जनसत्ता
अंतर्राष्ट्रीय राजनीति का यथार्थवादी दृष्टिकोण इस बात पर बल देता
है की राष्ट्र की शक्ति का विकास ही उसके हितों को पूर्ण करने का एकमात्र माध्यम
है तथा विदेश नीति संबंधी निर्णय राष्ट्रीय हित के आधार पर लिए जाने चाहिए न कि
नैतिक सिद्धांतों और भावनात्मक मान्यताओं के आधार पर। 1947 से विश्व
राजनीति में उथल पुथल मचाने वाले इजराइल और फिलीस्तीन का जमीनी विवाद अब इन दो
राष्ट्रों तक ही सीमित रहने के संकेत मिलने लगे है। इस साल ट्रम्प के 'डील ऑफ़ द सेंचुरी' के दांव में इसराइल,यूएई और
बहरीन ने जब हाथ मिलाया तो यह साफ हो गया था की मध्यपूर्व अब पारम्परिक
प्रतिद्वंदिता को पीछे छोड़कर आगे बढ़ रहा है और अरब देशों के लिए फिलीस्तीन नीतिगत
और निर्णायक मुद्दा बना नहीं रह सकता।
इसी का परिणाम है कि मध्य पूर्व में रणनीतिक
साझेदारी में अरब की अगुवाई का दुस्वप्न पाले सऊदी अरब इसराइल
का हमराह बन रहा है और जिसकी कल्पना शायद
ही किसी ने कभी की हो। इसराइल अब मध्य पूर्व
का सबसे बड़ा रणनीतिक खिलाड़ी बनकर अरब से संबंधों की जो नई इबारत गढ़ रहा है,इससे
फिलीस्तीन समेत वैश्विक कूटनीतिक में भारी परिवर्तन होने की संभावना के संकेत मिल
रहे है। गौरतलब है की शिया,सुन्नी,यहूदी और ईसाईयों के धार्मिक संघर्ष और
गृहयुद्द से रक्तरंजित मध्यपूर्व में फिलिस्तीन-
इसराइल विवाद को शांति के लिए अभिशाप समझा जाता है। इसराइल की स्थापना के साथ ही उत्पन्न हुए इस विवाद का समाधान करने
में वैश्विक समुदाय असमर्थ रहा है और यह समस्या आतंकवाद को बढ़ावा मिलने का कारण
मानी जाती है।
वास्तव में शक्ति संतुलन अंतर्राष्ट्रीय राजनीति की एक क्रीडा है
जिसे विभिन्न राष्ट्र विभिन्न साधनों की सहायता से संचालित करते है। अंतर्राष्ट्रीय
राजनीति में राष्ट्रों के महत्वपूर्ण हितों के लिए या तो खतरा विद्यमान रहता है या
खतरा उत्पन्न होने की आशंका सदैव बनी रहती है। सऊदी अरब के प्रिंस मोहम्मद सुलेमान महत्वाकांक्षी होकर आक्रामक
रणनीतिक कदम उठाने के लिए पहचाने जाते है। वे ईरान की क़ुद्स फ़ोर्स के प्रमुख जनरल क़ासिम सुलेमानी की
अमरीकी एयरस्ट्राइक में मौत पर मुस्कुराते भी है
और इसराइल से सम्बन्धों को लेकर रहस्यमय
ख़ामोशी भी बनाये रखते है।
इस
साल की शुरुआत में ईरान की
क़ुद्स फ़ोर्स के प्रमुख जनरल क़ासिम सुलेमानी की अमरीकी एयरस्ट्राइक में मौत हो
गई तो इसका जश्न अमेरिका,इसराइल से लेकर सऊदी अरब तक मनाया गया था। सुलेमानी को पश्चिम एशिया में ईरानी गतिविधियों
को चलाने का प्रमुख रणनीतिकार माना जाता रहा था,वे 1998 से
सुलेमानी ईरान की क़ुद्स फ़ोर्स का नेतृत्व कर रहे थे। ईरान की रिवॉल्यूशनरी
गार्ड्स की स्पेशल आर्मी क़ुद्स फ़ोर्स विदेशों में संवेदनशील मिशन को अंजाम देती थी और इसे दुनिया में शिया प्रभाव कायम करने का बड़ा माध्यम माना जाता था। लेबनान के चरमपंथी संगठन हिज़बुल्ला
और इराक़ के शिया लड़ाकों जैसे ईरान के क़रीबी सशस्त्र गुटों को हथियार और
ट्रेनिंग देने का काम भी क़ुद्स फ़ोर्स का ही है। इसके साथ ही दुनिया
भर में ईरान के दूतावासों में रिवॉल्यूशनरी गार्ड्स के जवान ख़ुफ़िया कामों के लिए
तैनात किए जाते हैं। ये विदेशों में ईरान के समर्थक सशस्त्र गुटों को हथियार और ट्रेनिंग
मुहैया कराते हैं। ईरान के प्रभाव को सीमित रखने के लिए अमेरिका
और इसराइल बेहतर विकल्प माने जाते है। अत:फिलीस्तीन का समर्थन कर इसराइल से दूर
रहने की नीति सऊदी अरब जैसे देश के लिए मुफीद नहीं थी,जिसके लिए ईरान उससे ज्यादा
बड़ा खतरा नजर आता है।
सऊदी
अरब के प्रिंस मोहम्मद सुलेमान अमेरिका और ईरान के सम्बन्धों को निचले स्तर तक ले
जाने को कृत संकल्पित है। इसके पहले 2015 में ओबामा सरकार ने अपने सहयोगियों के साथ ईरान से एक
परमाणु समझौता किया था। जिसके तहत साल 2016 में अमरीका और अन्य पांच देशों से ईरान
को तेल बेचने और उसके केंद्रीय बैंक को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कारोबार की अनुमति
मिली थी। अमरीका के तत्कालीन राष्ट्रपति बराक ओबामा के इस समझौते को ईरान के परमाणु कार्यक्रम को सीमित करने की
कोशिशों के तौर पर देखा गया था। सऊदी
अरब अमेरिका के इस कदम से नाराज था और इसका प्रभाव ओबामा के जाते ही दिखा। अमेरिकी राष्ट्रपति और आर्थिक हितों को
प्राथमिकता में रखकर आगे बढ़ने वाले
डोनाल्ड ट्रम्प ने सत्ता में आते ही इस
समझौते को बेकार बताकर अपने कदम वापस खींच लिए। जबकि ब्रिटेन,जर्मनी और फ्रांस जैसे देश ईरान
से हुए समझौते का पालन करना चाहते थे। यूएई और सऊदी अरब जैसे
देश यह भली भांति जानते है की इसराइल के साथ राजनयिक संबंधों का मतलब है की उन्हें
ब्रिटेन,जर्मनी,फ्रांस समेत अमेरिका का भरपूर समर्थन मिलेगा
और इससे ईरान पर अभूतपूर्व दबाव पड़ेगा।
मध्यपूर्व
की राजनीति को तेल की अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति से अलग कर देखना असंभव है। अमेरिका
की नजर ईरान के तेल कूओं पर है और वह उस पर दबाव डालने के लिए प्रतिबद्धता दिखाता
रहा है जिससे अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के भाव में उतार चढ़ाव पर अमेरिका का नियंत्रण बना
रहे। इसराइल और यूएई दोनों ही ईरान को अपना साझा दुश्मन मानते हैं और
उन्हें लगता है कि इस तरह का समझौता करके वो ईरान के प्रभाव को कम कर सकते हैं। इसराइल सऊदी अरब से
ख़ुफ़िया जानकारियां साझा करता रहा है और वह शिया देश ईरान के दुश्मनों को आधुनिक
हथियार और सुरक्षा उपकरण बेचने के लिए एक बड़े बाज़ार के रूप में देखता है।
इस
प्रकार इसराइल के यूएई और सऊदी अरब जैसे देशों से मजबूत होते संबंधों के बाद यह
संभावना बढ़ गयी है कि अरब क्षेत्र में उसे मान्यता और वैधता मिलेगी और इससे दूसरे
अरब देश भी इसराइल से हाथ मिला सकते हैं। बदलती परिस्थितियों में फिलीस्तीन का भविष्य इसराइल की उस मंशा के अनुसार नजर आ रहा है जिसके संकेत पूर्व में
ही मिल चुके है।
इसराइल के प्रधानमंत्री बिन्यामिन नेतन्याहू का विश्वास रहा है और
वो हमेशा कहते आए हैं कि फिलीस्तीनी समस्या
के समाधान को परे रख कर भी अरब देशों के साथ शांति समझौते किए जा सकते हैं।
फिलीस्तीन
की स्थापना के लिए वर्षों से राजनयिक और सैनिक समर्थन देने वाले इस्लामिक देशों के
मजबूत स्तंभों के इसराइल के साथ चले जाने से रणनीतिक
मायने बदल गए है। इससे
ईरान और तुर्की के साथ सऊदी अरब की प्रतिद्वंदिता बढ़ने की आशंका गहरा गई है। इसके दूरगामी परिणाम इस्लामिक देशों
में आपसी संघर्ष को बढ़ा सकते है। बहरहाल फिलीस्तीन
के मुद्दे को पीछे छोड़कर अमेरिका,इसराइल और सऊदी अरब के मजबूत आर्थिक और
रणनीतिक संबंध वैश्विक कूटनीति को नई दिशा देते हुए दिखाई दे रहे है।