दबंग
दुनिया
नेपाल में देव पर दानव भारी
साम्यवादी धर्म को मानते ही नहीं है इसलिए वे हर धर्म की निंदा
करते हैं,साम्यवादी नेता अपनी राजनीतिक सत्ता को मजबूत करने के लिए धर्म पर आधारित
चिंतन,अवधारणाओं,संकल्पनाओं तथा सिद्धांतों को चुनौती
देते है और मौका पड़ने पर वे हिंसा से जनता पर अपनी नास्तिक विचारधारा थोप देते है। दरअसल नेपाल के प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली की भगवान राम के जन्मस्थान को लेकर
विवाद उत्पन्न करने की उनकी कोशिश कम्युनिस्ट पार्टी की वह नीति ही है जिसके
अनुसार धर्म के अस्तित्व को चुनौती देकर ही राजनीतिक सत्ता की इमारत को मजबूत किया
जा सकता है।
नेपाल में राजवंश की राजनैतिक सत्ता की समाप्ति के बाद लोकतंत्र का आगाज बेहद दिलचस्प लेकिन विवादास्पद रहा है। लोकतंत्र को सामाजिक न्याय की स्थापना का प्रमुख साधन माना जाता है,वहीं नेपाल के राजनीतिक संगठनों ने इसे येन-केन कर सर्वोच्च सत्ता पर बने रहने का माध्यम बना लिया है और प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली इस अभियान के प्रमुख प्रणेता बनकर उभरे है।
भारत
और नेपाल के वैदिक काल से ही ऐतिहासिक सम्बन्ध रहे है और नेपाल को लेकर भारत ने
सदा नैतिकता और उदारता का परिचय दिया है।
भारत से मजबूत सम्बन्ध नेपाल की सामरिक जरूरत और
मजबूरी रही है,इसके बाद भी भारत ने लगातार अपनी विदेश नीति में अत्यधिक लचीलापन
दिखाया। मोदी जब पहली बार नेपाल की
यात्रा पर गए तो उन्होंने इसे आस्था और भावनाओं से जोड़ा।
उन्होंने पशुपतिनाथ की आगन्तुक
पुस्तिका में लिखा,“बागमती तट पर स्थित पशुपतिनाथ का मन्दिर आस्था एवं विश्वास का
अद्वितीय केन्द्र है, स्कन्दपुराण में कहा गया है कि काशी विश्वनाथ और पशुपतिनाथ
एक ही रूप है, श्रावण मास,शुक्ल पक्ष,अष्टमी पर यहाँ आकर मैं भाव-विभोर हूँ। नेपाल
और भारत को जोड़ने वाले पशुपतिनाथ की कृपा दोनों देशों पर बनी रहे। यही मेरी कामना
है।” इसके बाद मोदी जब फिर नेपाल गए और उन्होंने देव नीति से नेपाल का दिल जीतने
की कोशिश की। अपनी नेपाल यात्रा के दौरान प्रधानमंत्री मोदी ने कूटनीति पर देवनीति
को तरजीह देकर दोनों देशों के संबंध प्रगाढ़ रखने के लिए रचनात्मक दांव खेला। इस
अवसर पर जनकपुर
से अयोध्या के बीच सीधी बस सेवा की भी शुरुआत कर जहां मोदी ने त्रेता युग से
सम्बन्धों की गहराई का एहसास कराया, वहीं नेपाल में स्थित हिमालय की 3 हजार
700 मीटर से ज्यादा ऊँचाई पर मुक्तिनाथ मन्दिर जाकर पूजा अर्चना कर यह सन्देश भी
देने की कोशिश की की भारत और नेपाल के संबंध हिमालय से भी ऊँचे है।
वास्तव में
व्यापार संरक्षणवाद से वैश्विक वर्चस्व बनाने के चीन के खतरनाक मंसूबों को रोकने
के लिए पिछले कुछ वर्षों में मोदी सरकार ने देवनीति का सहारा लिया है। यह सही है
की भाषा,धर्म और देवी देवताओं के क्षेत्र में भारत और नेपाल के बीच युगों युगों से
ऐतिहासिक,सांस्कृतिक,भौगोलिक और धार्मिक समानता रही हैं,लेकिन बदलते
अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य में चीन की आक्रामक महत्वकांक्षी नीतियों का सामना देव
नीति से नहीं किया जा सकता,इसे समझने की जरूरत है।
नेपाल की
राजनीतिक अस्थिरता और माओवादी ताकतों के प्रभाव से चीन के लिए स्थितियां माकूल बनी
है और इसका फायदा चीन लगातार उठा रहा है। उसने हिमालय भेदकर भारत के
राजनीतिक,आर्थिक और सामरिक हितों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण नेपाल को आर्थिक रूप से
अपनी जद में ले लिया है और उसका निवेश बढ़कर 68 प्रतिशत तक पहुँच गया है। नेपाल में
भारत विरोध के पीछे चीन की वृहद रणनीति रही है। चीन हमेशा से ही नेपाल के साथ
विशेष सम्बन्धों का पक्षधर रहा है,तिब्बत पर कब्जे के बाद उसकी सीमाएं सीधे नेपाल
से जुड़ गयी है। चीन की नेपाल नीति का मुख्य आधार था की नेपाल में बाह्य शक्तियां
अपना प्रभाव न जमा सके जिससे टी.ए.आर.
अर्थात तिब्बती आटोनामस रीजन की सुरक्षा हो सके। दूसरा नेपाल में भारत के प्रभाव
को कम किया जाये। उसने नेपाल में अनेक परियोजनाएं आक्रामक ढंग से शुरू कर तिब्बत
से सीधी सड़क भारत के तराई क्षेत्रों तक बनाया,रेल मार्ग नेपाल की कुदारी सीमा तक
बनाया,नेपाली कम्युनिस्ट और माओवादी गुटों को आर्थिक और सैनिक मदद से चीन का समर्थन
और आम नेपालियों में उनके द्वारा भारत विरोधी भावनाएं भड़काने की साजिशें रची गयी।
इसके साथ ही चीनी सामानों की नेपाल के
रास्ते भारत में डम्पिंग,माओवादी हिंसा के जरिये नेपाल से आंध्र तमिलनाडू तक रेड
कॉरिडोर में भारत को उलझाएं रखना,पाक की आई.एस.आई का नेपाल में लगातार गतिविधियां,तस्करी
और आतंकवादियों का भारत में प्रवेश सुलभ हुआ है।
अंतर्राष्ट्रीय
राजनीति में शक्ति संतुलन बनाए रखने के लिए हस्तक्षेप का प्रयोग किया जाता है। दक्षिण
एशिया में भारत के प्रभुत्व को कम करने के लिए चीन ने हस्तक्षेप के बूते नेपाल और चीन के
बीच तिब्बत के केरुंग से ले कर काठमांडू तक रेलवे लाइन बिछाने के समझौते पर
हस्ताक्षर करके भारत की उत्तरी पूर्व की सीमा के और नजदीक तक आ जाने की स्थिति में
आ गया है। यह भी बेहद दिलचस्प है कि भारत की विदेश नीति अहस्तक्षेप पर
आधारित है। कूटनीतिज्ञ मार्गेनथाऊ कहते है कि राष्ट्र के उद्देश्यों को सदैव विवेक
से संचालित किया जाता है,न की किसी सार्वभौमिक नैतिकता का पालन किया जाता है। भारत
ने नेपाल को हमेशा सार्वभौमिक विचारधारा से जोड़ कर देखा वहीं साम्यवादी चीन के लिए
विचारधारा एक मिथ्या चेतना है,उसने अहस्तक्षेप को दरकिनार कर भारत को नेपाल में भी
घेर लिया है।
नेपाल
से करीबी सम्बन्धों के बाद भी वहां की जनता में भारत विरोध बढ़ता जा रहा है, चीन के
प्रभाव के चलते यह भारत की सीमाओं को भी असुरक्षित कर सकता है। जाहिर है ओली जैसी साम्यवादी राजनीतिक
सत्ताओं को मजबूत होने से रोकने के लिए और नेपाल में मजबूत बने रहने के लिए भारत
को देवनीति से ज्यादा कूटनीति की जरूरत है। भारतीय नीति निर्माताओं को यह
सुनिश्चित करना होगा कि नेपाल के
साथ सांस्कृतिक,आर्थिक और राजनीतिक हितों का संरक्षण और उनके बीच बेहतर समन्वय
कायम हो सके।
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