नया इंडिया
आज़ादी के दिन महात्मा गांधी
का संघर्ष
डॉ.ब्रह्मदीप अलूने
[लेखक द्वारा लिखित गांधी है तो भारत है का
अंश..]
महात्मा गांधी ने एक बार प्रार्थना सभा में
कहा था कि “मैं जन्म से ही संघर्ष करने वाला हूँ और असफलता को नहीं जानता।” दरअसल देश के विभाजन का घाव
गांधी के लिए असहनीय था लेकिन इसके
बाद भी उनके सर्वधर्म समभाव को लेकर प्रयासों में कोई कमी नहीं थी।
उन्होंने लंबे संघर्ष के बाद
मिल रही आज़ादी के जश्न में शामिल होने से इंकार करते हुए कहा कि वे बंगाल में ही
ठीक है और उनकी पहली प्राथमिकता यहाँ जनता के बीच शांति और सद्भाव कायम करना है।
भारत को
आज़ादी मिली लेकिन गांधी
परेशान और बेचैन थे। सांप्रदायिक हिंसा की घृणा और अविश्वास को वे देश के भविष्य
के लिए सबसे बड़ी चुनौती के रूप में देख रहे थे। उन्होंने कहा कि”मैंने इस विश्वास
में अपने को धोखा दिया कि जनता अहिंसा के
साथ बंधी हुई है।”
महात्मा गांधी ने लोगों को चेताया कि उन्हें इस
आजादी का बुद्धिमानी और संयम के साथ इस्तेमाल करना है।
विभाजन के घोषणा के बाद साम्प्रदायिक हिंसा से जलते हुए बिहार और बंगाल में गांधी
का जाना और अति संवेदनशील इलाकों में रुकना भारतीय इतिहास की ऐसी दु:साहसिक यात्रा
है जिसकी और कोई मिसाल नहीं मिलती।
बंगाल
पहुंच कर गांधीजी ने घोषणा की कि “जब तक कलकत्ते में शांति स्थापित न होगी,वह अपना
उपवास नहीं तोड़ेंगे। जो मेरे कहने से न हुआ,वह शायद मेरे उपवास से हो जाये।“ भयावह
हिंसा के बीच वे कलकत्ता की गलियों में जा जा कर लोगों से मिल रहे थे,संवेदनाएं
व्यक्त कर रहे थे और हिंसा को रोकने के गुहार लगा रहे थे।
गांधी
के उपवास का व्यापक असर हुआ। समाज के सभी वर्गों में यह संदेश गया कि यदि
साम्प्रदायिक दंगे नहीं रुके तो बापू की जान जा सकती है। लोग गाँधी जी मिलकर
मिन्नते करने लगे की वे उपवास छोड़ दे लेकिन गांधी
लोगों के सदबुद्धि आने तक आमरण उपवास पर रहने की अपनी प्रतिज्ञा से नहीं डिगे। कई
व्यापारी,हिन्दू मुसलमान और अन्य धर्मों के प्रतिनिधियों ने बापू को भरोसा दिलाया
कि कलकत्ता में कोई भी हिंसा या तनाव नहीं होगा। उपद्रवियों ने बापू को विश्वास
दिलाने के लिए अपने हथियार उनके सामने जमा कर दिए। पुलिस और जनता भी बापू के उपवास
में शामिल हो गई। यह उपवास तब तक चला जब तक बंगाल के इलाकों में पूर्ण शांति
स्थापित नहीं हो गई। गांधी
के लिए अहिंसा का अर्थ पृथ्वी पर किसी को भी मन ,कर्म और वचन से हानि न पहुंचाना
था। उन्होंने कहा,”हिंसा में किसी भी प्राणी को कटु शब्दों,तीखे निर्णयों, द्वेष
भावना,क्रोध,घृणा,निर्दयता या निर्बल प्राणी को जान बूझ कर सताना,उसका आत्मसम्मान
नष्ट करना आदि सम्मिलित है।“
15 अगस्त
1947 का दिन भी उनके लिए सामान्य दिन जैसा ही था,वे उपवास और प्रार्थना से शांति
स्थापित करने की कोशिशें कर रहे थे। बंगाल में आज़ादी के दिनका जश्न कई इलाकों में हिन्दू
और मुसलमानों ने मिलजुल कर मनाया। इसके बाद बापू दिल्ली होकर पंजाब जाने के लिए
रवाना हो गए। दिल्ली में भी विभाजन से प्रभावित हजारों लोगों की भीड़ थी जिनकी
रहने,खाने पीने और रुकने की व्यवस्था करने की सबसे बड़ी चुनौती बढ़ती जा रही थी। गांधी
दिल्ली में जिस हरिजन बस्ती में रुकते थे वहां भी लोगों का जमावड़ा बढ़ गया था। वे बिड़ला
भवन रुके लेकिन वहां भी वे बरामदें में सोये और शेष जगह शरणार्थियों के लिए
सुरक्षित कर दी।
महात्मा
गांधी कहा करते थे कि वे सवा सौ वर्षों तक जीवित रहना चाहते है लेकिन कलकत्ता के
दंगों से वे बह दुखी थे। एक बार उन्होंने कहा कि,”भाई भाई की इस सत्यानाशी लड़ाई को
देखते हुए जीवित रहने की अब जरा भी इच्छा नहीं होती।” अपने जन्मदिवस पर बधाई देने
वालों से उन्होंने कहा,”बधाई कैसी मातमपुर्सी होना चाहिए।“
आज़ादी के
बीच विभाजन से उत्पन्न हुई स्थितियां बेहद बेकाबू थी। घर,जमीन,रोजी,रोटी के साथ
लोगों के परिवार भी उजड़ गए थे। दंगों से प्रभावित लोगों के मन में एक दूसरे
सम्प्रदाय के प्रति गुस्सा और रोष था। जो लोग पाकिस्तान से लौट रहे थे वे असहनीय
पीड़ा और हिंसा का सामना कर बड़ी मुश्किल से जान बचाकर भारत आ पाए थे। ऐसे लोग
मुसलमानों के प्रति गुस्से से भरे हुए थे।
लोगों के
दिलों से गुस्सा मिटाना और घृणा दूर करना बड़ा कठिन कार्य था। साम्प्रदायिक विद्वेष
में महात्मा गांधी पर जान का खतरा बना हुआ
था लेकिन इसके बाद भी वे शरणार्थी शिविरों में जाकर लोगों से मिल रहे थे और उनकी
समस्याओं को सुनने के साथ समाधान का भी प्रयास कर रहे थे। दिल्ली में कुछ कैम्प
में हिंसा को झेलते हुए पश्चिमी पाकिस्तान से भाग कर आए हिंदू और सिख शरणार्थी भरे
हुए थे और कुछ में दिल्ली से भागने वाले मुसलमान सीमा के पार जाने के इंतजार में
थे।
13 जनवरी
1948 को उन्होंने दिल्ली में शांति की स्थापना के लिए उपवास प्रारम्भ किया और कहा
कि जब तक दिल्ली में शांति की स्थापना नहीं हो जाती वे उपवास नहीं तोड़ेंगे। महात्मा
गांधी नई चुनौतियों और परिस्थितियों के बीच रचनात्मक कार्य करना चाहते थे। सामाजिक
संगठनों को एकताबद्ध करने की संभावनाओं पर वे चर्चा कर रहे थे जिससे अहिंसक समाज
रचना के कार्य का सुचारू ढंग से संचालन किया जा सके।
राजनीतिक
स्वाधीनता को हासिल करने के बाद देश के सर्वांगीण विकास के लिए साम्प्रदायिक
विद्वेष को दूर कर सामाजिक और आर्थिक सुधारों को लागू करना सबसे बड़ी प्राथमिकता थी,गांधी
अहिंसक ढंग से इसे क्रियांवित करने को
संकल्पित रहे। वे इस बात पर जोर देते रहे
कि “जिस प्रकार पशुओं के लिए हिंसा का नियम और नीति है उसी प्रकार अहिंसा का नियम
और नीति हम मानवों के लिए है।“
महात्मा
गांधी भारत को दिशा दिखाते अकेले चलते रहे और इस विश्वास के साथ इस दुनिया से गए
होंगे की भारत उनके बताएं रास्ते पर चलेगा। गांधी को जरूरत समझे या मजबूरी लेकिन
वे हमेशा प्रासंगिक है। भारत के अतीत,वर्तमान और
भविष्य को लेकर गांधी की समझ का और कोई विकल्प नहीं हो सकता। समय का पहिया घूमकर
वहीं आ गया है और आसन्न संकट में गांधी की आत्मनिर्भरता की सीख सामने है।