिए राष्ट्र सर्वोपरी है। पूर्वोत्तर में रहकर नगा साधुओं ने पूरे देश की सुरक्षा का जिम्मा उठाया तो दक्षिण भारत की तमिल और तेलगु का संस्कृत से सामीप्य भारतीयता को मजबूत करता रहा। सूफी परम्परा में शांति और सुकून के भाव है ,उर्दू,हिंदी की विनम्र बहन मानी जाती है वहीं गंगा में पवित्रता और मुक्ति के गहरे संदेश समाहित है।



भारत का संविधान न केवल राजनैतिक और विधिक समानता स्थापित करता है बल्कि सामाजिक समानता भी स्थापित करता है। संविधान में यह साफ उल्लेखित है कि किसी भी नागरिक को धर्म,मूलवंश,जाति,लिंग या जन्मस्थान के आधार पर किसी सामाजिक सुविधा या विशेषाधिकार के उपभोग से वंचित नहीं किया जाएगा। हमारे संविधान में सामाजिक और राजनैतिक क्षेत्र में समता और न्याय के आदर्श रखे गए है। लोकतंत्र की सर्वोच्च संस्था संसद में हमारे प्रतिनिधि बैठते है तो उनमे भारतीयता और एक राष्ट्र के प्रतिनिधित्व की अनुभूति होती है। यह विविधता भारत की असल शक्ति है जो भाषाई,धार्मिक,जातीय और क्षेत्रीय प्रतिकूलताओं के बाद भी एक भारत-श्रेष्ठ भारत को मजबूत करती है



गांधी भारत की सार्वभौमिक पहचान को जानते थे,अत: उसकी यह पहचान हमेशा बनाए रखना भी संवैधानिक रूप से सुनिश्चित किया गया। इतिहास का वह खास दिन बन गया जब संसद में अपने भाषण के दौरान पंथनिरपेक्ष शब्द का इस्तेमाल कर पूर्व राष्ट्रपति डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम ने यह संदेश देने कि कोशिश कि थी कि धर्म आस्था का विषय है जबकि हम सबकी पहचान भारतीय ही हो सकती है। डॉ. कलाम ने अपने जीवनकाल में कोई भी एक ऐसी बात नहीं की या आचरण नहीं किया जिससे यह लगे कि किसी धर्म विशेष के प्रति उनका लगाव या झुकाव था।

बहरहाल आज़ादी मिलने और देश में संविधान लागू होने के बाद हम आठवें दशक में प्रवेश कर चूके है। इस समय भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र और पंथनिरपेक्ष राज्य है। जिसने तमाम आशंकाओं को धराशायी करते हुए सफलता के कीर्तिमान गढ़े है। यह हमारे संविधान की ताकत है जो विविधताओं को आत्मसात कर एक भारत श्रेष्ठ भारत का मार्ग प्रशस्त करती है।

पूंजीवादी ताकतों से देश के समाजवादी ढांचे को बचाने की चुनौती,punjivadi smahvadi

26 नवंबर-संविधान दिवस पर विशेष

हम समवेत  

https://www.humsamvet.com/opinion-feature/challenge-of-saving-socialist-structure-of-our-nation-from-capitalistic-onslaught-8708 


90 के दशक में जब दुनिया में उदारीकरण,वैश्वीकरण और निजीकरण का दौर प्रारम्भ हुआ तो इसका प्रभाव भारत के समाजवादी ढांचे पर पड़ना ही था। स्वतंत्र भारत में लोकतंत्र होने से राजा महाराजाओं और जमींदारों के दिन लद चूके थे,सत्ता मुट्ठी भर लोगों के हाथों से फिसल चुकी थी और पूंजीवादी ताकतें अनुकूल समय का इंतजार कर रही थी। वैश्वीकरण से पूंजीवाद को प्रश्रय मिला और सामंती शक्तियां भारत में भी क्रियाशील हो गई। देश का संवैधानिक समाजवादी ढांचा पूंजीवाद को स्थापित होने से रोकने के लिए प्रतिबद्द था। ऐसे में 90 के दशक के अंत तक आते आते पूंजीवादी और सामंतवादी शक्तियों ने जनता के नुमाइंदों को येन केन कर अपने बाहुपाश में जकड़कर भारत के संविधान को ही नाकाम बताने और दिखाने की कोशिश की। 

 संविधान में संशोधन की ज़रूरत पर विचार करने के लिए न्यायमूर्ति  वैंकटचेलैया की अध्यक्षता में 22 फरवरी 2000 को संविधान समीक्षा के लिए राष्ट्रीय आयोग का गठन तत्कालीन केंद्र सरकार द्वारा किया गयाआयोग ने संसदीय ढांचे के अंतर्गत अब तक के कार्यों की समीक्षा का निर्णय लियासाल 2002 में आयोग ने अपनी रिपोर्ट केंद्र सरकार को सौंप दीयह भी बेहद दिलचस्प है कि राष्ट्रीय आयोग ने विभिन्न विषयों पर विचार के लिए दस विशेषज्ञों के दल गठित किए थेआयोग ने सार्वजनिक बहस के लिए बाईस परामर्श पत्र भी जारी किए थे।  मगर जनता ने इन सार्वजनिक पत्रों पर कोई विशेंष रुचि नहीं दिखाई। न्यायमूर्ति वेंकटचेलैया ने स्वीकार किया कि विशाल आबादी वाले देश में आयोग को सिर्फ़ छब्बीस हज़ार प्रतिक्रियाएं प्राप्त हुईं जो हर तरह से अपर्याप्त  थी


 
इस आयोग के गठन का विरोध कई संस्थाओं के साथ तत्कालीन राष्ट्रपति के.आर.नारायणन ने भी किया था26 जनवरी, 2000 को 50 वें गणतंत्र दिवस के मौके पर अपने संबोधन में उन्होंने संविधान समीक्षा की ज़रूरत पर सवाल उठाते हुए कहा था कि जब संशोधन की व्यवस्था है ही तो भी फिर समीक्षा क्यों होनी चाहिएबाद में राष्ट्रपति ने ऐसी कोशिशों पर नसीहत देते हुए कहा कि संविधान में परिवर्तन के बजाए,राजनेताओं को अपने आचरण में परिवर्तन करना चाहिए,क्योंकि संविधान निर्माताओं ने जिन आदर्शों का निर्माण किया था,उनका खुला उल्लंघन किया जा रहा है।” 

राष्ट्रपति समाजवादी  ढांचे,सामाजिक न्याय को प्रभावित करने वाली कोशिशों और राजनेताओं के गैर जिम्मेदार कार्यों से नाराज थे। संविधान निर्माण के समय भारत के संविधान की शक्ति और क्षमताओं को लेकर डॉ.भीमराव अम्बेडकर ने साफ किया था कि,मैं महसूस करता हूं कि संविधान चाहे कितना भी अच्छा क्यों न हो,यदि वे लोग, जिन्हें संविधान को अमल में लाने का काम सौंपा जाये,खराब निकले तो निश्चित रूप से संविधान खराब सिद्ध होगा दूसरी और  संविधान चाहे कितना भी खराब क्यों न हो,यदि वे लोग,जिन्हें संविधान को अमल में लाने का काम सौंपा जाये,अच्छे हो तो संविधान अच्छा सिद्ध होगा



दरअसल भारत का संविधान स्वतंत्रता के प्रणेताओं और लब्ध प्रतिष्ठित विद्वानों के हाथों से लिखा गया संविधान है यह नियमों का अद्भुत और ऐतिहासिक दस्तावेज़ है इसमें भारतीय संस्कृति और सभ्यता के मूलभूत आदर्श है,सामाजिक,आर्थिक और राजनीतिक न्याय हासिल करने की भरपूर संभावनाएं हैविचार,अभिव्यक्ति,विश्वास धर्म और उपासना की स्वतंत्रता भी है इसमें अवसर की समानता भी है यह व्यक्ति की गरिमा को संरक्षण देता है तो राष्ट्र की एकता और अखंडता को मजबूत भी करता है यह समाजवादी,पंथ निरपेक्ष लोकतांत्रिक,संप्रभू गणराज्य भारत की जनमानस की शक्ति का केंद्र है जिससे यह देश दुनिया का सबसे बड़ा और सफल लोकतंत्र  के रूप में पहचान बनाने में सफल रहा है



यहाँ लोगों के मौलिक अधिकार स्वयं सक्रिय है अर्थात् उन्हें चलायमान करने के लिए किसी विधि की आवश्यकता नहीं होती राज्य के नीति निदेशक तत्वों में आर्थिक लोकतंत्र की स्थापना की संभावनाएं बताई गई है यहां लोकतंत्र का सबसे बड़ा केंद्र संसद है और लोकसभा उसका सबसे महत्वपूर्ण संस्थान है जिसमें देश के कोने कोने से 543 सदस्य चुनकर आते है और लोकतंत्र के इस मंदिर की गरिमा बढ़ाते है सामाजिक न्याय की स्थापना के लिए अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए सीटें आरक्षित की गई है,जिससें देश के वंचित वर्ग को राजनीतिक स्तर पर प्रतिनिधित्व मिल सके

महात्मा गांधी ने सत्ता के विकेन्द्रीकरण का सपना देखा था और पंचायती राज्य उसी को प्रतिबिम्बित करता है यह शासन सत्ता को आम लोगों तक पहुँचाने का प्रयास है। स्वतंत्र भारत में देश का पुनर्निर्माण करने की बड़ी चुनौती थी और इसे पंचवर्षीय योजनाओं के द्वारा बखूबी अंजाम भी दिया गयाभारत बहुसांस्कृतिक,बहु भाषाई और भौगोलिक विविधताओं के बाद भी अपनी संवैधानिक शक्ति से निरंतर आगे बढ़ता रहा जबकि भारत का पड़ोसी पाकिस्तान संविधान आधारित समाज की स्थापना में बुरी तरह नाकाम रहा और बनने के महज 24 साल में ही उसके दो टुकड़े हो गए।

इस समय भारत दुनिया भर में एक सफल समाजवादी लोकतांत्रिक देश के रूप में पहचाना जाता है और इसका श्रेय हमारे संविधान को जाता है। वहीं बाजारवादी समाज के भीतर समतामूलक समाज की स्थापना नहीं हो सकती,इसका एहसास आम जनमानस को होना चाहिए। पिछलें कुछ सालों से भारत का समाजवादी ढांचा देश की लोकतांत्रिक सरकारों की नीतियों और चुनौतियों से बूरी तरह से जूझ रहा है। पूंजीपति ताकतें व्यवस्था पर हावी होकर सार्वजनिक क्षेत्र की समस्याओं का वैकल्पिक समाधान निजीकरण में करने को दबाव बना रही है और काफी हद तक वह इसमें सफल भी होती हुई दिखाई दे रही है।



भारत जैसे समाजवादी और गरीब देश में यदि आर्थिक व्यवस्थाओं को पूंजीवादी नियंत्रित करने लगे तो इसके परिणाम भयावह  हो सकते है। इस समय भारत की अर्थव्यवस्था चरमरा गई है,करोड़ों लोग गरीबी और बेरोजगारी के कुचक्र में फंस गए है,यह स्थितियां आंतरिक शांति कायम  रखने के लिए चुनौती पूर्ण है। भारत निजीकरण की राह पर बढ़ता जा रहा है। यहां यह समझने की जरूरत है कि निजीकरण उन देशों में ही सफल हो सकता है जहां अर्थव्यवस्था बेहतर और सशक्त है।  भारत जैसे विकासशील देश में सामाजिक और आर्थिक समानताएं व्यापक निजीकरण की इजाजत नहीं देती,दुनिया के सबसे ज्यादा गरीब,पिछड़े और अशिक्षित लोग भारत में रहते है और बड़ी मुश्किल से जीवन यापन करते है। 

स्वतंत्र भारत का भावी भविष्य तय करते हुए बाबा आम्बेडकर को सामाजिक न्याय की बड़ी चिंता थी वे संविधान सभा को चेतावनी देते हैं कि,अगर हमने इस ग़ैरबराबरी को ख़त्म नहीं किया तो इससे पीड़ित लोग उस ढांचे को ध्वस्त कर देंगे,जिसे इस संविधान सभा ने इतनी मेहनत से बनाया हैवे राज्य तंत्र पर सामंती और असमानता वाली सोच के दबदबे को लेकर बहुत असहज और फिक्रमंद थेसंविधान सभा के आख़िरी भाषण में बाबा साहब आर्थिक और सामाजिक गैरबराबरी के ख़ात्मे को राष्ट्रीय एजेंडे के रूप में सामने लाते हैं।”

अगस्त 1947 में संविधान सभा से मुखातिब होते हुए पंडित नेहरू ने कहा था की,“भारत की सेवा करने का अर्थ है,दुख और परेशानियों में पड़े लाखों करोड़ों लोगों की सेवा करना। इसका अर्थ है दरिद्रता का,अज्ञान और बीमारियों का,अवसर की असमानता का अंत। हमारे युग के महानतम आदमी की कामना हर आंख से आँसू पोंछने की है। संभव है यह काम हमारे भर से पूरा न हो पर जब तक लोगों की आँखों में आंसू है,कष्ट है तब तक हमारा काम खत्म नहीं होगा।”  

पंडित नेहरू,गांधी और डॉ. आंबेडकर हमारे बीच अब नहीं है लेकिन उनके दिखायें मार्ग पर चलने की जरूरत हर समय महसूस होती है।  आज़ादी के आठवें दशक में भी गरीबी और असमानता की चुनौतियां कहीं कम नजर नहीं आती। इन सबके बीच विकास का जो सफर देश ने तय किया है उसमें समाजवाद की बड़ी भूमिका रही है। समाजवाद से ही आम जनमानस ने बेहतर जीवन के सपने देखे जबकि पूंजीवाद करोड़ों गरीब लोगों में निराशा और हताशा को बढ़ा सकता था।  अंततः भारत का भविष्य समाजवाद में ही है और देश की विभिन्न सरकारों को इसे समझने और इसके अनुरूप व्यवहार करने की जरूरत है।

 

brahmadeep alune

पुरुष के लिए स्त्री है वैसे ही ट्रांस वुमन के लिए भगवान ने ट्रांस मेन बनाया है

  #एनजीओ #ट्रांसजेंडर #किन्नर #valentines दिल्ली की शामें तो रंगीन होती ही है। कहते है #दिल्ली दिलवालों की है और जिंदगी की अनन्त संभावना...