इसीलिए हिंदुस्तानी मुसलमान है सबसे अलहदा
डॉ.ब्रह्मदीप अलूने
शिक्षाविद
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यह मुहब्बत और इबादत
की ईद है लेकिन इस त्योहार तक पहुँचते हुए जो सफर तय हुआ है वह हिंदुस्तान की
तारीख में हमेशा याद किया जाएगा। कई धर्मों और
संस्कृतियों से भरा हमारा महान लोकतंत्र व्यक्तिगत स्वतंत्रता और अवधारणाओं की
गारंटी देता है। हिंदुस्तान की तारीख में शाही इमाम की रमज़ान की नमाज के दौरान कभी
आंखे नम नहीं हुई,लेकिन इस बार ऐसा ही हुआ,हालांकि
इसका कारण महामारी का प्रकोप था। रमज़ान के महीने की शामें बड़ी रंगीन और खुशबूदार
होती है। इस बार फिजाँ में कोई रंगीनियां
नहीं थी। हैदराबाद की होटलों में सैंकड़ों तरह की बिरयानी सजी नहीं थी,बघारे बैंगन और अंचारी सब्जी भी न नसीब हुई। दक्कन का यह नवाबी इलाकें में सादी दाल और रोटी
से ही लेकिन खामोशी से इफ्तार करके पूरा महीना बीता दिया। रोजे की कठिन चुनौती को
मुस्कुराकर अपनाते नौनिहालों में शायद ही किसी ने महीने भर में मिठाई का जायका
लिया हो लेकिन मिठाई की ज़िद में रोने की कहीं आवाज सुनाई नहीं दी।
तटीय
कर्नाटक के लोग खाने के बड़े शौकीन होते है। यहाँ भोजन में समुद्री भोजन, नारियल और नारियल तेल का व्यापक उपयोग के साथ शोरबे को चावल के साथ परोसा जाता है।
दालों और सब्जियों को नारियल,मसालों के साथ पकाया जाता है और
सरसों,करी पत्ता,हींग से छौंक लगाई
जाती है जिसे हूली कहते हैं इसे भी चावल के साथ ही परोसा जाता है। मैसूर के आस पास
के लोग मैसूर पाक,धारवाड़ पेड़ा,फेनी,चिरोती को पसंद करते है,इसके बिना तो इफ्तार होता ही
नहीं,लेकिन इस बार इफ्तार ऐसे ही हुआ। केरल में न तो मीन
तोरण या मालाबार बिरियानी मिली,न ही उत्तर भारत में आगरा की
मिठाइयाँ। तमिलनाडु से लेकर बंगाल तक रमज़ान का महीना बेहद
खामोशी से बीता,बांग्ला मुसलमान आम बंगाली की तरह
हिल्सा मछली का बेहद शौक़ीन होता है,लेकिन उसने इस मछ्ली के
बिना ही रोजे छोड़े।
दरअसल यहीं तो
हिंदुस्तानी तहज़ीब है जो अपनी आस्था में डूब जाने को पसंद करती है लेकिन उसकी प्रतिबद्धताओं
में मुल्क और समाज के सभी तबकों की बेहतरी होती है। रहमत,बरकत और मगफिरत या मोक्ष के महीने भर के रमज़ान का यह सफर कड़ी तपस्या का
होता है लेकिन इस बार यह चुनौतीपूर्ण भी रहा।
कोरोना की दहशत
अभिशाप की तरह मानव जाति को निगलने को आमादा है और इससे बचाव का तरीका अपने को घर
में कैद कर लेना बताया गया। रमज़ान की इबादत के
साथ भारतीय मुसलमानों के लिए सरकार ने कुछ गाइडलाइंस जारी की, जिनमें यह हिदायत दी गई कि मस्जिदों के बजाय मुसलमान अपने घरों में नमाज़
पढ़ें और लॉकडाउन में मस्जिदों से लाउडस्पीकर से अज़ान भी बंद कर दे। रोज़ा खोलने
के बाद रात में पढ़ी जाने वाली नमाज़ भी घरों में पढ़े। मस्जिदों में इफ़्तार
पार्टी का आयोजन न करे। रमज़ान की ख़रीदारी के लिए घरों से बाहर न निकले। कश्मीर से कन्याकुमारी तक बसने वाले करोड़ों
मुसलमानों ने सरकार कि गाइड लाइन का पालन करते हुए अपनी धार्मिक प्रतिबद्धताओं का
पूरा पालन किया और कानून व्यवस्था कि स्थिति बिल्कुल प्रभावित न हुई। हजारों
वर्षों के इस्लामिक इतिहास में शायद ही ऐसा कभी हुआ हो कि रमज़ान के महीने में नमाज
मस्जिद में जाकर सामूहिक रूप से न पढ़ी जायें लेकिन इस बार ऐसा हुआ और इसका पालन भी
किया गया।
इस्लामिक संस्कृति को अलग बताकर हिंदुस्तान से अलग हुए जिन्ना के पाकिस्तान
का माहौल इस सबसे जुदा था। कोरोना के कहर से बचने कि सरकार कि हिदायत से इतर इस्लामाबाद
की मशहूर लाल मस्जिद में जुमे की नमाज़ पढ़ी गई जिसमें भारी संख्या में लोग जमा
हुए और कोरोना से जुड़े तमाम एडवाइज़री और सरकारी आदेशों का जमकर उल्लंघन हुआ।
कराची में हुई एक प्रेस वार्ता में दो नामी धर्म गुरुओं मुफ़्ती
मुनीबुर्रहमान और मुफ़्ती तकी उस्मानी ने सरकार को चुनौती देते हुए कहा कि “मस्जिदें और मदरसे अनिश्चित काल के लिए बंद नहीं रह सकते,इसलिए रमज़ान के महीने में इन्हें खोला जाएगा और सामान्य दिनों की तरह
मस्जिदों में नमाज़ पढ़ी जाएगी। लॉकडाउन के दौरान पाकिस्तान में स्थानीय प्रशासन
को मस्जिदों पर प्रतिबंध लगाने में बहुत परेशानी का सामना करना पड़ा। कोरोना के डर
से बेखौफ मस्जिदों में भारी भीड़ जमा हुई और
पुलिस ने ऐसी मस्जिदों को बंद कराने की कोशिश की तो रूढ़िवादी लोगों के समूह ने
पुलिस के साथ भीड़ बदसलूकी की। पाकिस्तान में कट्टरपंथियों से खौफ़जदा प्रधानमंत्री
इमरान ख़ान को मीडिया के सामने आकार सफाई देनी पड़ी और उन्होंने अपनी लाचारी को
जाहिर करते हुए कहा कि “हम आज़ाद देश है,हम कैसे लोगों को मस्जिदों में जाने से रोक सकते हैं अगर वो वहाँ जाना ही
चाहते हैं।”
दरअसल कोरोना काल ने विश्व को एक नई दृष्टि दी है जिसमें इस बात को महसूस किया
गया कि इस संकट से सही तरीके से नहीं निपटा गया तो मानव अस्तित्व खत्म हो जाएगा। ऐसी
कठिन चुनौती से निपटने के सभी देशों को अपने नागरिकों से सहयोग कि अपेक्षा थी।
भारत जैसे देश के लोगों का राष्ट्रीय चरित्र भी सामने आया और पाकिस्तान जैसे देशों
का भी।
रमज़ान में साझा
संस्कृति के सम्मान के साथ भारतीय समाज के सबसे सकारात्मक पहलू सहनशीलता और आशावाद
की झलक बार बार दिखाई दी। भारतीय मुसलमानों ने बेहद संजीदा होकर रोजे भी रखे और
व्यवस्थाओं को भी बनायें रखकर दुनिया को यह संदेश दिया कि भारत की तहज़ीब नैतिक और
आध्यात्मिक मूल्यों में आधारित है और यही इस देश की विशेषता है।
बहरहाल कोरोना काल की
चुनौती की बीच रमज़ान का आना हमारी साझी संस्कृति को मजबूत करने वाला रहा। आधुनिक
युग में देश की परम्पराओं से अंजान और भौतिकवाद की दौड़ में गुम होती पीढ़ी के लिए
यह रमज़ान हमारे देश की साझी संस्कृति की खूबियों को जानने,समझने और परखने का अवसर दे गया।
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