जनसत्ता
श्रीलंका में भारत की चुनौतियां ब्रह्मदीप अलूने
हिन्द महासागर के सिंहली द्वीप में सिंहली
राष्ट्रवाद की राजनीति राजपक्षे परिवार को खूब रास आ रही है। उनका राजनीतिक दल प्रतिद्वंदी दलों को
बहुत पीछे छोड़ते हुए अब श्रीलंका की सर्वोच्च सत्ता पर काबिज हो गया है। क़रीब एक दशक तक देश के राष्ट्रपति रह
चुके महिंदा राजपक्षे चौथी बार देश के प्रधानमंत्री बने है जबकि उनके छोटे भाई गोटाभाया
राजपक्षे इस समय श्रीलंका के राष्ट्रपति है। दरअसल भारत के इस पड़ोसी देश ने गृहयुद्द और आंतरिक असुरक्षा का
सामना लंबे समय तक किया है,लेकिन इस देश से तमिल पृथकतावादी आंदोलन के खत्म होने
के बाद यहां की राजनीति की दिशा ही बदल गई है। पिछले कुछ सालों से श्रीलंका में राष्ट्रवाद की लहर चल पड़ी है
और बहुसंख्यक सिंहलियों का विश्वास राजपक्षे बंधुओं पर गहरा हुआ है,जिनकी कड़ी
नीतियों से तमिल पृथकतावादी आंदोलन को खत्म कर देश को गृहयुद्द की कगार से उबार
लिया गया था। इस समय भी वहां की जनता यह मानती है की कोरोना काल के संकट से
देश को उबारने के लिए महेंदा राजपक्षे का राजनीतिक दल श्रीलंका पीपुल्स फ़्रंट सबसे
बेहतर विकल्प है और इसीलिए आम चुनावों में उसे ऐतिहासिक विजय मिली है।
इन सबके बीच राजपक्षे परिवार की नीतियाँ अल्पसंख्यक तमिलों के प्रति असामान्य और चीन के पक्ष में झुकती नजर आती है,इससे भारत के लिए चुनौतियां बढ़ सकती है। श्रीलंका की आबादी का लगभग 20 फीसदी तमिल है और वे भारतीय मूल के है। भारत के दक्षिणी तमिलनाडु राज्य से इन तमिलों के रोटी और बेटी के संबंध है। श्रीलंका कई सालों से तमिलों की राष्ट्रीयता और उनके अधिकारों के प्रति दुर्भावना का इजहार करता रहा है और वह भारत को लेकर भी आशंकित रहता है,जबकि भारत की नीति उसके प्रति ऐतिहासिक और सांस्कृतिक कारणों से बेहद मित्रवत रही है। दोनों देशों को आज़ादी लगभग साथ साथ ही प्राप्त हुई लेकिन श्रीलंका की राजनीतिक और वैदेशिक नीति में भारत विरोध प्रारम्भ से ही दिखाई दिया। भारत दक्षिण एशिया में साझी संस्कृति का सम्मान करते हुए उसके अनुरूप पड़ोसी देशों से व्यवहार करता है और इस समूचे क्षेत्र को सैनिक गठबंधनों से दूर रखने को कृतसंकल्पित रहा है,वहीं श्रीलंका की सामरिक नीति पश्चिमी देशों की और झुकती हुई और पूरे क्षेत्र को संकट में डालने वाली रही है। 1947 में ब्रिटेन से श्रीलंका की सैन्य संधि को लेकर भारत में बेहद असमंजस का माहौल बना तो कुछ वर्षों बाद श्रीलंका के प्रधानमंत्री कोटलेवाल ने मुखरता से यह कहने से गुरेज नहीं किया की पड़ोसी भारत उनके देश को हथिया न ले इसलिए बेहतर है यहां ब्रिटिश सैन्य अड्डा बना रहे। श्रीलंका का भारत के प्रति यह अविश्वास बाद में भी बदस्तूर जारी रहा। पाकिस्तान से नाभिकीय सहयोग और चीन से सबसे ज्यादा हथियार खरीदने की श्रीलंकाई नीति में भारत को चुनौती देने की भावना ही प्रतिबिम्बित होती है।
ऐसा भी नहीं है कि श्रीलंका में सत्तारूढ़ सभी
नेता भारत विरोधी रहे लेकिन उनकी तमिल विरोधी नीतियों को लेकर भारत की मुखरता
दोनों देशों के आपसी संबंधों को प्रभावित करती रही। इस समय श्रीलंका में सत्तारूढ़ पार्टी पर
राजपक्षे परिवार का प्रभाव है और वे उनके देश में भारत के प्रभाव को सीमित करने
तथा चीन और पाकिस्तान से सम्बन्ध मजबूत करने के प्रति लगातार प्रतिबद्धता दिखाते
रहे है। कुछ सालों पहले तक
श्रीलंका विकास और पुनर्निर्माण के लिए भारत पर निर्भर था लेकिन महिंदा राजपक्षे
और उनके भाई गोटाभाया राजपक्षे ने अपने देश की निर्भरता को भारत से कम करने की
नीति पर लगातार काम किया है और भारत की सामरिक सुरक्षा के लिए यह चुनौतिपूर्ण बन
गया है। श्रीलंका द्वीप का
उत्तरी भाग भारत के दक्षिण पूर्वी समुद्र तट से मात्र कुछ किलोमीटर दूर है और
तमिलनाडू प्रदेश के रामनाथ पुरम जिले से जाफना प्रायद्वीप तक का समुदी सफर छोटी छोटी नौकाओं में आसानी से प्रतिदिन लोग
करते है। मध्य कोलम्बो से
तूती कोरिन और तेलई मन्नार से रामेश्वरम के मध्य समुद्री नाव सेवा प्राचीन समय से
रही है,लेकिन अब श्रीलंका
भारत से ज्यादा महत्व चीन को दे रहा है और इस समय चीन का प्रभाव इस क्षेत्र में बढ़
गया है। भारत और श्रीलंका की
समुद्री सीमा बहुत करीब है और इसलिए मछुआरे एक दूसरे की सीमा में गलती से प्रवेश
कर जाते है,भारत जहां इसे आजीविका से सम्बन्धित समझता है,वहीं श्रीलंका तमिल
पृथकतावाद से इसे जोडकर भारतीय मछुवारों को निशाना भी बनाता रहा है।
2009 मे श्रीलंका में एलटीटीई के खात्मे के साथ 26
साल तक चलने वाला गृह युद्ध समाप्त हुआ तो चीन पहला देश था जो उसके
पुनर्निर्माण में खुलकर सामने आया था। चीन ने श्रीलंका में हम्बनटोटा पोर्ट का निर्माण कर हिंद
महासागर में भारत की चुनौती को बढ़ा दिया है। श्रीलंका ने चीन को लीज़ पर समुद्र में जो इलाक़ा सौंपा है वह भारत
से महज़ 100 मील की दूरी पर है। हंबनटोटा बंदरगाह दुनिया के सबसे व्यस्त
बंदरगाहों में से एक है और महिंदा राजपक्षे के कार्यकाल में बने इस बंदरगाह में
चीन से आने वाले माल को उतारकर देश के अन्य भागों तक पहुंचाने की योजना थी। चीन भारत का सामरिक प्रतिद्वंदी है और
स्ट्रिंग ऑफ़ पर्ल्स से समुद्र में भारत को उसकी घेरने की सामरिक महत्वाकांक्षा साफ नजर आती है,चीन भारत को हिन्द महासागर में
स्थित पड़ोसी देशों के बन्दरगाहों का विकास कर चारो और से घेरना चाहता है। हम्बनटोटा पोर्ट पर उसके अधिकार से भारत
की समुद्र में चिंताएं बढ़ी है।
दक्षिण एशिया में
श्रीलंका ऐसा पहला देश था जहां भारतीय तेल कंपनियों ने पेट्रोल पम्प खोले थे लेकिन
अब यहां हावी हो गया है।
चीन ने करोड़ो डॉलर की मदद देकर श्रीलंका में कई सड़क निर्माण परियोजनाएं चला रखी है,
श्रीलंका के दूरदराज़ के हिस्सों में स्कूलों में बच्चों को चीनी भाषा सिखाई जा
रही है और मुफ्त में किताबें भी बंटवाई जा रहीं है। भारत से परम्परागत रूप से जुड़े श्रीलंका के नौनिहालों
पर चीनी संस्कृति का प्रभाव बढ़ाने का यह प्रयास बड़े पैमाने पर किया जा रहा है।
इस समय चीन श्रीलंका का केवल सबसे
बड़ा आर्थिक और सामरिक साझेदार बन गया है।
भारत
की चिंता यह भी है कि श्रीलंका के आम चुनाव में प्रचण्ड बहुमत मिलने के बाद महिंदा
राजपक्षे श्रीलंका का संविधान बदलने,अल्पसंख्यक तमिलों के संविधानिक अधिकारों के
साथ छेड़छाड़ करने और अपने भाई के साथ मिलकर राष्ट्रपति की शक्तियों को बढ़ाने का
प्रयास कर सकते है। यदि ऐसा होता है तो इससे न केवल श्रीलंका
के तमिल प्रभावित होंगे बल्कि भारत की आंतरिक और बाह्य राजनीति भी इससे प्रभावित
हुए बिना नही रह सकती। श्रीलंका में बसने वाले तमिलों का संबंध
भारत के दक्षिणी तमिलनाडु राज्य से है। अल्पसंख्यक और गरीब होने के कारण श्रीलंका की सरकारे इनके
मौलिक अधिकारों की अनदेखी करती रही है,इस प्रकार इस देश में बसने वाले लाखों तमिलों में असुरक्षा,अविश्वास
और आतंक की भावना विद्यमान है। श्रीलंका के 13
वे संविधान संशोधन में यह कहा गया है कि हम तमिलों को गरिमापूर्ण जीवन जीने के लिए
कई तरह के अधिकार प्रदान करेंगे,श्रीलंका सरकार का रुख इसे लेकर सकारात्मक नहीं है। तमिलों के हितों को देखते हुए भारत के
सामने बड़ी चुनौती है कि वह श्रीलंका की सरकार से इन्हें लागू करवाएं।
राजपक्षे जिस प्रकार संकीर्ण राष्ट्रवाद को बढ़ावा दे रहे है,उससे लगता नहीं की वे तमिलों
की बेहतरी के लिए काम करेंगे बल्कि तमिलों पर अत्याचार बढ़ सकता है।
ऐसे में यदि श्रीलंका में तमिलों का कोई आंदोलन पुन: शुरू
होता है तो उससे भारत प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। श्रीलंका में गृहयुद्द के समय तमिलों पर
अत्याचारों को लेकर श्रीलंका की वैश्विक आलोचना होती रही है और वहां से विस्थापित
हजारों तमिल परिवार तमिलनाडु में शरण लिए हुए है। भारत श्रीलंका की तमिल विरोधी नीति का मुखर विरोध करता रहा है और
संयुक्तराष्ट्र मानव अधिकार परिषद में उसके खिलाफ अनेक बार मतदान भी किया है।
जबकि चीन और पाकिस्तान ने संयुक्तराष्ट्र
में श्रीलंका के पक्ष में मतदान करके भारत के खिलाफ कूटयुद्द को बढ़ावा दिया है। हिन्द महासागर में अपनी स्थिति मजबूत रखने के लिए भारत को
श्रीलंका से संबंध भी मधुर रखना है और तमिलों के अधिकारों की रक्षा भी करना है।
भारत
के सामने एक बड़ी चुनौती यह भी है कि श्रीलंका आर्थिक रूप से पराधीन देश है और चीन
इसका लगातार फायदा उठा रहा है। कोरोना काल में श्रीलंका की अर्थव्यवस्था टूट चुकी है और संकट
में है। श्रीलंका पर कुल विदेशी क़र्ज़ क़रीब 55 अरब डॉलर है और
यह श्रीलंका की जीडीपी का 80 फ़ीसदी है। इस क़र्ज़ में चीन और एशियन डिवेलपमेंट बैंक का 14 फ़ीसदी
हिस्सा है,जापान का 12 फ़ीसदी, विश्व बैंक का 11 फ़ीसदी और भारत
का दो फ़ीसदी हिस्सा है।
ऐसे माहौल में भी श्रीलंका का व्यवहार आशंकित करने वाला है। कोरोना की मार से बेहाल और पस्त पड़ी
अर्थव्यवस्था को गति देने के लिए इस साल जून में श्रीलंका के राष्ट्रपति गोटाभाया
राजपक्षे ने यूरोपीय यूनियन के राजदूतों के एक समूह से कहा था कि श्रीलंका को नए
निवेश की ज़रूरत है न कि नए क़र्ज़ की। गोटाभाया चीन के
कर्ज की कीमत तो समझ रहे है लेकिन उसके गहरे दबाव में भी निर्णय ले रहे है।
2019
में श्रीलंका की सरकार ने भारत और जापान के साथ कोलंबो में ईस्ट कॉन्टेनर टर्मिनल
बनाने को लेकर समझौता किया था,इस समझौते को श्रीलंका के तत्कालीन राष्ट्रपति
मैत्रीपाला सिरीसेना और भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बीच बताकर इसके
भविष्य पर कुछ समय पहले महिंदा राजपक्षे ने सवालिया निशान खड़ा किया था और अब उनके
प्रधानमंत्री बनने के बाद तो यह पूरी योजना खटाई में पड़ सकती है। भारत और जापान से चीन की कड़ी
प्रतिद्वंदिता है और चीन श्रीलंका में इन देशों की मौजूदगी को खत्म करना चाहता है,ऐसा
लगता है कि चीन के समर्थक महिंदा राजपक्षे ने इसके भविष्य पर चीन के दबाव में ही
सवाल उठाये है।
श्रीलंका की भारत से सांस्कृतिक और भौगोलिक निकटता सामरिक दृष्टि से ज्यादा असरदार साबित होती है। शांति की अस्पष्ट विचारधारा दक्षिण एशिया की सुरक्षा के लिए बड़ी चुनौती रही है,कई देश अपनी बुनियादी नीति को छुपाकर शांति का मुखौटे की तरह प्रयोग करते है। इस समय राजपक्षे बंधु अंतर्राष्ट्रीय राजनीति का यथार्थवादी दृष्टिकोण अपनाकर तथा न्याय,शांति और औचित्य को भ्रामक धारणा मानकर उसे ख़ारिज कर रहे है। वह तमिलों के अधिकारों की रक्षा को लेकर अस्पष्ट है और चीन जैसे आक्रामक देश से सम्बन्ध मजबूत कर भारत की समुद्री सुरक्षा को भी संकट में डाल रहे है।
बहरहाल भारत को श्रीलंका के साथ भू-अर्थशास्त्र और भू-राजनीति में बेहतर समन्वय स्थापित करने के लिए ज्यादा कूटनीतिक प्रयास करने की जरूरत है,जिससे चीन की सौदेबाजी की शक्ति को प्रभावित कर प्रधानमंत्री महिंदा राजपक्षे और उनके भाई राष्ट्रपति गोटाभाया राजपक्षे को भारतीय हितों के प्रतिकूल कार्य करने से रोका जा सके।
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