सुबह सवेरे
जे.ई.वेल्डन कलकत्ता के पूर्व बिशप थे। भारत की आज़ादी के प्रश्न पर 1915 में
उन्होने कहा था की,भारत से ब्रिटिश साम्राज्य का अंत एक
अकल्पनीय घटना होगी। जैसे ही अंतिम ब्रिटिश सिपाही बंबई या कराची के बंदरगाह से रवाना
होगा,हिंदुस्तान परस्पर धार्मिक और नस्लीय समूह के लोगों का
अखाड़ा बन जाएगा। इसके साथ ही ग्रेट ब्रिटेन से जिस ठोस रूप में यहां एक शांतिप्रिय
और प्रगतिशील सभ्यता की नींव रखी है वह रातों रात खत्म हो जाएगी।”
इसका जवाब 14 अगस्त 1947 की मध्य रात्रि को मिला। दिल्ली में जब आज़ाद भारत का पहली बार झण्डा फहराने का महा आयोजन किया गया,वंदे मातरम और ध्वज प्रस्तुतीकरण का दौर चला,उस रात उसमें बोलने वाले तीन प्रमुख वक्ता थे। सबसे पहले चौधरी ख़ालिक़ज्जमा ने मुसलमानों की नुमाइंदगी करते हुए कहा की यहां के अल्पसंख्यक समुदाय के लोग इस नए आज़ाद मुल्क के प्रति अपनी वफादारी निभाने से पीछे नहीं हटेंगे। इसके बाद देश के महान शिक्षाविद डॉ.राधाकृष्णन का भाषण हुआ और अंत में देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने कहा की यह एक ऐसा क्षण है जो इतिहास में बहुत कम ही प्रगट होता है,जब हम पुराने युग से नए युग में प्रवेश करते है। जब एक युग खत्म होता है और जब एक देश की बहुत दिनों से दबाई गई आत्मा अचानक अपनी अभिव्यक्ति पा लेती है।”
आज़ादी के बाद भारत की राष्ट्रीय एकता की परीक्षा की घड़ी थी और दुनिया इस और देख रही थी की भारत इस विभिन्नता का सामना करते हुए क्या एकता कायम रख पाएगा। इसका जवाब मुस्लिम बाहुल्य कश्मीर से मिला। कश्मीर की राजशाही को चुनौती देने वाले शेख अब्दुल्ला थे, जो गांधी के जन आंदोलन के बड़े समर्थक भी थे। लोकतंत्र की स्थापना के लिए वे लगातार संघर्ष कर रहे थे और इसी कारण उन्हें महाराजा हरिसिंह ने जेल में डाल दिया था। भारत की आज़ादी,विभाजन की तारीख तय होने और रियासतों के भारत या पाकिस्तान में मिलने की कवायदों के बीच महात्मा गांधी ने खराब स्वास्थ्य के बाद भी कश्मीर की यात्रा की थी।
आज़ादी के महज कुछ दिनों पहले की गई इस यात्रा का ऐतिहासिक महत्व है और कश्मीर के भारत में विलय की संभावनाओं के द्वार भी इसी यात्रा से खुले। पाकिस्तान के निर्माता मोहम्मद अली जिन्ना जब कश्मीर गए थे तो उन्हें वहां की जनता ने जमीदारों का पिट्ठू कहकर अपमानित किया था,लेकिन महात्मा गांधी का स्वागत करने के लिए समूचा कश्मीर उमड़ पड़ा। उनके दर्शन कर कश्मीरी लोग कह रहे थे कि पीर के दर्शन हो गए।
गांधी वहां से लौट आये और भारत का विभाजन होकर पाकिस्तान भी बन गया। विभाजन के दंश झेलने वाले भारत और उसके टुकड़े पाकिस्तान के बीच अविश्वास की रेखा खींची जा चुकी थी। इसका असर कश्मीर पर पड़ना स्वभाविक ही था। हिंदू,मुस्लिम और बौद्ध संस्कृति से आबाद इस रियासत का आज़ाद रहना पाकिस्तान को गंवारा नहीं हुआ। द्विराष्ट्र को लेकर मुखर पाकिस्तानी सियासतदानों का यह मानना था कि उनकी सीमा से लगे कश्मीर मुस्लिम बाहुल्य है,अत:उसका स्वभाविक विलय पाकिस्तान में होना चाहिए। लेकिन शेख अब्दुल्ला और कश्मीर के लोगों ने गांधी के सर्वधर्म समभाव,भारत के लोकतंत्र और धर्म निरपेक्षता को पसंद किया। इस प्रकार कश्मीर भारत का अंग बन गया।
दरअसल भारत की एकता और अखंडता बनायें रखने के लिए सबसे सुरक्षित लोकतंत्र और धर्म निरपेक्षता को माना गया, इसीलिए इसकी मजबूती को लेकर आज़ादी के आंदोलन और उसके बाद भी सभी के साझा प्रयास चलते रहे। यह इस बात की गारंटी देता था की जब जनता स्वयं अपने भाग्य का फैसला करेगी तो देश में सामंजस्य कायम होगा और राष्ट्रीय एकता मजबूत होगी। भारत की सार्वभौमिकता और लोकतंत्र पर इसी विश्वास के बूते सरदार वल्लभ भाई पटेल ने देशी राज्यों के एकीकरण की समस्या को बिना खून खराबे के बड़ी खूबी से हल किया।
1980 के दशक में पंजाब जब आतंकबाद से जल रहा था और इस बीच स्वर्ण मंदिर से आतंकियों को खदेड़ने के लिए ऑपरेशन ब्लू स्टार हुआ तो इसे पाकिस्तान ने सिख धर्म के अपमान की तरह कुप्रचारित किया। उस समय की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को सुरक्षा एजेंसियों ने सतर्क करते हुए कहा की ऐसे हालत में उन्हें अपने सिख अंगरक्षकों को हटा देना चाहिए। इंदिरा गांधी ने इस सलाह को यह कहते हुए मानने से इंकार कर दिया की सिखों ने इस देश के लिए सदैव बलिदान दिये है और वे ऐसा कोई काम नही कर सकती जिससे सिखों का भरोसा कम हो। बाद में 31 अक्तूबर 1984 को उनके सिख अंगरक्षकों ने ही इंदिरा गांधी की गोली मार कर हत्या कर दी। लेकिन अपने जीवन काल में इंदिरा गांधी ने कोई ऐसा काम नहीं किया जिससे देश की एकता और अखंडता प्रभावित हो।
लोकतंत्र की मजबूती के लिए गांधी असहमति
के सम्मान को सर्वोपरि रखते थे,यहां तक की महात्मा गांधी को खुद की आलोचना बहुत पसंद थी। उनका यही
साहस उन्हें लोगों से जोड़ देता था और वे सभी के प्रश्नों का जवाब देने के लिए सदैव
तैयार रहते थे। इसी कारण गांधी बुद्धिजीवियों और आम लोगों के बीच संवाद के सेतु
बने और स्वराज की भावना को घर घर तक पहुंचाने में कामयाब रहे। महात्मा गांधी ने एक
बार कहा था की मै जो चीज़ जनता के साथ बांट नहीं सकता,वह मेरे लिए निशिद्द है। यह भी बेहद दिलचस्प
है की आज़ाद भारत में राजनेता सर्वोच्च पदों पर रहकर जनमानस से आधिकांश बातें छूपा
लेते है।
इस दौर में भारत में जाति और धर्म के नाम पर हिंसा बेहद आम है। धर्म भारत के
लिए कितना जरूरी है इसका जवाब स्वामी विवेकानंद ने दिया था,“उन्होने
कहा था की भारत के लाखों पीड़ित जनता
अपने सूखे हुए गले से जिस चीज के लिए बार-बार गुहार लगा रही है वो रोटी
है। वो हमसे रोटी मांगते है,लेकिन हम उन्हें पत्थर
पकड़ा देते हैं। भूख से मरती जनता को धर्म का उपदेश देना उसका अपमान है।”
कम से कम राजनीतिक दलों पर तो भरोसा किया
ही नहीं जा सकता,जिनके व्यवहार
देश की एकता और अखंडता को प्रभावित कर रहे है। बलिया में एक व्यक्ति की सरेआम हत्या
के बाद वहां के विधायक ने सिर्फ अपनी जाति का होने के कारण हत्यारे के पक्ष में
बयान दे दिया। यहां तक की उन्मादी भीड़ हत्यारे शख्स को जेल तक फूल मालाओं से लाद
कर छोड़ने गई। इससे यह साफ हो गया की भारत अपने राष्ट्रीय मूल्यों से इतर आगे बढ़
रहा है और यह राष्ट्रीय एकता के लिए शुभ संकेत नहीं है।
डॉ.आंबेडकर ने कहा था की,संवैधानिक नैतिकता एक स्वाभाविक भावना नहीं है। हमें यह सोचना चाहिए की हमारे लोगों को अभी यह सीखना है। हिंदुस्तान की जमीन पर लोकतंत्र अभी भी ऊपरी सतह पर है,जो अपने आप में अलोकतांत्रिक बात है।” इतने सालों बाद भी डॉ.आंबेडकर की आशंका सही साबित हो रही है। बदलते भारत में बदलाव के अनगिनत ख्वाब तो है लेकिन लोकतंत्र में असहमति,सार्वभौमिकता और राष्ट्रीय एकता को लेकर वह पारदर्शी और सकारात्मक नजरिया नहीं जिसके बूते मजबूत भारत का ख्वाब साकार हो सके।